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संथारा आत्महत्या नहीं, आत्म समाधि की मिसाल है

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ललि‍त गर्ग

जैन धर्म के छोटे-से आम्नाय तेरापंथ धर्मसंघ के वरिष्ठतम मुनिश्री सुमेरमलजी सुदर्शन का इन दिनों दिल्ली के ग्रीन पार्क इलाके में संथारा यानी समाधिमरण का आध्यात्मिक अनुष्ठान असंख्य लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। मृत्यु के इस महामहोत्सव के साक्षात्कार के लिए असंख्य श्रद्धालुजन देश के विभिन्न भागों से पहुंच रहे हैं। अनेक राजनेता, समाजसेवी, पत्रकार, साहित्यकार भी दर्शनार्थ पहुंच कर अमरत्व की इस अनूठी एवं विलक्षण यात्रा से लाभान्वित हो रहे हैं।
 
जैसा कि सर्वविदित है कि जैन धर्म में अनगिनत सदियों से संथारे की परंपरा चली आ रही है और वर्तमान में भी समाधिमरण की यह अनूठी परंपरा पूरी तरह से जीवित और जीवंत बनी हुई है। जैन धर्म के नियमानुसार ली जाने वाले संथारा व संलेखना समाधि की गौरवमयी आध्यात्मिक परम्परा है, जिसे धुंधलाने के प्रयास होते रहे हैं और इसे कानूनी मसला भी बनाया जाता रहा है। लोगों में सहज जिज्ञासा है कि संथारा आखिर क्या है? जैन धर्म के मृत्यु महोत्सव एवं कलात्मक मृत्यु को समझना न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिए बल्कि आम जनता के लिए उपयोगी है। यह मृत्यु की अनूठी आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसके उज्ज्वल इतिहास एवं महत्व को समझते हुए भूदान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे ने भी अपनाया था।
 
मुनि सुमेरमलजी सुदर्शन ने नब्बे वर्ष की आयु में अपने जीवन ही नहीं, बल्कि अपनी मृत्यु को भी सार्थक करने के लिए संथारा की कामना की, उनकी उत्कृष्ट भावना को देखते हुए आचार्यश्री महाश्रमण ने इसकी स्वीकृति प्रदत्त की और उन्हें 26 अगस्त 2018 को सायं संथारा दिला दिया गया। मुनिश्री का संपूर्ण जीवन भगवान महावीर के आदर्शों पर गतिमान रहा है। आप एक प्रतिष्ठित जैन संत हैं। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक एवं प्रवचनकार के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया है। विशाल आगम साहित्य आलेखन कर उन्होंने साहित्य जगत में एक नई पहचान बनाई है। ग्यारह हजार से अधिक ऐतिहासिक एवं दुर्लभ पांडुलिपियों, कलाकृतियों को सुरक्षित, संरक्षित और व्यवस्थित करने में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन आगमों के सम्पादन-लेखन-संरक्षण के ऐतिहासिक कार्य में आपका सम्पूर्ण जीवन, श्रम, शक्ति नियोजित रही है। अनेक विशेषताओं एवं विलक्षणओं के धनी मुनिश्री को ही आचार्यश्री महाश्रमण के आचार्य पदाभिषेक के अवसर पर सम्पूर्ण समाज की ओर से पछेवड़ी यानी आचार्य आदर ओढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सुप्रतिष्ठित जैन विद्या पाठ्यक्रम को तैयार कर भावीपीढ़ी के संस्कार निर्माण के महान कार्य को भी आपने अंजाम दिया है। ऐसे महान साधक, तपस्वी एवं कर्मयौद्धा संत का संथारा भी एक नया इतिहास निर्मित कर रहा है।
 
श्रमण संस्कृति की अति प्राचीन और अहम धारा जैन धर्म की परंपरा में संलेखना और संथारा को सदैव बहुत उच्च साहसिक त्याग का प्रतीक माना गया है। जैन समाज में यह पुरानी प्रथा है कि जब किसी तपस्वी व्यक्ति को लगता है कि वह मृत्यु के द्वार पर खड़ा है तो वह स्वयं अन्न-जल त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को संथारा कहा जाता है। इसे जीवन की अंतिम साधना के रूप में स्थान प्रदान किया है। अंतिम समय की आहट सुनकर सब कुछ त्यागकर मृत्यु को भी सहर्ष गले लगाने के लिए तैयार हो जाना वास्तव में बड़ी हिम्मत का काम है। जैन परम्परा में इसे वीरों का कृत्य माना जाता है। यहां वर्धमान से महावीर बनाने की यात्रा भी त्याग, उत्सर्ग और अपार सहनशीलता का ही दूसरा नाम है। 
 
यह समझना भूल है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का अन्न-जल जानबूझकर या जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है। संथारा स्वप्रेरणा से लिया गया निर्णय है। यह मृत्यु का महोत्सव है, न कि आत्महत्या। जैन धर्म-दर्शन-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा प्रथा। यहां धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला का नाम है संथारा। यह आत्महत्या नहीं, आत्मसमाधि की मिसाल है और समाधि को जैन धर्म ही नहीं, भारतीय संस्कृति में गहन मान्यता दी गई है। मरते समय कौन नहीं चाहेगा कि मेरे मुख से प्रभु-नाम निकले? 
 
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में एक चौपाई लिखी है, ‘कोटि-कोटि मुनि जतन कराहिं। अन्त राम कहि आवत नाहिं’बस इसी मंगल भावना का साकार रूप सल्लेखना अथवा संथारा है जिसमें अहिंसा अपनी पराकाष्ठा पर होती है और सारे व्रत अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं। 
 
आज जबकि सर्वत्र यही देखने में आता है कि कोई भी मनुष्य मरना नहीं चाहता। ‘सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउे न मरिज्जिऊं’ जिजीविषा हर प्राणी की एक मौलिक मनोवृत्ति है। मौत का फंदा जब गले में पड़ता है तो अंतिम क्षण तक वह चाहता है कि कोई मुझे किसी भी कीमत पर बचा ले। मगर मौत एक शाश्वत नियति है जिसे टाला नहीं जाता। मौत का भय जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है। भयभीत मन तृष्णा को विस्तार देता है, इसलिए वह पदार्थों का संग्रह करता है। साथ ही उपभोग के साथ व्यय की चिंता भी सताती है। मौत महत्वाकांक्षाओं के अधूरे रह जाने का संकेत है। मृत्यु मोहावृत्त मन के लिए दुखदायी है, क्योंकि मृत्यु शय्या पर पड़ा व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा? यह न सोचकर शेष रहे कामों पर पश्चाताप के आंसू बहाता है। संग्रहीत और संरक्षित सुविधाओं का भोग पूरा नहीं कर सका, इसका दु:ख सालता है। पदार्थ, व्यक्ति और दौलत में अटका मन देह पिंजरे से निकलता हुआ भी बहुत कष्ट पाता है। इन स्थितियों के बीच संथारा मृत्यृ को आनंदमय एवं महोत्सवमय बनाने की प्रक्रिया है।
 
संथारा जैन धर्म की आगमसम्मत प्राचीन तप-आराधना है। बारह प्रकार के तप में प्रथम अनशन तप का एक भेद संथारा है। संथारा शब्द के साथ ही संलेखना शब्द का प्रयोग भी मिलता है। यूं बोल-चाल में संलेखना और संथारा शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में कर दिया जाता है, लेकिन दोनों शब्दों में अन्तर है। संलेखना संथारा ग्रहण करने की पूर्व अवस्था है। संलेखना का अर्थ होता है, सभी सांसारिक वस्तुओं और सम्बन्धों का विसर्जन। विसर्जन के बाद ज्ञात-अज्ञात समस्त पापों और दोषों की आलोचना करके, सभी जीवों से क्षमायाचना करके तपस्या व आत्म-साधना में लीन होना संथारा है। संथारे की सम्पूर्ति को समाधिमरण या पंडितमरण कहा जाता है। संथारा ग्रहण करने के बाद साधक न इस लोक की इच्छा करता है और न ही परलोक की। वह न जीने इच्छा रखता है और न ही मरने की। समस्त इच्छाओं और कामनाओं से परे होकर आत्मभाव एवं आत्मगुणों में लीन होना संथारा है। इस प्रकार संथारा जीवन और मरण, दोनों को सार्थक करने की अन्तिम आराधना है। किस तरह इस मृत्यु की इस दुख परम्परा को संथारे के माध्यम से छिन्न किया जा सकता है, और किस तरह से इस आदर्श परम्परा के माध्यम से जीवन के प्रति विवेकी नजरिया अपनाएं, झूठी मान्यता का त्याग करें, आत्म लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सतत अभ्यास, जागृत चिंतन, पैनी सुरक्षा एवं गहरे आत्मविश्वास के साथ प्रस्थान करें- यही संथारे का मूल ध्येय है।
 
संथारा बंधन मुक्ति का उपक्रम है। बंधन एक ऐसा शब्द है जो मनुष्य मन की विविध कोणों से विश्लेषण करता है। बंधन यदि विकास से जुड़ता है तो यह अनुशासन, मर्यादा, आत्मनियंत्रण बनकर उन सभी इच्छाओं को, असत् विचारों को, लक्ष्यहीन कर्मों को लक्ष्मणरेखा देता है, जिनका परिणाम सदा दुखदायी, भयावह और अशांति देने वाला बनता है। बंधन स्वयं द्वारा अर्जित संस्कार है, उसकी स्वीकृति में यदि हम जगे हुए हैं, हमारी निर्णय-बुद्धि स्फूर्त है, इसकी सीमाओं पर सजग पहरी बिठा रखा है तो यह बंधन भी मुक्ति के पथ पर साधना का एक अनूठा चरण हैं। जैन परम्परा में बंधन संसार-वृद्धि का कारण है और मोक्ष संसार चक्र से छूट जाने का मुक्ति-द्वार। एक तपती धूप, दूसरा सघन शीतल छांव। मनुष्य बंधता है अपने आवेगों से, कषायों से, संकल्पों-विकल्पों से। कषाय-चेतना क्रोध, मान, माया और लोभ से यूं जकड़ जाती है कि क्षमा, विनम्रता, ऋजुता, संतोष जैसे विधायक गुणों की सत्ता ही नहीं टिकती। न उसमें सम्यक्त्वबोध होता है, न आत्म-विकास की अभीप्सा जागती है, न वह संपूर्ण चाहों से संन्यस्त हो पाता है और न ही रागद्वेष के भावों का विजेता। मुनिश्री सुमेरमलजी सुदर्शन का संथारा निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का निमित्त बनेगा एवं उन्हें भी अमरत्व प्राप्त होगा, यही विश्वास है।


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