यह भी कैसी विडंबना है कि एक पवित्र भूमि पर बसा होने का सौभाग्य ही इसराइल का सबसे बड़ा दुर्भाग्य बन गया है। उसके येरुसलेम शहर का 'टेंपल माउन्ट' कहलाने वाला सबसे पुराना हिस्सा सदियों से न केवल यहूदियों का, अपितु मुसलमानों और ईसाइयों का भी पावन तीर्थ स्थान है।
इन तीनों तथाकथित अब्राहमिक धर्मों की ऐतिहासिक जड़ें येरुसलेम में ही हैं। तीनों के धर्मावलंबी येरुसलेम पर तो अपना अधिकार जताते ही हैं, केवल 22,380 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले छोट-से इसराइल पर भी अपना ही अधिकार चाहते हैं। वहां के यहूदियों के पूर्वजों ने पिछले दो हज़ार वर्षों में रोमनों से लेकर बाइज़नटाइनियों, अरबों, तुर्कों और अंग्रेज़ों तक का शासन झेला है। उन्हें कई बार पलायन करना पड़ा है और देर-सवेर वे अपने पूर्वजों की इसी भूमि पर लौट कर आते भी रहे हैं।
इतिहास में पीछे जाने पर हम पाते हैं कि ईस्वी सन 135 में रोमनों ने यहूदियों को उनकी पैतृक भूमि पर से बेदखल कर उनके निवासक्षेत्र 'यूदेया' को 'फ़लस्तीन' नाम दिया। रोमनों के बाद आए अरब। ईस्वी सन 632 में पैगंबर मुहम्मद का देहावसान होने तक, पश्चिमी एशिया में इस्लाम का विस्तार इस तेज़ी से होने लगा था कि उसे अपना चुके अरबों ने ईस्वी सन 636 में, फ़लस्तीन को रोमनों से छीन लिया। इसी के साथ वहां अरबों का रहना-बसना बढ़ने लगा और जल्द ही उनका भारी बहुमत भी हो गया।
बदलाव का नया दौरः 11वीं-12वीं सदी में बदलाव का एक नया दौर आया। इस बार मुख्यतः येरुसलम में ईसाइयत के धर्मयोद्धाओं की तूती बोलने लगी थी। उन के बाद 1517 से 1918 तक पूरा फ़िलस्तीन, इस्लामधर्मी तुर्की के विशाल उस्मानी (ऑटोमन) साम्राज्य का हिस्सा रहा। दूसरे शब्दों में, यहूदियों को एक बहुत लंबे समय तक दूसरे देशों में शरण लेकर रहना पड़ा है। अपने पूर्वजों की भूमि पर रहने के लिए वे सदियों से तरसते-तड़पते रहे हैं।
1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की के विशाल उस्मानी साम्राज्य का अंत हो जाने के बाद, 'लीग ऑफ़ नेशंस' कहलाने वाले उस समय के राष्ट्रसंघ के आदेश पर, 1920 में उस्मानी साम्रज्य को भंग कर दिया गया। फ़िलस्तीन का प्रशासन तुर्कों से छीन कर अंग्रेज़ों को सौंप दिया गया।1945 में बने आज के संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की महासभा ने, 29 नवंबर, 1947 को तत्कालीन फ़िलस्तीन का अरबों और यहूदियों के बीच बंटवारा करने और दोनों को स्वतंत्र देश बनाने का निर्णय किया। इसे सुनते ही, अगले ही दिन अरबों के लड़ाकू दस्तों ने यहूदियों की बस्तियों पर हमले करना शुरू कर दिया। यहूदियों ने भी अपने बचाव की तैयारी कर रखी थी। दोनों तरफ़ से वैसी ही मार-काट मच गई, जैसी 1947 में भारत के बंटवारे के समय हुई थी। क़ानून-व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश प्रशासन तमाशा देखता रहा।
अरबों की आंख का कांटाः दंगे शुरू होने के साढ़े पांच महीने बाद, इसराइल बनाने की मांग करने वाले यहूदियों ने 14 मई,1948 को अपने पूर्वजों की भूमि पर, अपने आप को विधिवत एक स्वतंत्र देश घोषित किया। सारे अरब एक स्वतंत्र इसराइल के अस्तित्व के उस समय भी सरासर विरुद्ध थे और आज भी हैं। यही कारण है कि अपनी स्थापना के पहले दिन से ही इसराइल अपने अरब पड़ोसियों की आंख का कांटा बना हुआ है, बार-बार उनके हमले झेलता रहा है।
14 मई, 1948 वाली रात में ही मिस्र, सउदी अरब, तत्कालीन ट्रांस जॉर्डन, लेबनान, सीरिया और इराक़ ने मिल कर नवजात इसराइल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करदी। यह पहला अरब-इसराइली युद्ध जनवरी 19149 तक चला। विजेता इसराइल ही रहा। उसका क्षेत्रफल और भी बढ़ गया था। साढ़े आठ लाख अरबों एवं फ़िलस्तीनियों को भागना पड़ा था।
फ़िलस्तीनी आतंकवादी बनेः इस पहले युद्ध में अरबी देशों की भारी हार और फिलस्तीनियों के भारी संख्या में शरणार्थी बनने का एक घातक परिणाम किंतु यह हुआ कि कुंठाग्रस्त फ़िलस्तीनी आतंकवादी बनने लगे। इसराइल की नाक में दम करने के लिए वे आतंकवादी हमले आदि तो करते ही थे, इसराइल के समर्थक पश्चिमी देशों को भी आतंकी हमलों और विमान अपरहरण कांडों द्वारा अपना शत्रु बना बैठे। उनकी देखादेखी कुछ दूसरे सिरफिरों ने भी विमान अपहरण करना और अपनी उचित-अनुचित मांगे मनवाना सीख लिया।
1967 में मिस्र, सीरिया और जॉर्डन ने इसराइल पर साझे हमले की एक गुप्त योजना बनाई। इसराइल को इस की भनक मिल गई। उसने उस साल 5 जून को उन पर हमला बोल दिया और 6 दिनों के भीतर ही गाज़ा पट्टी, मिस्र का पूरा सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन का 'वेस्ट बैंक' कहलाने वाला पश्चिमी हिस्सा और सीरिया का 'गोलान ऊंचाइयां' कहलाने वाला दक्षिणी हिस्सा छीन लिया। 6 अक्टूबर 1973 के दिन इसराइली जब यहूदी पर्व 'योम किपुर' (मेल-मिलाप दिवस) मना रहे थे, मिस्र और सीरिया ने मिलकर इसराइल पर हमला बोल दिया। लेकिन वे इस बार भी पिट गए। उनके अस्त्र-शस्त्र भारी संख्या में नष्ट हुए और उनके 8500 से अधिक सैनिक मारे गए।
मिस्र ने शांति संधि कीः इस युद्ध के बाद मिस्र को लगने लगा कि इसराइल तो अजेय है। उससे कोई संधि-समझौता करने में ही भला है। अतः 1979 में, इसराइल और मिस्र ने एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसके आधार पर इसराइल ने, अन्य बातों के अलावा, मिस्र का पूरा सिनाई प्रायद्वीप उसे लौटा दिया। मिस्र को हालांकि इस कारण सज़ा के तौर पर, दस वर्षों के लिए अपने बिरादरों की 'अरब लीग' द्वरा अपना बहिष्कार झेलना पड़ा। इसराइल के साथ शांति संधि करने और उसे राजनयिक मान्यता देने वाला मिस्र पहला अरबी देश है; हालांकि यह मान्यता मिस्र की जनता में आज भी अलोकप्रिय है।
2011 में मिस्र में हुई तथाकथित 'अरबी वसंत' कहलाने वाली क्रांति का लाभ उठा कर कट्टरंथी 'मुस्लिम ब्रदरहुड' संगठन जब सत्ताधारी बना, तब इसराइल के साथ मिस्र के संबंधों को भी आंच पहुंचने लगी। 'मुस्लिम ब्रदरहुड' ही गाज़ा पट्टी के उग्र इस्लामवादी संगठन हमास का मां-बाप है। क़रीब दो वर्षों तक मिस्र में अरजकता जैसी काफ़ी उथल-पुथल रही। तब सेनाध्यक्ष अब्द अल-फ़तह अस-सीसी ने जुलाई 2013 में तख्ता पलटते हुए सत्ता हथिया ली। इस समय वही मिस्र के राष्ट्रपति हैं। उनके आने के बाद से मिस्र और इसराइल के आपसी संबंध भी सामान्य हो गए लगते हैं।
मिस्र ने इसराइल के पक्ष में मतदान कियाः 2015 में, मिस्र ने संयुक्त राष्ट्र में पहली बार संयुक्त राष्ट्र की अंतरिक्ष एजेंसी UNOOAS में एक सीट के लिए इसराइल के पक्ष में मतदान किया। डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति रहने के दौरान, मिस्र ने फिलिस्तीनियों और जॉर्डन से कहा कि वे अपने क्षेत्र में शांति बनाए रखने के अमेरिकी प्रयासों का समर्थन करें। 2021 और 2022 में इसराइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट ने राजनयिक वार्ता के लिए मिस्र की यात्रा की। अमेरिका के अनुसार, हमास के वर्तमान हमले से तीन दिन पहले, मिस्र ने इसराइल को गाजा से होने वाले हमले की चेतावनी दी थी, हालांकि इजराइल के प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इससे इनकार किया है, मिस्र ने भी इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
इसराइल के दक्षिणी पड़ोसी जॉर्डन की 1 करोड़ 11 लाख की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा फ़िलिस्तीनी मूल का है। उनमें आप्रवासी, जॉर्डन की नागरिकता प्राप्त फ़िलिस्तीनी और उनके बच्चे तथा शरणार्थी शामिल हैं। जॉर्डन ही यरुसलेम में इस्लामी पवित्र स्थलों का आधिकारिक संरक्षक है। उदाहरण के लिए, 'टेम्पल माउंट' का प्रबंधन करने वाले वफ़्क प्राधिकरण को वही वित्तपोषित करता है। 1994 में, जॉर्डन और इज़राइल ने शांति संधि की, किंतु बाद के तीन दशकों में कोई वास्तविक मेल-मिलाप नहीं हुआ।
इसराइल-जॉर्डन तनावः 2021 में दोनों देशों के बीच एक तनाव तब पैदा हुआ, जब इसराइल ने जॉर्डन के युवराज हुसैन को येरुसलेम के टेम्पल माउंट की यात्रा के लिए अनुमति नहीं दी। युवराज हुसैन इसराइल की पसंद से अधिक सुरक्षा गार्ड अपने साथ लाना चाहते थे। जॉर्डन ने अगले दिन जवाबी कार्रवाई करते हुए अबू धाबी जाने वाले एक इसराइली विमान को अपने आकाश में से हो कर जाने की अनुमति देने से मना कर दिया।
2022 में, इसाक हेर्त्सोग वार्तोओं के लिए जॉर्डन की राजधानी अम्मान की यात्रा करने वाले पहले इसराइली राष्ट्रपति बने, लेकिन उस साल की शरद ऋतु आते-आते स्थिति और भी खराब हो गई। जॉर्डन के शाह अब्दुल्ला ने CNN के साथ एक इंटरव्यू में कहा कि वे येरुसलेम में स्थित इस्लामी धार्मिक स्थलों के लिए लड़ने को अच्छी तरह तैयार हैं। हमास के आतंकवादियों के खिलाफ इसराइल की वर्तमान कार्रवाई के परिणामस्वरूप, शाह अब्दुल्ला को अब यह भी डर लगने लगा है कि उनके देश में पुनः फ़िलिस्तीनी शरणार्थी आने लगेंगे। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के साथ एक बातचीत में उन्होंने यही कहा।
लेबनान की भूमिकाः इसराइल और केवल 55 लाख की आबादी वाला उसका उत्तरी पड़ोसी लेबनान, आधिकारिक तौर पर आज भी दुश्मन हैं। दोनों के बीच राजनयिक (डिप्लोमैटिक) संबंध नहीं हैं। दोनों देश इस बात पर सहमत नहीं हो पाए हैं कि भूमध्य सागर में उनकी समुद्री सीमा कहां है। लेबनान ने अपने ऊपर से हो कर इसराइली विमानों की उड़ानों और अपने यहां लैंडिंग पर प्रतिबंध लगा रखा है। 1976 वाले 6-दिवसीय 'योम किपुर' युद्ध में वह शामिल नहीं था, लेकिन इस युद्ध के कारण कई लहरों में आए फिलिस्तीनी शरणार्थियों को उसने शरण दी है। इन शरणार्थियों के साथ उनके इसराइल-विरोधी आतंकवादी संगठन भी वहां आग में घी डालते रहते हैं।
1971 में, जॉर्डन से निष्कासित 'फतह' संगठन ने लेबनान में डेरा डाला। वह फ़िलस्तीनियों के लिए लड़ने वाले PLO की एक शाखा है। आज लाखों ऐसे फिलिस्तीनी लेबनान में रहते हैं, जिन्हें वहां अधिकांश नौकरियों और नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया है। उन्हें लेबनानी नागरिकता नहीं मिलती। वे अधिकतर जिन शरणार्थी शिविरों में रहते हैं, उनमें उनके विभिन्न संगठन अपने प्रभुत्व के लिए आपस में ही लड़ते-भिड़ते हैं।
लेबनान में खुशियां: इसराइल पर हमास के वर्तमान हमले के बाद से लेबनान के शरणार्थी शिविरों में खुशियां मनाई जा रही हैं। शिया संगठन हिज़बुल्ला, जिसने 1980 वाले दशक की शुरुआत में इज़राइल के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, अभी भी लेबनान को एक राज्य के भीतर एक राज्य की तरह नियंत्रित करता है। ईरानी सरकार-समर्थित यह मिलिशिया, इसराइल की राज्यसत्ता और उसके अस्तित्व को ठुकराती है, नियमित रूप से इज़राइली सेना पर हमले करती है और हमास के आक्रमणों तथा उसके अत्याचारों को "वीरतापूर्ण" कार्य बताती है।
हिज़्बुल्लाह और इज़राइल के बीच कई सैन्य झड़पें हो चुकी हैं, उदाहरण के लिए 2006 के लेबनान युद्ध में। इसराइल पर हमास के वर्तमान हमले के बाद से यह शिया मिलिशिया फिर से इसराइल पर रॉकेट और मोर्टार के गोले दाग रही है। इसराइल दक्षिणी लेबनान में हवाई हमलों और तोपों-टैंकों के साथ उत्तर दे रहा है। पर्यवेक्षकों को डर है कि इसराइल किसी दिन अपने आप को हमास, और उससे कहीं बेहतर सुसज्जित हिज़बुल्ला के साथ, एक ही समय दो मोर्चों पर संघर्ष करता पा सकता है।
सीरिया की गोलान ऊंचाइय़ां : लेबनान की तरह ही सीरिया का भी आधिकारिक तौर पर आज तक इसराइल के साथ केवल युद्धविराम समझौता है। 1981 में, इसराइल ने सीरिया की गोलान ऊंचाइयों का अपने भूभाग में विलय कर लिया था, जिस पर उसने 1967 वाले 6-दिवसीय युद्ध के बाद से कब्ज़ा कर रखा था। सीरिया में गृहयुद्ध शुरू होने तक गोलान ऊंचाइयां उसे लौटाने के बारे में बार-बार गुप्त वार्ताएं हुई थीं, लेकिन कुछ भी बदला नहीं है। ईरान द्वारा समर्थित लेबनानी हिज़बुल्ला संगठन, जो इसराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, 2013 से सीरिया के शासक बशर अल-असद के लिए लड़ रहा है। इज़राइल भी अपनी ओर से सीरिया और हिज़बुल्ला के विरोधियों को 2018 तक हथियार आदि देता रहा है।
2021 में इसराइयली वायुसेना ने सीरिया में ईरानी ठिकानों पर भी हमला किया था। साल की शुरुआत में वहां आए भीषण भूकंप के बाद ऐसी खबरें आई थीं कि इसराइल अपने इस पड़ोसी देश को मानवीय सहायता भेजना चाहता है। जब से इज़राइल ने हमास के वर्तमान हमले के खिलाफ अपना बचाव करना शुरू किया है, उसकी सेना सीरिया में कई ठिकानों पर हमले कर रही है। सीरिया के राष्ट्रपति असद और उनके समर्थक रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन, जिनकी सैन्य सहायता ने यह सुनिश्चित किया कि असद सत्ता में बने रहें, गाज़ा पट्टी पर हमलों को रोकने की गुहार लगा रहे हैं।
इसराइल की 21.1 प्रतिशत जनता अरबी हैः कहने की आवश्यकता नहीं कि केवल 22,380 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल और 93 लाख जनसंख्या वाले छोटे-से देश इसराइल के सभी पड़ोसी अरब देश, 1948 में उसके जन्म के पहले दिन से ही, उस पर हमले करते और उससे लड़ते रहे हैं, तब भी उसे कभी झुका नहीं पाए। इसराइल का अस्तित्व वे राजनीतिक वास्तविकता से अधिक धार्मिक दुर्भावना से प्रेरित होकर स्वीकार नहीं करना चाहते। फ़िलस्तिनियों के शुभचिंतक बनते हैं, पर उन्हें अपने यहां शरण और नागरिक अधिकार देने से कतराते हैं। वे इस तथ्य की भी अनदेखी कर देते हैं कि जिस इसराइल का अस्तित्व मिटा देने की उन्होंने क़सम खा रखी है, उसकी 21.1 प्रतिशत जनता अरबी (फ़िलस्तीनी) है। इस अरबी जनता की वृद्धिदर यहूदियों की अपेक्षा कहीं अधिक है।