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क्या होता यदि चंद्रमा नहीं होता? चांद से जुड़े कुछ अनजाने तथ्‍य

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राम यादव

, मंगलवार, 11 जुलाई 2023 (23:43 IST)
Moon- Truths & Myths : भारत एक बार फिर चंद्रमा की तरफ हाथ बढ़ा रहा है। शुक्रवार, 14 जुलाई को आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा में स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से भारत का चंद्रयान-3 चंद्रमा की दिशा में प्रस्थान करेगा। आशा है कि इस बार वह सफलता अवश्य हाथ लगेगी, जो चंद्रयान-2 के समय हाथ से फिसल गई। हमारी पृथ्वी का व्यास (डायमीटर) 12,700 किलोमीटर है जबकि हमारे चंद्रमा का व्यास 3,476 किलोमीटर है यानी आकार में पृथ्वी उससे केवल 4 गुना बड़ी है।
 
चंद्रमा 27.3 दिन में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है और इतने ही समय में अपने अक्ष (एक्सिस/ धुरी) पर भी एक बार घूम जाता है। परिक्रमा काल और अक्ष पर घूर्णन काल एक समान होने के कारण ही पृथ्वी पर से हमें उसका हमेशा केवल एक ही अर्द्धभाग दिखाई पड़ता है।
 
चंद्रमा की आयु साढ़े 4 अरब वर्ष: समझा जाता है कि चंद्रमा कोई साढ़े 4 अरब वर्ष पू्र्व मंगल ग्रह जितने बड़े किसी आकाशीय पिंड के पृथ्वी से टकराने से बना था। इस टक्कर से पृथ्वी का एक हिस्सा टूटकर अलग हो गया, जो समय के साथ चंद्रमा बन गया। इसी कारण दोनों की संरचनाओं में कई समानताएं मिलती हैं।
 
पृथ्वी से भिन्न चंद्रमा के पास न तो अपना कोई वायुमंडल है और न ही चुंबकीय बलक्षेत्र। इस कारण जीव-जंतुओं के लिए प्राणघातक ब्रह्मांडीय विकिरण की बौछार का डर वहां सदा बना रहता है। दिन में जब सूर्य लंबवत ऊपर होता है, तब तापमान 130 डिग्री सेल्सियस तक चढ जाता है। रात में वह 0 से 160 डिग्री सेल्सियस तक नीचे गिर जाता है यानी कुछ ही घंटों में तापमान 290 डिग्री तक ऊपर-नीचे हो जाता है। पृथ्वी पर पानी 100 डिग्री के आस-पास खौलने लगता है और 0 डिग्री पर जमकर बर्फ बन जाता है। नई खोजों से पता चला है कि चंद्रमा पर के जिन क्रेटरों में धूप नहीं पहुंचती यानी वे हमेशा छाया में रहते हैं, वहां बर्फ के रूप में पानी भी हो सकता है। 
 
जीवन के लिए चंद्रमा वरदान है : चंद्रमा चाहे जितना निर्जन और वीरान हो, कंकरीला-पथरीला और क्रेटर कहलाने वाले गड्ढों से भरा हो, हवा और पानी से रहित हो, हमारी पृथ्वी और पृथ्वी पर जीवन के लिए वह वरदान के समान है। चंद्रमा न होता, तो पृथ्वी की स्थिरता और उस पर हमारा रहना-जीना दूभर हो जाता। कुछ उदाहरण-
 
चंद्रमा न होता तो पृथ्वी पर दिन-रात का क्रम कुछ और ही होता। दिन बहुत छोटे और रातें बहुत लंबी होतीं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि सूर्य की परिक्रमा करते समय पृथ्वी की धुरी (अक्ष/एक्सिस) परिक्रमा-तल की तरफ 23.5 अंश झुकी हुई होती है। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल इस झुकाव को स्थिरता प्रदान करता है। इस स्थिरता के बिना पृथ्वी पर भरोसेमंद ऋतुएं नहीं होतीं। ऋतुएं या तो होतीं ही नहीं या मौसम बहुत अधिक उतार-चढ़ाव वाले होते।
 
पृथ्वी पर दिन बहुत छोटा होता : हमारे दिन-रात, सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर किसी लट्टू की तरह पृथ्वी के घूमने का परिणाम हैं। चंद्रमा यदि नहीं होता तो पृथ्वी पर दिन केवल 6 से 12 घंटे के बीच ही हुआ करते। हमारे सोने-जागने का क्रम तब कुछ और ही होता। चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल वाले प्रभाव से पृथ्वी की अपने अक्ष पर घूमने की गति वास्तव में उससे में कहीं तेज है जितनी वह चंद्रमा के नहीं होने पर रही होती।
 
चंद्रमा के न होने पर पृथ्वी पर के सागरों-महासागरों में आने वाला ज्वार-भाटा बहुत क्षीण होता। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल सागर जल को किसी चुंबक की तरह खींचता है। समुद्री केकड़ों और घोंघों जैसे जीवों के लिए ज्वार-भाटा बहुत जरूरी है। जलवायु का संतुलन बनाए रखने और वैश्विक तापमान के नियमन में भी ज्वार-भाटे की बहुत उपयोगी भूमिका है। 
 
चंद्रमा के न होने पर पृथ्वी पर के वे जीव-जंतु भूख से मर जाएंगे, जो रातों को शिकार करते हैं। चंद्रमा से परावर्तित होकर रातों को आने वाला सूर्य प्रकाश हालांकि बहुत क्षीण होता है, तब भी अपनी पसंद के शिकार को पहचानने में वह निशाचर जीव-जंतुओं के बड़े काम आता है।
 
चंद्रमा और हम : हमारा शरीर भी 70 प्रतिशत पानी का बना है इसलिए बहुत से लोग मानते हैं कि चंद्रमा हमारे शरीर को भी प्रभावित करता है, पर ऐसा नहीं है। चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति किसी चुंबक की तरह सागरों-महासागरों की जलराशि की विशालता के कारण ज्वार-भाटे के रूप में सागरीय जलराशि पर अपना असर दिखाती है। नदियों-तालाबों या हमारे शरीर में पानी की मात्रा, सागरों-महासागरों की तुलना में इतनी कम है कि उस पर चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का कोई असर नहीं होता।
 
चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हमारी पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के केवल 6ठे हिस्से के बराबर है, क्योंकि पृथ्वी उससे 4 गुनी बड़ी और 81 गुनी भारी है। जो चीज पृथ्वी पर 60 किलो भारी होगी, चंद्रमा पर वह केवल 10 किलो भारी रह जाएगी। चंद्रमा के पास पृथ्वी जैसा न तो कोई वायुमंडल है और न ही कोई ऐसा चुंबकीय बलक्षेत्र है, जो वहां जाने-रहने वालों को सौर आंधियों या ब्रह्मांडीय रेडियोधर्मी विकिरण के खतरों से बचा सके। वहां ऐसी जगहें, जो सूर्य प्रकाश नहीं पहुंच सकने के कारण छाया में हों, ऋण (माइनस) 210 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी हो सकती हैं और उनके ठीक बगल की धुपहली जगहें 120 डिग्री सेल्सियस तक गरम हो सकती हैं।
 
रहता कोई नहीं, कूड़ा-कचरा 200 टन : चंद्रमा पर रहता कोई नहीं, पर वहां जमा कूड़ा-कचरा अभी से करीब 200 टन के बराबर हो चुका है। यह कचरा अतीत में पृथ्वी पर से गए वहां गिरे 30 से अधिक अंतरिक्ष यानों इत्यादि के मलबे, अमेरिकी चंद्र यात्रियों द्वारा वहां छोड़ी और फेंकी गईं चीजों, उनके द्वारा वहां छोड़े गए रोवर वाहनों तथा वैज्ञानिक प्रयोगों वाली सामग्रियों के रूप में है।
 
कुछ लोग मानते हैं कि चंद्रमास और स्त्रियों के मासिक धर्म के बीच संबंध है। यह बिलकुल गलत धारणा है। चंद्रमा की एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा के बीच का समय औसतन 29.53 दिन (29 दिन 12 घंटे 43 मिनट) के बराबर होता है जबकि स्त्रियों में एक के बाद दूसरे मासिक धर्म के बीच 23 से 35 दिनों तक का अंतर पाया जाता है। वैज्ञानिकों ने चंद्रमास और स्त्रियों के मासिक धर्म के बीच अब तक कोई संबंध नहीं पाया है।
 
पूर्णिमा से जुड़ा मिथक : एक दूसरी मान्यता है कि पूर्णिमा वाले दिनों में अच्छी नींद नहीं आती। स्विट्जरलैंड के बाजेल विश्वविद्यालय ने 2013 में इसे जानने के लिए 33 लोगों के साथ एक प्रयोग में उनकी नींद का अध्ययन किया। अध्ययन से सामने आया कि पूर्णिमा वाली रातों में गहरी नींद वाले दौर स्पष्ट रूप से छोटे थे और नींद की कुल लंबाई भी अन्य दिनों की अपेक्षा कम थी।
 
लेकिन जर्मनी में म्यूनिक के मनोरोग संबंधी माक्स प्लांक संस्थान के तंत्रिका वैज्ञानिक डॉ. मार्टिन ड्रेस्लर इस से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि बाजेल में हुए अध्ययन के सभी प्रतिभागी अधिक आयु के लोग थे। आयु बढ़ने के साथ नींद की गुणवत्ता अपने आप घटने लगती है अत: यह कहना सही नहीं होगा कि इस अध्ययन में भाग लेने वालों की खराब नींद के लिए पूर्णिमा का चांद जिम्मेदार था। अध्ययन में भाग लेने वालों की संख्या भी इतनी कम थी कि यह एक संयोग भी हो सकता है कि उन्हें अच्छी और लंबी नींद नहीं आई।
 
पूर्णिमा और 'मेलाटोनिन' हॉर्मोन : पूर्णिमा वाले चांद के समय अच्छी नींद नहीं आने पर विश्वास करने वालों का एक दूसरा तर्क यह होता है कि हमारे सोने और जागने को 'मेलाटोनिन' नाम का हॉर्मोन नियंत्रित करता है। अंधेरा होने पर मेलाटोनिन का स्राव बढ़ जाता है ताकि हमें नींद आए और उजाला होने पर घट जाता है ताकि हम जाग जाएं। पूर्णिमा के समय चांद की चमक चूंकि काफ़ी बढ़ जाती है और यदि वह सोने के कमरे में भी पहुंच रही है तो इस कारण मेलाटोनिन का स्राव घट जाने से नींद टूट जानी चाहिए।
 
वैज्ञानिक इस तर्क को स्वीकार नहीं करते। उनका तर्क है कि पूर्णिमा के चांद की चमक पृथ्वी पर पहुंचने तक प्रकाश की इकाई लक्स (lux) में केवल 0.2 लक्स के बराबर रह जाती है। इतने क्षीण प्रकाश से नींद में कोई बाधा नहीं पड़ सकती। नींद यदि ठीक से नहीं आती तो इस विश्वास या मन में छिपी शंका के कारण नहीं आती होगी कि आज पूर्णिमा है।
 
पूर्णिमा के दिन ऑपरेशन से डर : जो लोग चंद्रमा और उसकी हर दिन बदलती कलाओं (फ़ेज) को बहुत महत्व देते हैं, वे पूर्णिमा वाले चांद के समय अपनी किसी बीमारी के कारण ऑपरेशन करवाने से भी बचते हैं। उन्होंने सुना होता है या वे मानते हैं कि पूर्णिमा वाले दिन को हुए ऑपरेशन किसी न किसी परेशानी का कारण बनते हैं।
 
इस भय में कितना दम है, इसे जानने के लिए जर्मन राज्य जारलैंड के विश्वविद्यालय अस्पताल में 2001 से 2011 के बीच हुए 27,914 लोगों के ऑपरेशनों की समीक्षा की गई। समीक्षा का आधार इस प्रश्न को बनाया गया कि इन 10 वर्षों के दौरान 111 पूर्णिमाओं वाले जो दिन पड़े, उन दिनों ऑपरेशन के समय बहुत अधिक ख़ून बहने या किसी दूसरी गंभीर जटिलता के कितने मामले हुए। किंतु ऐसे कोई असामान्य मामले नहीं मिले।
 
2009 में जर्मनी के म्यूनिख विश्वविद्यालय वाले अस्पताल में फेफड़े के कैंसर के जटिल ऑपरेशनों को केंद्र में रखकर एक ऐसा ही अध्ययन हुआ। वहां भी ऑपरेशन के बाद पैदा हुई ऐसी किन्हीं जटलिताओं का संकेत नहीं मिला जिन्हें चंद्रमा की विभन्न कलाओं से जोड़ा जा सके।
 
पृथ्वी के 'क्वासी सैटेलाइट' : खगोलविदों ने 2004 में 5 और ऐसे आकाशीय पिंड पाए, जो हमेशा पृथ्वी के पास बने रहते हैं, पर परिक्रमा सूर्य की करते हैं। उन्हें 'क्वासी सैटेलाइट' (उपग्रहवत/ उपग्रह सदृश्य) कहा जाता है। पृथ्वी पर से देखने पर ऐसा लगता है कि चंद्रमा की तरह वे भी पृथ्वी की ही परिक्रमा कर रहे हैं, लेकिन पृथ्वी की सौर-परिक्रमा वाली दिशा से उलटी दिशा में चलते हुए। उनकी चमक इतनी क्षीण है कि उन्हें देख पाना बहुत मुश्किल होता है।
 
अमेरिकी वैज्ञानिकों की एक टीम को 2016 में एक और ऐसा ही क्षुद्र 'क्वासी सैटेलाइट' मिला जिसे 'कामो'ओआलेवा' (Kamo’oalewa) नाम दिया गया है। वह 45 से 60 मीटर बड़ा है। उसका वर्णक्रम (Spectrum) ऐसे किसी दूसरे आकाशीय पिंड से मेल नहीं खाता, जो पृथ्वी की किसी निकटवर्ती कक्षा में रहकर परिक्रमा कर रहा हो। 'कामो'ओआलेवा' की खोज करने वाली टीम की भारतवंशी सदस्य रेणु मलहोत्रा का कहना है कि उसकी परिक्रमा कक्षा इतनी अनोखी है कि शायद ही कोई दूसरा सामान्य 'क्वासी सैटेलाइट' उसके जैसी कक्षा में कभी पहुंच पाएगा।
 
'क्वासी सैटेलाइट' चंद्रमा की देन? : अटकल लगाई जाती है कि 'कामो'ओआलेवा' और अब तक मिले दूसरे 'क्वासी सैटेलाइट' भी चंद्रमा से टूटकर अलग हुए ऐसे टुकड़े हो सकते हैं, जो अतीत में कभी किसी दूसरे बड़े पिंड के चंद्रमा से टकराने पर उससे टूटकर अलग हुए इसीलिए वे पृथ्वी और चंद्रमा से बहुत दूर नहीं हैं। पृथ्वी से कहीं निकट के 'कामो'ओआलेवा' की परिक्रमा गति केवल 2 से 5 किलोमीटर प्रति सेकंड है। उसके जैसे आकाशीय पिंड उससे भिन्न कक्षाओं में आमतौर पर 20 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से फेरे लगाते हैं।
 
चंद्रमा पर अब तक केवल अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों के पैर पड़े हैं। 5 दशक बाद 2025 में अमेरिका एक बार फिर वहां अपने अंतरिक्ष यात्री भेजेगा। इसके साथ ही वहां पहली बार लंबे समय तक रहने और वहां से मंगल ग्रह पर जाने का महत्वाकांक्षी अभियान शुरू होगा। इस सबके लिए बिजली के रूप में ऊर्जा की भी आवश्यकता पड़ेगी।
 
चंद्रमा पर परमाणु रिएक्टर : अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा बिजली पाने के लिए चंद्रमा पर एक परमाणु ऊर्जा रिएक्टर स्थापित करना चाहती है। 2022 में उसने घोषणा की कि जो कोई चंद्रमा पर की परिस्थितियों के अनुकूल परमाणु विखंडन पर आधारित ऊर्जा उत्पदन की कोई सही युक्ति जानता हो, वह अपने सुझाव के साथ आवेदन करे।
 
सुझाव ऐसा होना चाहिए कि रिएक्टर पृथ्वी पर ही बनाया और बाद में चंद्रमा पर भेजा जा सके इसलिए रिएक्टर का व्यास (डायमीटर) 4 मीटर, ऊंचाई 6 मीटर और वजन 6,000 किलोग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए। इस घोषणा के बाद से अमेरिका की विभिन्न कंपनियां और प्रतिष्ठान चंद्रमा पर भेजने के उपयुक्त परमाणु रिएक्टर विकसित करने में जुट गए हैं। दूसरे शब्दों में पृथ्वीवासी चंद्रमा को भी परमाणु प्रदूषण से दूषित किए बिना नहीं रहेंगे।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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