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कहानी पाकिस्तान के इस्लामी बम की

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हमें फॉलो करें Story of Pakistan's Islamic bomb
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राम यादव

, गुरुवार, 15 मई 2025 (08:00 IST)
1983 में जर्मनी एक विभाजित देश था। कम्युनिस्टों के शासन वाला जर्मनी का साम्यवादी पूर्वी हिस्सा अपने आप को 'जर्मन जनवादी गणतंत्र' (जर्मन डेमोक्रैटिक रिपब्लिक / GDR) कहता था और पूंजीवादी पश्चिमी का हिस्सा, 'जर्मन संघीय गणतंत्र' (फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी / FRG) के नाम से प्रसिद्ध था, पर बाक़ी दुनिया के लिए 'जर्मनी' का अर्थ पूंजीवादी 'पश्चिम जर्मनी' ही हुआ करता था। दुनिया में तूती उसी की बोलती थी। उन दिनों पूर्वी जर्मनी में रूसी परमाणु मिसाइल और पश्चिमी जर्मनी में अमेरिकी परमाणु मिसाइल तैनात थे। 1989 में विभाजन की प्रतीक बर्लिन दीवार गिर जाने और जर्मनी का एकीकरण हो जाने के बाद जर्मनी में अब केवल 34 हज़ार अमेरिकी सैनिक और एक अज्ञात संख्या में अमेरिकी परमाणु मिसाइल भी तैनात हैं।
 
विभाजन के समय वाले पश्चिमी जर्मनी के फ्राइबुर्ग नगर में 1983 के जुलाई महीने में एक बहुत ही दिलचस्प मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई। सरकारी अभियोक्ता ने देश की एक जर्मन फ़र्म के विरुद्ध अपने अभियोग पत्र में आरोप लगाया था कि 'सीईएस काल्टहोफ़' नाम की इस फ़र्म और उसके जर्मन इंजीनियरों ने पाकिस्तान के साथ अपने कारोबार में देश के 'विदेश व्यापार नियमों' का घोर उल्लंघन किया है।
 
पहला मुकदमा : फ्राइबुर्ग के ही एक जर्मन इंजीनियर, अल्ब्रेश्त मिगूले की यह फ़र्म पश्चिमी देशों की उन अनेक फ़्रर्मों में से एक थी, जो पाकिस्तान को चोरी-छिपे परमाणु बम बनाने की तकनीकी जानकारी देती रही हैं। इन्हीं फ़र्मों और उनके इंजीनियरों ने परमाणु बम बनाने के लिए आवश्यक यूरेनियम संवर्धन संयंत्रों को बनाने में पाकिस्तान का हाथ बंटाया था। जर्मनी के फ्राइबुर्ग में चला यह ऐसा पहला मुकदमा था, जिसमें 'पहला इस्लामी बम' बनाने के लिए बुरी तरह बेचैन पाकिस्तान के तत्कालीन सत्ताधारी जनरल ज़ियाउल हक़ के किसी शुभचिंतक को पश्चिमी दुनिया की किसी अदालत में खड़ा होना पड़ा था।
 
वास्तव में 18 मई 1974 के दिन, राजस्थान के पोखरण में भारत के पहले 'शांतिपूर्ण' परमाणु परीक्षण के बाद से ही पाकिस्तान शासकों की नींद हराम हो गई थी। उन्हें दिन में ही तारे दिखाई पड़ने लगे थे। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे ज़ुल्फिकार अली भुट्टो तो भारतीय परीक्षण से इतने उद्वेलित हो गए थे कि कहने लगे कि हम घास खाएंगे, पर बम ज़रूर बनाएंगे।
 
पाकिस्तानी बम का चोर पिता : भुट्टो की इस प्रतिज्ञा के कुछ ही समय बाद 1975 के अंत में जर्मनी के ही पश्चिमी पड़ोसी देश नीदरलैंड के अल्मेलो यूरेनियम संवर्धन संयंत्र में काम कर रहा एक पाकिस्तानी वैज्ञानिक अकस्मात ग़ायब हो गया। बाद में पता चला कि डॉ. अब्दुल कादर ख़ान नाम का यह वैज्ञानिक एक ब्रिटिश-जर्मन-डच साझी परियोजना के अत्यंत गोपनीय कागज़ पत्र भी अपने साथ उड़ा ले गया है। यही चोर बाद में पाकिस्तानी परमाणु बम का पिता बना।
 
उन दिनों और आज भी कहा जाता है कि पाकिस्तान ने बड़े सुनियोजित ढंग से अपने इस वैज्ञानिक को अल्मेलो के यूरेनियम संवर्धन संयंत्र की जासूसी करने के लिए उसमें घुसाया था। अब्दुल कादर ख़ान के हाथ जो सबसे क़ीमती चोरी का माल लगा, वह था ऐसे गैस केंद्रापसारी (सेंट्रीफ्युगल) यंत्रों की डिज़ाइनें, जिनसे यूरोनियम को किसी बम के उपयुक्त बनाने के लिए शोधित-संवर्धित किया जाता है।
 
चुराई गई जानकारी : चुराई गई तकनीकी जानकारी के अनुसार, पाकिस्तान को अपने बम के लिए ज़रूरी यूरेनियम, यूरेनियम-235 कहलाने वाले उसके समस्थानिक (आइसोटोप) के रूप में चाहिए था। परमाणु ऊर्जा या बमों के लिए सामान्यतः यूरेनियम-233 और यूरेनियम-235 कहलाने वाले यूरेनियम के समस्थानिकों को ही सबसे उपयुक्त माना जाता है। बम बनाने के लिए आवश्यक यूरेनियम की मात्रा में यूरोनियम-235 का अनुपात लगभग 90 प्रतिशत होना चाहिए।
 
फ्राइबुर्ग की 'सीईएस काल्टहोफ़' फ़र्म के मालिक अल्ब्रेश्त मिगूले ने 1976 में पाकिस्तान को आश्वासन दिया कि वह इस काम में सहायता कर सकता है। दोनों पक्षों ने 13 नवंबर, 1976 तथा 3 और 9 मार्च 1977 को 'खनिज यूरेनियम को 99 प्रतिशत शुद्ध यूरेनियम' में बदलने के लिए आवश्यक डिज़ाइनों, साज-सामान और तकनीकी सहायता की आपूर्ति के बारे में तीन अनुबंध किए।
 
जाली अनुबंध : सबसे मज़ेदार बात यह रही कि पाकिस्तान की ओर से इन अनुबंधों पर कराची की 'मेसर्स अर्शाद, अमजद लिमिटेड' नाम की एक फ़र्म ने हस्ताक्षर किए। यह फ़र्म उस समय आमतौर पर कपड़ों का व्यापार करती थी। स्पष्ट है कि उसे दिखावटी तौर पर इस गोरखधंधे में शामिल किया गया था। जर्मनी के सरकारी अभियोक्ता ने मिगूले के पास से जो प्रमाण आदि ज़ब्त किए थे, उनसे पता चलता था कि उसका असली लेनदेन तो अब्दुल कादर ख़ान के साथ ही होता था! उदाहरण के लिए 6 अक्टूबर 1978 के अपने एक पत्र में ख़ान साहब ने मिगूले से 'न्यूक्लियर क्वालिटी के कैल्शियम ग्रैन्युलेट्स' भेजने की मांग की थी।
 
लगभग उन्हीं दिनों, मुल्तान के पास जामपुर में यूरेनियम के संवर्धन संयंत्र के निर्माण का काम भी बड़े ज़ोरशोर से चल रहा था, किंतु स्वयं भी एक परमाणुशक्ति बनने के अनन्य शौकीन पाकिस्तान के पास ऐसे मैकेनिकल इंजीनियर तक पर्याप्त संख्या में नहीं थे कि वह केवल अपने इंजीनियरों के बल-बूते पर ही यह काम कर सकता। अतः पाकिस्तान ने मिगूले से कुछ कुशल जर्मन युवा इंजीनियर भी भेजने का अनुरोध किया। मिगुले ने उदाहरण के लिए डार्मश्टाट शहर के एक अख़बार में अपनी फ़र्म की ओर से विज्ञापन दिया, अपने एक ग्राहक के लिए पाकिस्तान में एक परियोजना हेतु हमें 6 महीनों की ख़ातिर तत्काल एक युवा मैकेनिकल इंजीनियर चाहिए। 
 
इंजीनियर की गवाही : इस विज्ञापन के बाद रोलांड हान्फ नाम के जिस इंजीनियर को मिगूले ने पाकिस्तान जाने के लिए चुना, वह मुकदमे की सुनवाई के समय मिगूले के विरुद्ध गवाह बन गया। हान्फ ने अपनी गवाही में बताया कि विज्ञापन का उत्तर देने के बाद, मिगूले से उसकी पहली बातचीत, फ्रैंकफ़र्ट-बाज़ल एक्सप्रेस हाइवे के किनारे बने कार-पार्किंग के एक स्थान पर हुई। मिगूले ने उससे कहा कि इस काम के लिए उसे चुन लिया गया है। उसे पाकिस्तान में हीलियम बनाने वाले एक परीक्षण संयंत्र में काम करना है। यह चेतावनी भी दी कि हान्फ अपने काम और इस संयंत्र के बार में कभी मुंह नहीं खोलेगा।
 
इंजीनियर रोलांड हान्फ ने अपनी गवाही में यह भी बताया कि मिगूले के साथ हुई इस बातचीत के तीन सप्ताह बाद वह पाकिस्तान पहुंच गया। वहां जल्द ही उसे पता चल गया कि वह वास्तव में एक ऐसे संयंत्र के निर्माण के लिए काम कर रहा है, जिसमें परमाणु बम बनाने के लिए यूरेनियम संवर्धित किया जा रहा है, तरल हीलियम केवल प्रशीतन के लिए चाहिए।
 
जब इंजीनियर का माथा ठनका : जामपुर में जहां यह सब हो रहा था, उस पूरी जगह को पाकिस्तानी सैनिकों ने दुनिया से अलग-थलग कर रखा था। इससे रोलांड हान्फ का माथा ठनका। उसने पाया कि फ़ोटो आदि खींचना तो सख्त मना था ही, बिना पूर्व अनुमति के किसी को कहीं आना-जाना भी मना था। जिस जगह जर्मन इंजीनियर और मैकेनिक रहते थे, वहां रात-दिन बंदूकधारी सैनिक पहरा दिया करते थे। हान्फ केवल तीन महीने जामपुर में टिका। 1978 के क्रिसमस वाले दिन वह जर्मनी लौट गया। मैं एटम बम बनाने में मदद नहीं देना चाहता, हान्फ ने अपनी गवाही में कहा।
 
पाकिस्तान के इस्लामी बम को संभव बनाने में कुछ दूसरे देशों की सच्ची-झूठी फ़र्में भी हाथ बंटा रही थीं। 1981 के आरंभ में कनाडा के मांट्रियाल शहर में तीन लोगों का एक ऐसा गिरोह पकड़ा गया, जो दुबई तथा खाड़ी क्षेत्र के अन्य देशों में जाली पतों के माध्यम से कंप्यूटर तथा इलेक्ट्रॉनिक पुर्जे आदि पाकिस्तान पहुंचाया करता था।

कनाडा की पुलिस के एक अधिकारी के कथनानुसार सब कुछ एटम बम के लिए हो रहा था। 1981 के ही 31 अक्टूबर वाले दिन न्यूयॉर्क की पुलिस ने परमाणु रिएक्टर लायक दो टन जिर्कोनियम पकड़ा, जिसे बड़ी सफ़ाई से पाकिस्तान भेजा जा रहा था। एसजे एंटरप्राइज नाम की जिस पाकिस्तानी फ़र्म के लिए उसे हवाई जहाज पर लादा जाने वाला था, वह जनरल ज़ियाउल हक़ के एक घनिष्ठ मित्र की फ़र्म थी।
 
पाकिस्तानी गुंडों का डर : अल्ब्रेश्त मिगूले और उसके सहयोगियों को मुकदमे के समय यह डर सता रहा था कि यदि उन्होंने मुंह खोला तो पाकिस्तानी गुंडे बदला ले सकते हैं। मिगूले के वकीलों ने अदालत से कहा कि उसकी जान गंभीर ख़तरे में है। 1981 के आरंभ में उस समय के पश्चिमी जर्मनी की एक दूसरी फ़र्म तथा स्विट्ज़रलैंड की एक निजी फ़र्म के कार्यालय को भी अज्ञात लोगों ने बम से उड़ा देने का प्रयास किया था। इन फ़र्मों ने पाकिस्तान के इस्लामी बम के लिए आवश्यक कई प्रकार की सामग्रियां सप्लाई की थीं।

नवंबर 1981 में अल्ब्रेश्त मिगूले के एक रसायनशास्‍त्री के घर के सामने भी एक बम फटा। बम-प्रहार करने वालों का कोई अता-पता नहीं मिल सका। माना जाता है कि दोनों बम-प्रहार और कुछ अन्य घटनाएं यही संकेत देती हैं कि पाकिस्तान नहीं चाहता था कि उसके पहले इस्लामी बम की पोल खोलने वाले कहीं भी चैन की सांस ले सकें। 
 
इस संदर्भ में यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि 1980 वाले दशक में इसराइल ने किसी भी देश के 'इस्लामी बम' को नहीं बनने देने का बीड़ा उठा रखा था। उस समय इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन भी अपने 'ओसिराक परमाणु रिएक्टर' की सहायता से बम बनाने की फिराक में थे। इसराइल ने 1981 में इस इराक़ी रिएक्टर को ध्वस्त कर दिया।
 
इसराइल का इस्लामी बम विरोध : इसराइल, भारत की सहायता से पाकिस्तान में इस्लामाबाद के पास के कहूटा परमाणु रिएक्टर को भी ध्वस्त कर देना चाहता था, पर कहा जाता है कि भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उस समय भारत और इसराइल में एक-दूसरे के दूतावास भी नहीं थे। कहा यह भी जाता है कि पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा ISI को इसराइली-भारतीय मिलीभगत की भनक मिल गई थी। इंदिरा गांधी के अनमनेपन का एक कारण संभवतः यह भी था कि पाकिस्तान ने भी उस समय शायद भारत की परमाणु सुविधाओं पर हवाई हमले करने की तैयारी कर ली थी।

भारत और पाकिस्तान के बीच इस समय जो अपूर्व तनाव है, उसका एक परिणाम यह ज़रूर निकला है कि भारत के ब्रह्मोस मिसाइल ने पाकिस्तान के सरगोधा वायु सैनिक अड्डे के पास की परमाणु सामग्री पर प्रहार से रेडियो-सक्रिय विकिरण के फैलाव का पहली बार गंभीर संकट पैदा कर दिया है। तब भी यह आशा करना कि पाकिस्तान अपने 'इस्लामी बम' का ढिंढोरा पीटना और एक असभ्य देश की तरह व्यवहार करना छोड़ देगा, विशुद्ध ख़ामख़याली होगी।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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