कांग्रेस और वामपंथी व अन्य विरोधी दल अक्सर की केन्द्र की सरकारों पर आरोप लगाते हैं कि कश्मीर घाटी में अशांति होने पर केन्द्र सरकार कुछ नहीं करती है और वह इस समस्या का बातचीत के जरिए राजनीतिक समाधान नहीं करना चाहती है वरन यह घाटी को कानून व्यवस्था की समस्या बताकर लोगों का जीना दूभर बनाए रखती है।
पूर्व में की गई इस तरह की आलोचनाओं के बीच कश्मीर में बातचीत के इरादे से ऐसे ही विचार रखने वाले सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल बिना किसी तैयारी यह पहल के श्रीनगर पहुंचा। लेकिन शांति मिशन पर आए सर्वदलीय समिति से बातचीत ठुकरा दी गई और मीरवाइज, गिलानी ने शर्तें थोपते हुए कहा कि सबसे पहले तो घाटी से सेना को विशेषाधिकार देने वाला अफ्सपा कानून हटाएं। साथ ही, प्रतिनिधिमंडल के सदस्य कश्मीर को लेकर सरकारी एजेंडा बताएं तभी हम कोई बातचीत करना चाहेंगे।
पर केन्द्र सरकार के खुफिया सूत्रों का कहना है कि यह अलगाववादियों द्वारा असलियत पर पर्दा डालने की कोशिश है क्योंकि उनके जन समर्थन का आधार लगातार कम होता जा रहा है। इसके अलावा, अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तान स्थित आकाओं से निर्देश भी मिले हैं कि बातचीत करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाएं। बीते रविवार को श्रीनगर में हुए इस नाटक के जरिए अलगाववादियों ने अपने खिसके जनाधार को छिपाने का असफल प्रयास किया। दरअसल, विरोध प्रदर्शनों पर अब अलगाववादियों की पकड़ खत्म हो चुकी है।
अलगाववादियों के सभी बड़े नेता नजरबंद हैं। ऐसे में विरोध प्रदर्शन और हिंसा को कट्टरवादी और पाकिस्तान पोषित आतंकी संगठन ही भड़का रहे हैं। अलगाववादियों को अब खुद पर इतना भरोसा नहीं रह गया है। इस कारण से हिज्बुल मुजाहिदीन की प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन को धमकी देनी पड़ी कि 'कश्मीर का समाधान केवल बंदूक से होगा और वह घाटी को भारतीय सेना की कब्रगाह बना देगा।'
सुरक्षा सूत्रों का कहना है कि कश्मीर को इस हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता और सुरक्षा एजेंसियों ने केंद्र को सूचित किया है कि अब अलगाववादियों की पकड़ विरोध प्रदर्शनों पर नहीं रह गई है। अलगाववादी जनाधार का भ्रम बनाए रखने के लिए प्रदर्शनों का कैलेंडर जारी कर रहे हैं। बातचीत की पहल के विफल हो जाने से अब सर्वदलीय समिति और केंद्र के समक्ष भी नई चुनौतियां खड़ी हो गईं हैं। इस मामले पर अब केन्द्र सरकार का मानना है कि अलगाववादियों को उनकी औकात दिखाने के लिए जरूरी है कि अब अलगाववादियों से बातचीत स्थानीय स्तर पर होनी चाहिए।
सर्वदलीय समिति के दौरे के क्रम में लचर होम वर्क भी उजागर हुआ है। पीडीपी सूत्रों के मुताबिक अलगाववादियों से बातचीत पर दौरे से एक दिन पहले तक असमंजस की स्थिति बनी रही। केंद्र सरकार ने संविधान के दायरे में बातचीत की नीति पर कायम रहने का फैसला किया और विपक्षी सदस्यों का अलगाववादियों से मुलाकात का प्रोग्राम भी अंत में तय हुआ। जबकि अलगाववादियों के पास सर्वदलीय समिति के नेताओं के सीधे पहुंचने के बजाय उनसे पहले स्थानीय स्तर पर बातचीत की जानी चाहिए थी। इस कारण से समिति के सदस्यों को अलगाववादियों से उपेक्षा झेलनी पड़ी।
अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और मोहम्मद यासीन मलिक ने संयुक्त बयान में कहा कि डेलीगेशन के पास जब कोई स्पष्ट एजेंडा ही नहीं है तो उससे उम्मीद करना बेमानी है। इन नेताओं ने कहा कि मुख्य मुद्दा कश्मीर को आत्मनिर्णय के अधिकार का है। भारत ने राजनीति में पिछले 70 वर्ष से धोखे और गुमराह करने की नीति अपनाई है। इन नेताओं ने मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की आलोचना करते हुए कहा उन्होंने केवल केंद्रीय डेलीगेशन को मान्यता देने पर ही जोर दिया। केन्द्र सरकार को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि वह पाकिस्तान के इन प्रॉक्सीज (मोहरों) से बात करे या नहीं या फिर इन्हें ही दरकिनार करने के तरीके खोजे जाएं।