लंदन। यूक्रेन के चार प्रांत को अपने देश में मिलाने के रूस के कदम की अंतरराष्ट्रीय समुदाय के ज्यादातर सदस्यों ने निंदा की है और इसे अवैध बताया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन पर यूक्रेन के क्षेत्र पर फर्जी दावा करने का आरोप लगाते हुए कहा कि यह कदम संयुक्त राष्ट्र चार्टर को कुचल देगा और हर जगह शांतिपूर्ण राष्ट्रों की अवधारणा की उपेक्षा करता है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में ब्रिटेन की मानवाधिकार राजदूत रिता फ्रेंच ने रूस के कदम की निंदा की और इसे संप्रभु यूक्रेन के क्षेत्र को बिना वजह और अवैध तरीके से हड़पना करार दिया।
रूस ने बताया झल्लाहट : रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने उनके देश की ओर से उठाए गए कदम की पश्चिमी देशों द्वारा निंदा किए जाने को झल्लाहट बताया है और कहा है कि कोई भी संप्रभु, स्वाभिमानी राष्ट्र जो अपने लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को महसूस करता है, यही करता।
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत लिंडा थॉमस-ग्रीनफिल्ड ने कहा कि अगर यूक्रेन के क्षेत्र को अपने देश में मिलाने के रूस के कदम को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह भानुमति के पिटारे को खोलने जैसा होगा जिसे हम बंद नहीं कर सकते हैं। क्षेत्रों पर दावों को समझने के लिए, ऐतिहासिक रिकॉर्ड को देखा जाना आवश्यक है।
रूस की ओर से इन क्षेत्रों को अपने में मिलाना बहुत असामान्य बात है, खासकर 1945 के बाद से। करीब-करीब ऐसा कभी नहीं हुआ है कि कोई देश फौज के दम पर विजेता हुआ हो और फिर उसने बड़ी आबादी वाले इलाके को अपने देश में मिला लिया हो जैसा यूक्रेन में देखने को मिला है। हालांकि कुछ बार ऐसा हुआ है, मगर ऐसे मामलों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय करीब करीब हर बार एक साथ आया है और उसने ऐसी स्थिति को कभी मान्यता नहीं दी।
इंडोनेशिया को झेलना पड़ी थी निंदा : साल 1974 में जब इंडोनेशिया ने ईस्ट तिमोर पर हमला किया और उस पर कब्जा कर लिया, तो इसकी निंदा की गई और वर्षों तक इसे मान्यता नहीं दी गई। आखिरकार 2002 में संयुक्त राष्ट्र प्रायोजित जनमत संग्रह के जरिए नया स्वतंत्र राष्ट्र तिमोर-लेस्त अस्तित्व में आया।
इनको नहीं मिली थी मान्यता : वर्ष 1967 में इसराइल ने जिन क्षेत्रों को कब्जाया था और 1974 में तुर्कीये ने साइप्रस के जिन उत्तरी हिस्सों पर कब्जा किया था, उन्हें दशकों से मान्यता नहीं दी गई है। रूस ने ही 2014 में क्रीमिया को अपने देशा में मिला लिया था जो ज़मीन कब्ज़ाने की मिसाल है जिसे मान्यता नहीं दी गई है।
हालांकि मान्यता न देने से कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ता है, खासकर रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों और यूक्रेन को हथियार और उपकरण उपलब्ध कराने की तुलना में। मगर मान्यता न देना हर किसी को यह आश्वस्त करता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसे विश्व को महत्व देता है जहां युद्ध न हो।
इटली का इथोपिया पर हमला : साल 1935 में, बेनिटो मुसोलिनी के शासन के तहत इटली ने इथोपिया पर हमला कर दिया था। तब लीग ऑफ नेशंस और अमेरिका ने हमले की निंदा की थी और इथोपिया के लिए अपने समर्थन का ऐलान किया था। इटली पर समन्वित आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए थे। मगर ब्रिटेन और फ्रांस के विदेश मंत्रियों ने युद्ध खत्म करने के लिए मुसोलिनी के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया था।
इसके तहत इथोपिया ने अपना अधिकांश क्षेत्र इटली को सौंप दिया और मुसोलिनी को देश के बाकी हिस्सों पर आर्थिक नियंत्रण सौंप दिया। जब यह समझौता सार्वजनिक हुआ तो दुनिया भर के लोगों ने इसकी सराहना नहीं की बल्कि उन्होंने माना कि हमलावर देश इटली को पुरस्कृत किया जा रहा है, क्योंकि उसने युद्ध भूमि में जीत हासिल की है जो आक्रमण का विरोध करने के सिद्धांत के खिलाफ है।
इटली के साम्राज्य को नहीं मिली मान्यता : इसका विरोध इतना प्रचंड था कि ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों को अपनी योजना त्यागनी पड़ी और दोनों देशों के विदेश मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। इसके एक महीने बाद अमेरिका ने इटली को हथियारों की बिक्री पर लगी रोक को हटा दिया और लीग ऑफ नेशंस ने प्रतिबंध खत्म करने के लिए मतदान किया। हालांकि, अमेरिका, सोवियत संघ और कुछ अन्य देशों ने पूर्वी अफ्रीका में इटली के साम्राज्य को मान्यता देने से इनकार कर दिया।
इन देशों ने छोड़ दिया था लीग ऑफ नेशंस : इसके बाद होंडुरास, निकारागुआ, चिली, वेनेजुएला, स्पेन और हंगरी ने लीग ऑफ नेशंस को छोड़ दिया। डेनमार्क, स्वीडन, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और बेल्जियम ने कहा कि वे अब लीग की सामूहिक सुरक्षा में भाग नहीं लेंगे। इसका अर्थ यह था कि अगर हिटलर के शासन वाले जर्मनी, जैसे देशों की मांग को मानेंगे तो आप अकेले रह जाएंगे । इसलिए अंतरराष्ट्रीय समाज के एक जिम्मेदार सदस्य बनिए।
इन ऐतिहासिक घटनाओं से सबक मिलता है इस सिद्धांत को कायम रखना कि विजय देश अपने जीते हुए इलाके छोड़ना नहीं चाहता है। मान्यता नहीं देना इसलिए जरूरी है कि विजेता को जंग में जीत के बाद इलाकों पर अधिकार नहीं दिया जा सकता है।
अगर रूस को हथियारों के बल पर जीते हुए क्षेत्र अपने पास रखने दिए जाते हैं तो छोटे देशों को लगेगा कि उन्हें खुद को हथियारों से लैस करने की जरूरत है। हम यह फिनलैंड और स्वीडन के मामले में देख चुके हैं, जिन्होंने नाटो में शामिल होने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए। युद्ध भूमि में जीत यह संदेश देगी कि ताकतवर ही सही है। यह शांतिपूर्ण और सुरक्षित भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala (द कन्वरसेशन)