Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

आखिर क्‍यों यूक्रेन के खिलाफ नर्म पड़ रही है रूस की हेकड़ी?

हमें फॉलो करें आखिर क्‍यों यूक्रेन के खिलाफ नर्म पड़ रही है रूस की हेकड़ी?
webdunia

राम यादव

न्यूयॉर्क में चल रहे संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक अधिवेशन के दौरान रूस के विदेशमंत्री ने यूक्रेन के साथ युद्ध के बारे में एक ऐसी बात कही है, जो रूस की अब तक की लीक से बहुत हट कर है।

रूस की सरकारी समाचार एजेंसी 'तास' के अनुसार, विदेशमंत्री सेर्गेई लावरोव ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन के दौरान 23 सितंबर को एक पत्रकार सम्मेलन में कहा कि यूक्रेन यदि नाटो से दूर रहे, तो वहां युद्ध का अंत हो सकता है। इससे तो यही आभास मिलता है कि रूस, यूक्रेन में युद्ध के अपने उद्देश्यों को पूरा होता नहीं देख कर अब अपनी अड़ियल नीति संशोधित कर रहा है।

रूस चाहता है कि अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों के सैन्य संगठन नाटो से यूक्रेन यदि दूर रहे, उसका सदस्य न बने, तो युद्ध की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इसे रूस के बदलते स्वर के तौर पर इसलिए देखा जा रहा है, क्योंकि युद्ध के आरंभ में रूस कहा करता था कि वह अपने इस पड़ोसी देश को ‘तटस्थ’ और विसैन्यीकृत देखना चाहता है।

यूक्रेन गुटनिरपेक्ष रहेः रूस की सरकारी समाचार एजेंसी 'तास' ने विदेशमंत्री लावरोव के शब्दों को उद्धृत करते हुए लिखा, ‘हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण बिंदुओं में से एक यह था कि यूक्रेन एक गुटनिरपेक्ष देश रहे और किसी भी सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं हो... इन शर्तों पर, हम इस देश की क्षेत्रीय अखंडता का समर्थन करते हैं’

स्पष्ट है कि रूस यही चाहता है कि यूक्रेन किसी भी समय और किसी भी स्थिति में नाटो का सदस्य नहीं बने। नाटो का मुखिया अमेरिका भी यदि चाहता है कि यूक्रेन में युद्ध का शीघ्र अंत हो, तो वह भी यूक्रेन पर डोरे डालने और उसे नाटों में खींचने के प्रयासों से दूर रहे। अमेरिका और नाटो के सदस्य उसके साथी देशों का तर्क है कि रूस की बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यूक्रेन को यदि अकेला छोड़ दिया गया, तो रूस उसे देर-सवेर हड़प जायेगा। फ़रवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने इसे सिद्ध कर दिया है।

क्षेत्रीय अखंडता की परिभाषाः अमेरिका और नाटो के सदस्य उसके साथी देश कहते हैं कि पहला प्रश्न तो यही है कि क्रेमलिन यूक्रेन की ‘क्षेत्रीय अखंडता’ को परिभाषित कैसे करता है? हमने तो यही देखा है कि पिछले डेढ़ साल में, रूसी सेना दिखावटी जनमतसंग्रहों और बनावटी चुनावों की मदद से यूक्रेनी दोनबास के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण और दोन्येत्सक तथा लुहान्स्क वाले क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने में सफल हुई है। इसी तरह के हथकंडे अपना कर रूस ने ज़ापोरिशश्या और खेरसॉन को भी अवैध रूप से निगल लिया है।

'तास' के अनुसार, विदेशमंत्री लावरोव ने न्यूयॉर्क में हुए पत्रकार सम्मेलन में स्पष्ट किया कि 1991 में जब भूतपूर्व सोवियत संघ का विघटन हुआ और सोवियत संघ के सदस्य गणराज्य पूर्णतः स्वतंत्र देश बने, तो ‘उस स्वतंत्रता घोषणा के अधीन यूक्रेन की संप्रुभता को भी मान्यता प्रदान की गई थी’

उस समय यूक्रेन ने भी विधिवत घोषित किया था कि वह एक ऐसा स्थायी तटस्थ देश बना रहेगा, जो किसी भी सैन्य-गठबंधन में शामिल नहीं होगा। बाद के वर्षों में यूक्रेन ने रूस द्वारा मिली अपनी सुरक्षा की गारंटियों के बदले में अपने सारे परमाणु अस्त्र भी रूस को सौंप दिए।

दाल का पकना मुश्किलः प्रश्न उठता है कि यदि यूक्रेन के नाटो में शामिल नहीं होने की स्थिति में रूस वास्तव में 1991 की सीमाओं का सम्मान करता है, तो इसका मतलब यही होगा कि पूतिन की सेना को यूक्रेन में अर्जित सभी क्षेत्रों को छोड़ना होगा। क्रीमिया पर भी चर्चा होगी, क्योंकि उस समय काले सागर वाला यह प्रायद्वीप भी यूक्रेन का हिस्सा था। यह देखते हुए कि क्रीमिया रूस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां की अधिकांश जनता रूसी है और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने उसे फिर से पाने की क़सम खा रखी है, इस दाल का पकना बहुत मुश्किल होगा।

पश्चिमी देशों के राजनीतिक पंडित रूसी विदेशमंत्री की न्यूयॉर्क में पत्रकारों से कही बातों को विशेष महत्व नहीं दे रहे हैं। अपने देशों के राजनेताओं की तरह पश्चिमी विशेषज्ञ भी रूस के प्रति पूर्वाग्रही होते हैं। वे रूस को वैसे भी कोई ख़ास महत्व नहीं देते। उसे पसंद नहीं करते। उनके बीच आम राय यही लगती है कि लावरोव का यह बयान अंतिम नहीं है। उनकी विश्वसनीयता वैसे भी संदिग्ध ही मानी जाती है। उनके बयान बदलते रहते हैं। कहा जा रहा हो कि आगे ऐसे बयान या स्पष्टीकरण भी आ सकते हैं, जो यूक्रेन के प्रति इतने उदार न हों।

आधी मिलै न पूरी पाएः कुछ पश्चिमी विशेषज्ञ यह अटकल भी लगाने लगे हैं कि रूसी राष्ट्रपति पूतिन का माथा अब शायद ठकने लगा है कि वे यूक्रेन से नहीं, नाटो से लड़ रहे हैं। यूक्रेन से तो वे कब के निपट चुके होते। पर नाटो से निपटने में तो सब कुछ दांव लगा देना पड़ेगा। सब कुछ हाथ से जा सकता है। लेने के देने पड़ जायेंगे। मोर्चे पर सैन्य स्थिति और देश के भीतर आर्थिक स्थिति उत्साहवर्धक कतई नहीं है। अतः बेहतर यही है कि एक बार फिर कोशिश की जाए कि यूक्रेन यदि तटस्थता वाले अपने पुराने वादे पर लौट आए, तो रूसी सेना भी रूस लौट जाएगी। अन्य़था, कहीं ऐसा न हो कि 'आधी मिलै न पूरी पाए।' विजय का सपना दुःस्वप्न बन जाए।
Edited by navin rangiyal

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

खैरा की गिरफ्तारी पर पुरी का विपक्षी गठबंधन पर तंज, पूछा- क्या यही है मोहब्बत की दुकान?