भविष्य की कहानी... क्या मंगल और पृथ्वी के निवासियों के बीच बन पाएंगे यौन संबंध?
क्या हम अन्य ग्रहों पर रहने लायक बने हैं?
- अमेरिकी उद्योगपति दूसरे ग्रहों पर बसाना चाहते हैं बस्तियां
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इसके लिए अभी और अनुभव की जरूरत पड़ेगी
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अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने से एनीमिया की समस्या पैदा हो सकती है
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अमेरिका मंगल ग्रह पर पहुंचने की दौड़ में सबसे आगे
50 वर्ष बाद अमेरिका ने चंद्रमा पर दुबारा जाने के लिए कमर कस ली है। 2025 में वह अपने दो अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर पहुंचाना और वहां अपने भावी अड्डे की नींव डालना चाहता है।
1969 से 1972 के बीच अमेरिका के 12 अंतरिक्षयात्री चंद्रमा पर अपने पैर रख चुके हैं। तब से 50 वर्ष बीत गए हैं और कोई दूसरा पैर वहां नहीं पड़ा। दूसरी ओर, हमारी धरती पर जलवायु परिवर्तन और तापमान का बढ़ना असह्य होता जा रहा है। कहा जाने लगा है कि 21वीं सदी के इस तीसरे दशक में हमें एक बार फिर चंद्रमा पर जाना और उसे मंगल ग्रह या उससे भी दूर के अन्य ग्रहों तक पहुंचने का ट्रांज़िट स्टेशन बनाना चाहिए।
सरकारें ही नहीं, अरबों-खरबों डॉलर के मालिक ब़ड़े-बड़े धनकुबेर भी दूर-दराज़ के ग्रहों के उपनिवेशीकरण की योजनाएं बना रहे हैं। वे हमारे सौरमंडल के ग्रहों-उपग्रहों को आकाशगंगा के अन्य सौरमंडलों तक पहुंचने की सीढ़ी की तरह देखते हैं।
कई वैज्ञानिक भी मानते हैं कि धरतीवासी मनुष्य भविष्य में अंतरातारकीय (Interstellar) प्रजाति भी बन सकता है। 'आठ चरणों में अंतरिक्ष विजय' नाम की पुस्तक के लेखक, अमेरिका के भविष्यशोधी मार्शल सैवेज कहते हैं, 'अंतरिक्ष में रहने-बसने की कामना हमारी सहजवृत्ति है। जेफ़ बेज़ोस और एलन मस्क जैसे लोग यही तो कर रहे हैं... हम यदि उत्तरजीवी रहे, तो यही होगा। ऐसा नहीं हुआ, तो हम जीवित बचेंगे भी नहीं।'
जलवायु परिवर्तन का डर : मार्शल सैवेज को डर है कि पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाएगाः 'मैं नहीं जानता कि कब ऐसा होगा। लेकिन, ऐसा होने से पहले ही हमें यहां से चले जाना होगा,' उनका कहना है। देखने में भी यही आ रहा है कि मानवजाति को उत्तरजीवी बनाने के बहाने से अमेरिका में अंतरिक्ष के उपनिवेशीकरण की होड़-सी लग गई है।
'ब्ल्यू ऑरिजिन' रॉकेटों के निर्माता जेफ़ बेज़ोस ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा, 'हम चाहते हैं कि लाखों-लाख लोग अंतरिक्ष में रहें और काम करें। वहां असीमित संसाधन हैं। धरती तो एक बहुत सीमित जगह है। यदि हम अपनी सभ्यता का और अधिक विकास चाहते हैं, तो हमें अंतरिक्ष में जाना ही पड़ेगा।' बेज़ोस के प्रतिस्पर्धी मस्क का मत हैः 'विविध ग्रहों पर रहने के सपने को साकार करने के लिए हमें नए आविष्कार करते रहना है। हमारा जीवन, जैसा उसे हम आज जानते हैं, भविष्य में भी संभव होना चाहिए। '
अंतरिक्षयान और रॉकेट बनाने वाले ये दोनों अमेरिकी उद्योगपति अन्य ग्रहों पर लाखों लोगों की बस्तियां बसाना चाहते हैं। पर क्या बिल्कुल नए ग्रहों पर जाना-रहना इतना आसान है? अंतरिक्ष में लंबे प्रवास के बारे में वैज्ञानिकों के पास जो भी अनुभव हैं, वे पृथ्वी से केवल 400 किलोमीटीर दूर उसकी परिक्रमा कर रहे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन ISS पर रहने के पिछले केवल दो दशकों के अनुभव हैं।
अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से मिले अनुभव : दूर अंतरिक्ष में कोई नई दुनिया बसाने की दृष्टि से ये अनुभव अभी न तो काफ़ी हैं और न बहुत उत्साहवर्धक। लंबी अंतरिक्ष यात्राओं और भारहीनता ने दिखाया है कि समय के साथ हड्डियों और मांसपेशियों का क्षरण होने से कमज़ोरी आने लगती है। मस्तिष्क में कई अनचाहे बदलाव होते हैं। रोगप्रतिरक्षण प्रणाली (इम्यून सिस्टम) के 'टी-सेलों' सहित कई दूसरी कोशिकाओं की कार्यकुशलता घटती जाती है। कमर से ऊपरी हिस्से में रक्त सहित सभी तरल पदार्थों का जमाव और निचले हिस्से में अभाव होने लगता है।
चेहरा फूल जाता है, मानो सूज गया है। रक्त सहित अन्य तरल पदार्थ पैरों तक ठीक से पहुंच नहीं पाते। पैरों की मांसपेशियों का उपयोग कम हो जाने से टांगें पतली व कमज़ोर हो जाती हैं। 14 अंतरिक्ष यात्रियों पर एक अध्ययन ने दिखाया कि उनके खून में लाल रक्तकणों (एरिथ्रोसाइट) के प्रति सेकंड घटने की मात्रा, पृथ्वी पर की अपेक्षा 54 प्रतिशत अधिक थी।
इससे सांस की हवा से ऑक्सीजन सोखने वाला हिमोग्लोबीन शरीर के एन्ज़ाइमों द्वारा विघटित होने लगता है। लाल रक्तकणों की कमी से सांस फूलने लगती है, थकान महसूस होती है और कार्यक्षमता घट जाती है। डर यह है कि अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने से एनीमिया (रक्तक्षीणता) की समस्या पैदा हो सकती है।
देखा यह भी गया है कि मस्तिष्क के भीतर मुख्यतः तंत्रिका तंतुओं (डेन्ड्राइट) के बने तथाकथित व्हाइट मैटर और तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरॉन) के बने उसे घेरने वाले ग्रे मैटर की मात्रा, अंतरिक्ष में लंबे प्रवास से घट जाती है। मस्तिष्क की भीतरी बनावट में होने वाले सभी परिवर्तन अभी ज्ञात नहीं हैं, पर अंतरिक्ष यात्रियों की आंखें पहले जितना साफ़ नहीं देख पातीं। डर यह है कि अंतरिक्षयात्रियों की बौद्धिक क्षमता भी घट सकती है।
मंगल रहने के लिए कितना उपयुक्त है : इस समय मंगल ग्रह पर जाने की तैयारियां हो रही हैं। सूर्य के फेरे लगाते हुए पृथ्वी और मंगल, हर 26 महीने बाद, जब एक-दूसरे के सबसे निकट होते हैं, तब भी 5 करोड़ 60 लाख किलोमीटर दूर होते हैं। वहां जाने और वहां से लौटने के लिए दोनों ग्रहों के बीच की निकटतम दूरी वाले दिन की हर बार नए सिरे से गणना करनी पड़ती है। अंतरिक्ष यान की गति, ईंधन की मात्रा और उड़ानपथ की लंबाई के अनुसार, निकटतम दूरी वाले दिन से कम से कम 150 से 300 दिन पहले यान को रवाना कर दिया जाना चाहिये, वर्ना अगले 26 महीनों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। मंगल से वापसी के समय भी यही समस्या रहेगी।
अमेरिका मंगल ग्रह पर पहुंचने की दौड़ में सबसे आगे है। नासा के लिए रोवर आदि बनाने वाली अमेरिका की 'जेट प्रोपल्शन लैबोरैटरी' (JPL) के सामग्री-शोधक, डग होफ़मान का एक टीवी इंटरव्यू में कहना है कि मंगल ग्रह हम मनुष्यों के रहने लायक नही हैः 'पहली बात, वहां बहुत ठंड है। वायुमंडल भी नहीं के बराबर है। परिस्थितियां बहुत प्रतिकूल होने से कोई जीव-जंतु भी नहीं हैं। खूब आंधियां चलती हैं। धूल उड़ती है। धूल ने तो हमारा एक रोवर ही बेकार कर दिया। नहीं, मंगल रहने लायक नहीं है।'
मंगल तक की उड़ान भी जोखिम भरी है। अंतरिक्षयात्री, सौर-विकिरण से बचाने वाले पृथ्वी पर के वायुमंडल और चुंबकीय क्षेत्र से बने विकिरणरोधी दोहरे रक्षाकवच से वंचित रहेंगे। नासा के डग होफ़मान का कहना है कि अकस्मात आने वाली सौर-आंधियां वहां अंतरिक्षयान की दूरसंचार प्रणाली को अस्त-व्यस्त ही नहीं, नष्ट भी कर सकती हैं। अंतरिक्ष यात्रियों की जान जोखिम में पड़ सकती है। बहुत ही ऊर्जावान ब्रह्मांडीय कणों की ख़तरनाक बंबारी भी उन्हें झेलनी पड़ सकती है।
नई पीढ़ियों में शारीरिक उत्परिवर्तन : 'ब्रह्मांडीय विकिरण को तो अंतरिक्षयान की खिड़कियों के कांच भी रोक नहीं पाएंगे,' डग होफ़मान आगाह करते हैं। 'उन्हें रोकने के लिए पानी या तरल हाइड्रोजन का 10 मीटर मोटा कोई आवरण होना चाहिए। मेरी कल्पना के अनुसार, अंतरिक्ष यान को मंगल पर किसी बड़े-से अक्वैरियम (जलजीवशाला) के बीच में रखा जाना चाहिये। ये बातें फ़िल्मों में नहीं दिखाई जातीं, इसलिए लोग नहीं जानते,' डग होफ़मान का कहना है।
अमेरिका की राइस यूनिवर्सिटी में विकासवादी जीवविज्ञान के प्रोफ़ेसर स्कॉट सोलोमन ने अपने एक व्याख्यान में मंगल ग्रह पर जन्मने वाली भावी पीढ़ियों की चर्चा की। उनका कहना था कि वहां बसने वालों की दो-तीन पीढ़ियों बाद ही, नई पीढ़यों में कई प्रकार के उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) शुरू हो जाएंगे।
नई पीढ़ियों की हड्डियां तो मज़बूत होंगी, पर उनमें रोगप्रतिरोध क्षमता नहीं रह जाएगी। नज़दीकी चीज़ें देखने के लिए चश्मा लगाना पड़ेगा। गर्भधारण और प्रसव ख़तरनाक़ बन जाएंगे। रेडियोधर्मी विकिरण पृथ्वी पर की अपेक्षा 5000 गुना अधिक होने से कैंसर होने के मामले बढ़ जाएंगे। वहां पैदा होने वाले बच्चों में 60 प्रकार के ऐसे उत्परिवर्तन देखने में आ सकते हैं, जो पृथ्वी पर के मनुष्यों में नहीं होते। इस कारण मंगल के और पृथ्वी पर के निवासियों के बीच यौनसंबंध को वर्जित करना पड़ेगा।
मंगल है मरुस्थलों जैसा : मंगल ग्रह पर जानलेवा सौर आंधियां भी आया करती हैं। नासा के लिए काम कर चुकीं अमेरिकी खगोलविद लूसियन वाल्कोविच कहती हैं, 'पृथ्वी पर का सबसे बुरा दिन भी मंगल पर के सबसे अच्छे दिन से 10 लाख गुना बेहतर है। मंगल हमारी पृथ्वी के मरुस्थलों जैसा है, हालांकि हमारे मरुस्थल भी जीवन से भरपूर हैं, न कि मंगल की तरह निर्जीव। वहां का वायुमंडल बहुत ही विरल और अत्यंत शुष्क है; लगभग पूर्णतः कार्बन डाइऑक्साइड का बना है, सांस लेने के लिए ऑक्सीजन नहीं है।'
वाल्कोविच नहीं मानतीं कि मंगल ग्रह को पृथ्वी जैसा रहने लायक बनाया जा सकता है। कहती हैं, 'ऐसा केवल वैज्ञानिक गल्पकथाओं में ही संभव है। उसके वायुमंडल को रासायनिक विधियों से यदि बदला भी जा सके, तब भी वह अत्यंत शुष्क ही रहेगा। लुप्त हो चुके वहां के माहासागर वापस नहीं आएंगे। पानी तुरंत भाप बनकर उड़ जाया करेगा। इसके बावजूद जेफ बेज़ोस और इलोन मस्क जैसे धनकुबेर अंतरिक्ष का निजीकरण करने पर यदि उतारू हैं, तो इसलिए कि वे अन्य ग्रहों पर के प्राकृतिक संसाधनों को हथियाना चाहते हैं, न कि वहां वैज्ञानिक खोजें करने में दिलचस्पी रखते हैं।'
लूसियन वाल्कोविच के अनुसार, जो वैज्ञानिक गहरे अंतरिक्ष में झांक रहे हैं, वे पृथ्वी से मिलते-जुलते ऐसे बाह्यग्रह ढूंढ रहे हैं, जहां तरल पानी वाला कोई महासागर हो। जीने-रहने लायक तापमान हो। वायुमंडल में ऑक्सीजन या कई गैसों का संतुलित मिश्रण हो। जीवन की उत्पत्ति और निरंतरता के लिए इन चीज़ों का होना अनिवार्य है।
अब तक 4981 बाह्यग्रह मिले हैं : ठीक ऐसे ही ग्रहों का पता लगाने के लिए नासा ने 2009 में, 'केप्लर' नाम का एक दूरदर्शी (टेलिस्केप) अंतरिक्ष में भेजा। लूसियन वाल्कोविच भी इस मिशन की एक सदस्य थीं। 'केप्लर' ने पाया कि तारों के पास अपने ग्रह होना ब्रह्मांड में सबसे सामान्य बात है। अप्रैल 2022 तक 3671 तारों की परिक्रमा कर रहे 4981 बाह्यग्रह (एग्ज़ोप्लैनेट) मिल चुके थे। उनमें से कितने पृथ्वी जैसे हैं या जीवन की उत्पत्ति के लायक हैं, यह अभी अध्ययन का विषय है।
ऐसे ही कुछ ग्रह हमारे सौरमंडल के एक सबसे नज़दीकी तारे 'अल्फ़ा सेन्टाउरी' की परिक्रमा करते देखे गए। उनमें से एक, 'प्रॉक्सिमा सेन्टाउरी-बी' हमसे 4.2 प्रकाशवर्ष दूर है। ब्रह्मांडीय दूरियों की दृष्टि से वह हमारे बहुत पास होते हुए भी — और यदि रहने-बसने लायक हो तब भी — इतना दूर है कि वहां पहुंचने में 5 हज़ार वर्ष लग जाएंगे! यानी, अपने सौरमंडल से बाहर के किसी ग्रह तक पहुंचने के लिए हमें एक नहीं, दर्जनों पीढ़ियों के पूरे जीवनकाल जितना समय लगेगा।
इससे ऐसे अंतरिक्ष यानों की अवधारणा उपजी, जिन में लक्ष्य पर पहुंचने तक, पहली पीढ़ी के अंतरिक्ष यात्रियों की ही भावी पीढ़ियां भी साथ-साथ रहें। लेकिन तब भावी पीढ़ियों को बार-बार आपस में ही यौन-संबंध बनाने पड़ेंगे। यह अपने ही सगे लोगों के साथ व्यभिचार के समान होगा और अनेक शारीरिक-मानसिक बीमारियों का कारण भी बनेगा। कोई दूसरा उपाय, उड़ान की गति बढ़ा कर समय में क्रांतिकारी कमी लाने वाला कोई आविष्कार ही हो सकता है, हालाकि प्रकाश की गति को मात तो कोई आविष्कार भी नहीं दे सकता। पढ़े
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