Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

रुश्दी की हत्या का प्रयास आख़िर क्या कहता है? मिस्र के 'रुश्दी' ने साधा इस्लामी विद्वानों पर निशाना

हमें फॉलो करें Salman Rushdie

राम यादव

, गुरुवार, 18 अगस्त 2022 (20:30 IST)
भारत में जन्मे और पिछले दो दशकों से अमेरिका में रह रहे साहित्यकार सलमान रुश्दी की हत्या के 12 अगस्त को हुए प्रयास ने पश्चिमी जगत के बुद्धिजीवियों को झकझोर दिया है। रुश्दी की सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर जितनी चिंता और चर्चा पश्चिमी मीडिया में है, उतनी भारतीय मीडिया में नहीं मिलती।

सलमान रुश्दी के बारे में सबसे राहत की बात यही है कि उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे सुधर रहा है। वे होश में हैं। कृत्रिम रूप से सांस नहीं देनी पड़ रही है। उनके मामले की जांच कर रहे अधिकारियों ने 15 अगस्त को अस्पताल में उनसे कुछ बात भी की। क्या बात हुई, यह बताया नहीं गया। उनके बेटे ज़फर रुश्दी ने ट्वीट किया कि उनकी तबीयत मे सुधार हुआ है, पर हालत अब भी गंभीर है।

75 वर्षीय रुश्दी के आततायी, 24 वर्षीय हादी मतार के बारे में भी कुछ नई बातें मालूम पड़ी हैं। वह इस समय पूछताछ के लिए जेल में है। ब्रिटिश दैनिक 'डेली मेल' ने अमेरिका में न्यूजर्सी राज्य के फ़ेयरव्यू में रह रही उसकी मां सिलवाना फ़र्दोस से बात की।

मां ने बताया कि वे लोग लेबनान के निवासी थे और अब अमेरिका में बस गए हैं। हादी अमेरिका में ही पैदा हुआ है। 2004 में पति-पत्नी में तलाक़ हो गया और पति लेबनान लौट गया। हादी 2018 में लेबनान गया था। जब से वहां से वापस आया है, तभी से बहुत बदला हुआ है।
webdunia

हादी सबसे अलग-थलग रहता था
मां ने कहा, मैं समझ रही थी कि वह जब वापस आएगा, तो अपनी पढ़ाई पूरी करने और कोई काम करने की प्रेरणा लेकर आएगा। लेकिन वह सबसे अलग-थलग घर के तहख़ाने में पड़ा रहता है। महीनों घर में किसी से बात तक नहीं करता। गुस्से में आकर कहने लगता है, मुझे बचपन से ही इस्लाम की शिक्षा क्यों नहीं दिलाई।

मां सिलवाना फ़र्दोस ने बताया कि वे खुद भी जन्मजात मुस्लिम ही हैं, लेकिन धार्मिक नहीं हैं और राजनीति से भी दूर रहती हैं। सलमान रुश्दी का या उनकी पुस्तक 'शैतानी आयतें' का नाम उन्होंने अपने बेटे के कारनामे के बाद ही सुना।

'डेली मेल' के इस इंटरव्यू से यही आभास मिलता है कि हादी मतार लेबनान में अपने पिता से मिला होगा। धार्मिक उन्माद की घुट्टी पिता ने ही पिलाई होगी। रुश्दी जैसे 'नास्तिक' की हत्या के फ़तवे पर अमल हादी को भी जन्नत में अपने लिए जगह आरक्षित कराने की सबसे अचूक रणनीति लगी होगी।

रुश्दी फ़तवे को गंभीरता से नहीं ले रहे थे
अपनी हत्या के फ़तवे को सलमान रुश्दी भी काफ़ी समय से गंभीरता से नहीं ले रहे थे। जर्मन पत्रिका 'श्टेर्न' को पिछले जुलाई महीने में दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, उसे तो काफ़ी समय हो गया है। जब से मैं अमेरिका हूं, तब से कोई समस्या नहीं रही।

कहावत है, 'सिर मुंडाते ही ओले पड़े'। रुश्दी ने अमेरिका में अपने आप को सुरक्षित घोषित किया नहीं कि उन पर चाकू से हमला हो गया। उनकी जान बच तो गई है, पर आशंका है कि उनकी एक आंख जाती रहेगी और एक बांह की कटी हुई नसों के कारण वह हाथ भी शायद ठीक से काम नहीं कर सकेगा।

अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सलीवन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने रुश्दी की हत्या के प्रयास को 'वीभत्स' बताया। अमेरिकी सीनेट में डेमोक्रैटिक सेनेटरों के नेता चक शूमर ने उसे 'सोचने और बोलने पर हमला' घोषित किया। फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों ने अपने ट्वीट में लिखा, रुश्‍दी को घृणा और बर्बरता का निशाना बनाया गया है। 2016 में इस्लामी घृणा और बर्बरता का स्वयं निशाना बन चुकी फ्रांसीसी कार्टून पत्रिका 'चार्ली एब्दो' ने लिखा, कोई भी किसी फतवे, किसी मृत्यदंड को सही नहीं ठहरा सकता।

जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शोल्त्स ने रुश्दी पर हमले को 'घृणित कार्य' बताते हुए उनके शीघ्र ही स्वस्थ होने की कामना की और लिखा, घृणा से भयभीत नहीं होने और निर्भीक होकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अडिग रहने वाले आप जैसे लोगों की ही दुनिया को ज़रूरत है। जर्मनी के एक प्रसिद्ध साहित्यकार ग्युंटर वालराफ़, सलमान रुश्दी से निजी तौर पर सुपरिचित रहे हैं। 1993 में उन्होंने रुश्दी को कोलोन शहर में स्थित अपने घर में छिपाया था। उन्होंने रुश्दी की हत्या के प्रयास को अपने लिए एक दर्दनाक आघात बताया।

ईरान में खुशी
दूसरी ओर, रुश्दी की हत्या के लिए 1988 में फ़तवा जारी करने वाले ईरान के मीडिया में स्वाभाविक है कि उनकी हत्या के प्रयास पर खुलकर खुशी मनाई जा रही है। ईरान के सरकारी दैनिक 'कायहान' ने 13 अगस्त को लिखा, उस साहसी और कर्तव्यनिष्ठ को हज़ारों बार शाबाशी, जिसने दुष्ट और ग़द्दार सलमान रुश्दी पर न्यूयॉर्क में हमला किया। उस हाथ को चूम लेना चाहिए, जिसने ख़ुदा के दुश्मन की गर्दन मरोड़ दी।

ईरानी अख़बार 'वतन एमरूज़' ने अपनी रिपोर्ट को 'सलमान रुश्दी के गले में चाकू' शीर्षक दिया। 'ख़ोरासान' नाम के एक दूसरे प्रमुख अख़बार का शीर्षक था, 'शैतान है नरक की राह पर'। एक जर्मन दैनिक ने टिप्पणी की कि यही लोग अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दावा करेंगे कि इस्लाम शांति और भाईचारे का धर्म है। किसी एक निर्दोष की हत्या सारी मानवता की हत्या है।

मिस्री सलमान रुश्दी
फ़तवे और हत्या के डर से इस्लामी जगत में ऐसे बुद्धिजीवी चिराग़ लेकर खोजने पर ही मिलेंगे, जो काले को काला और सफ़ेद को सफ़ेद कहने का साहस रखते हैं। मिस्र में काहिरा के हामेद अब्देल-समद एक ऐसे ही बुद्धिजीवी हैं, पर अपनी जान बचाने के लिए उन्हें भी अपना देश छोड़कर जर्मनी में शरण लेनी और पुलिस सुरक्षा स्वीकार करनी पड़ी है। स्विट्ज़रलैंड के अख़बार 'नोए त्सुइरिशर त्साइटुंग' में 14 अगस्त को उनका एक बहुत ही पठनीय लंबा लेख प्रकाशित हु्आ।

हामेद अब्देल-समद ने सलमान रुश्दी की लिखी पुस्तकें पढ़ी हैं। अपने लेख में कहते हैं कि उनसे मिलना लेकिन तीन साल पूर्व ही हुआ है। अवसर था, बर्लिन में बर्लिन दीवार गिरने की 30वीं जयंती का समारोह। तो आप ही हैं मिस्री सलमान रुश्दी, जिनकी बड़ी चर्चा है, रुश्दी ने हामेद अब्देल-समद से मिलते ही तपाक से कहा।

हर इस्लामी देश में एक सलमान रुश्दी
हामेद अब्देल-समद लिखते हैं, मैंने उनसे कहा, 30 साल पहले इस दुनिया में केवल एक ही सलमान रुश्दी हुआ करते थे। पश्चिमी देशों की बात यदि छोड़ दें, तो आज हर इस्लामी देश में कम से कम एक सलमान रुश्दी ज़रूर है। इससे आपको खुशी होनी चाहिए।

अब्देल-समद के अनुसार, रुश्दी मज़ाकिया मूड में थे, लेकिन अपने आप को किसी नायक या आदर्श की भूमिका में देखे जाने के सरासर विरुद्ध थे। वे नहीं चाहते थे कि उन्हें फ़तवा-पीड़ित या फ़तवा-बहादुर समझा जाए। वे अपने आप को केवल एक उपन्यासकार के तौर पर देखते हैं।

अब्देल-समद ने उनसे कहा, आपका लिखा एक भी शब्द पढ़े बिना 30 साल पहले मैं आपसे घृणा करता था। आज मैं आप का घोर प्रशंसक हूं, फ़तवे के कारण नहीं, आपके महान उपन्यासों के कारण! अब्देल-समद बताते हैं कि वे उस समय मिस्र के एक गांव में हाईस्कूल के छात्र थे, जब ईरान के अयातुल्ला खौमैनी ने रुश्दी की हत्या का फ़तवा जारी किया था। अरबी भाषा का उनका अध्यापक कहा करता था कि रुश्दी, पश्चिमी देशों के पैसों पर पलने वाला ऐसा भारतीय 'कुत्ता' है, जो पैगंबर मोहम्मद का अपमान करता है।

रुश्दी का निंदक मिस्री कवि
यह अध्यापक अपने छात्रों को मिस्र के एक प्रसिद्ध कवि फ़ारुक गुइदा की एक कविता सुनाया करता था। उसमें रुश्दी को एक ऐसा आदमी वर्णित किया गया है, जिसके सिर पर शैतान सवार है। एक दिन एक ऐसा मुस्लिम घुड़सवार आएगा, जो उसका शैतानी सिर धड़ से अलग कर देगा। हामेद अब्देल-समद ने लिखा है कि देश के एक ऐसे जाने-माने कवि की इस कविता ने स्कूली जीवन के उनके कोमल धार्मिक मन को सलमान रुश्दी के प्रति कठोर घृणा से भर दिया।

कुछ समय बाद, अब्देल-समद जब काहिरा में अंग्रेज़ी साहित्य की पढ़ाई कर रहे थे, तो वहां रुश्दी की लिखी पुस्तक 'शैतानी आयतें' की तस्करी द्वारा चोरी-छिपे से आई एक प्रति उन के हाथ लगी। उसमें उन्हें ऐसा कुछ भी नहीं मिला, जिससे रुश्दी के प्रति उनकी 'घृणा का औचित्य सिद्ध होता', बल्कि वह उन्हें लैटिन अमेरिकी साहित्यकार गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ की शैली जैसा, मंत्रमुग्ध कर देने वाला, एक यथार्थवादी उपन्यास' लगा। हां, किसी हद तक ब्रिटिश हास्यरस और भारतीय कथा वर्णन-कला का पुट भी उसमे मिला।

अब्देल-समद को भी जान लेने की धमकियां
अब्देल-समद बर्लिन में रहते हैं। उन्हें शिकायत है कि मिस्र के फ़ारुक गुइदा को आज भी एक उत्कृष्ट अरबी कवि माना जाता है, हालांकि उनका अधिकांश चिंतन घोर इस्लामवादी है। स्वयं को अब्देल-समद एक ऐसे लेखक के रूप में देखते हैं, जो इस्लाम को रुश्दी की अपेक्षा कहीं अधिक आड़े हाथों लेता है और हत्या की अनवरत धमकियों के बीच जी रहा है। उन्हें पुलिस-सुरक्षा मिली हुई है और एक ख़ास गोली-रोधक (बुलेट-प्रूफ़) जैकेट पहननी पड़ती है। उनके शब्दों में, यह सब केवल इसलिए कि मैंने एक पुस्तक लिखी है, जिसका शीर्षक है 'इस्लामी फ़ासीवाद' (इस्लैमिक फैसिज्म)।

फ्रांस में पेरिस की कार्टून पत्रिका 'चार्ली एब्दो' के कार्यालय में हुई हत्याओं, फ्रांसीसी स्कूल शिक्षक सामुएल पाती की हत्या और अब सलमान रुश्दी की हत्या के प्रयास को देखकर हामिद अब्देल-समद के मन में भी ये विचार बार-बार उठने लगे हैं कि अगला निशाना कहीं वे ही तो नहीं बनेंगे? उन्हें तो दुनिया में उतने सारे लोग जानते भी नहीं हैं, जितने रुश्दी को जानते हैं।

अब्देल-समद के चुभते प्रश्न
'नोए त्सुइरिशर त्साइटुंग' में प्रकाशित अपने लेख में अब्देल-समद ने आज के धर्माधिकारियों, राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के सामने कई चुभते हुए प्रश्न भी रखे हैं। उन्हीं के शब्दों में, यह स्थिति क्या इसलिए पैदा हुई है कि इस्लाम के हृदय में हिंसा की जो धार्मिकता और विचारधारा सदियों से पनपती रही है, वह सारे बंधन तोड़कर फूट पड़ी है और अब रोकी नहीं जा सकती? या बात पश्चिम की इस राजनीति में निहित है कि वह आतंकवाद से लगते डर और मुस्लिम देशों के साथ आर्थिक संबंधों के बिगाड़ की चिंता को उनके प्रति सम्मान और सहिष्णुता की आड़ में छिपाना चाहता है?

इसी प्रकार, पश्चिम में ईसा, मूसा और बुद्ध की तो आलोचना हो सकती है, पर मोहम्मद की क्यों नहीं? एक सलाफ़ी तो पश्चिमी देशों में निर्बाध रह और उपदेश दे सकता है, लेकिन इस्लाम के हर आलोचक की जान क्यों जोखिम में पड़ जाती है? पश्चिम के बहुसांस्कृतिक स्वर्ग में इस्लाम के आलोचक शांति भंग करने वाले क्यों माने जाते हैं, जबकि वे पश्चिमी मूल्यों के ही पैरोकार हैं?

50 वर्षीय हामेद अब्देल-समद के पिता मिस्र में काहिरा की एक मस्जिद के इमाम हैं। अपने छात्र जीवन में अब्देल-समद उग्र इस्लामवादी संगठन 'मुस्लिम ब्रदरहुड' के सदस्य भी रह चुके हैं। 1995 से वे जर्मनी में हैं। 2013 में काहिरा में उनके विरुद्ध भी मौत का एक फ़तवा जारी हुआ। उन्होंने अब तक 8 पुस्तकें लिखी हैं। इस्लामी फ़ासीवाद' नाम की उनकी पुस्तक ने उन्हें इस्लामी जगत की आंख का कांटा बना दिया।

इस्लामी जगत के बुद्धिजीवियों की समझ
रुश्दी की हत्या के प्रयास के बाद अब्देल-समद ने सोशल मीडिया पर अरबी-इस्लामी जगत के विशिष्ट बुद्धिजीवियों की टिप्‍पणियां जब खंगालीं, तो यह देखकर चकित रह गए कि रुश्दी के प्रति सहानुभूति रखने और उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना करने वालों की संख्या बहुत ही निराशाजनक थी। सबसे अधिक भरमार उन लोगों की थी, जिन्हें रुश्दी के जीने-मरने की नहीं, इस बात की चिंता सता रही थी कि पश्चिमी देशों में इस्लाम की छवि ख़राब होगी, इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम-भीति) की भावना और अधिक प्रबल बनेगी।

अब्देल-समद इसे इस बात की पुष्टि मानते हैं कि इस्लामी जगत के बुद्धिजीवी भी बुद्धि से पैदल ही हैं। उन्हें इस्लाम की छवि ख़राब होने की चिंता तो है, पर उसके कारणों की नहीं। वे बस यही राग अलाप रहे हैं कि सलमान रुश्दी ने दुनिया के डेढ़ अरब मुसलमानों को अपमानित किया है। दोषी केवल रुश्दी हैं।

समझ का निचोड़
अब्देल-समद संक्षेप में दो नतीजों पर पहुंचे हैं, पहला यह कि जो लोग स्वयं को सेक्यूलर (पंथ निरपेक्ष) बताते हैं, वे भी इस्लामी रूढ़ियों के बीच ही पले-बढ़े हैं। इस्लामवाद ही उनके चिंतन-मनन का मूलाधार है। वे समस्या को हमेशा इस्लाम के बाहर ढूंढते हैं, इस्लाम के भीतर नहीं। बाहर उन्हें हर जगह इस्लाम के विरुद्ध कोई न कोई षड्यंत्र ही नज़र आता है।

दूसरा यह कि वे अपने और अपने देशों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करते हैं, पर दूसरों को यही स्वतंत्रता नहीं देना चाहते, ताकि दूसरे भी इस्लाम-धर्मियों और उनके देशों के बारे में स्वतंत्र रूप से अपने विचार अभिव्यक्त कर सकें।

हामेद अब्देल-समद की बात मानें तो यह स्थिति बदलेगी नहीं। इसलिए 'चार्ली एब्दो' के पत्रकारों का मरना, सामुएल पाती जैसे शिक्षकों का गला कटना और सलमान रुश्दी जैसे साहित्यकारों का खून बहना भविष्य में भी होता रहेगा। पश्चिमी देशों की बड़बोली सरकारें भी बस बोलती ही रहेंगी, करेंगी कुछ नहीं। 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

आखिर क्‍या है रायगढ़ में मिली रहस्‍यमयी बोट की कहानी...