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खास महत्व है अमेरिका से बढ़ती दोस्ती का

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संदीप तिवारी

अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते अब इतने मजबूत हो गए हैं कि हमारे रक्षामंत्री ने पिछले सप्ताह वॉशिंगटन में एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे निकट भविष्य में अमेरिकी सैनिक विमान हमारे सैन्य अड्डों से उड़ान भर सकेंगे। एक ऐसा भी समय था, जब हमारे राजनेताओं को अमेरिका से इतनी नफरत थी कि यदि कोई पत्रकार अपने लेख में अमेरिका की तरफदारी करता था, तो उस पर सीआईए का दलाल होने का आरोप लग जाता था। 
 
शीतयुद्ध के उस दौर में अमेरिका उन्हीं देशों के साथ दोस्ती करता था, जो युद्ध में उसके साथ सैन्य रिश्ता जोड़ने को तैयार रहते थे। भारत के राजनेता जहां इसके लिए तैयार नहीं थे वहीं पाकिस्तान के राजनेता जरूरत से ज्यादा उदार थे। तब पाक के सैन्य प्रमुख से राष्ट्रपति अयूब खान ने अमेरिकी जासूसी विमानों को पाकिस्तानी जमीन से उड़ान भरने की इजाजत दे दी थी।
 
तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता को भारत की विदेश नीति का आधार बना रखा था। सो 
भारत को उन्होंने तब तक अमेरिकी खेमे से बाहर रखा जब तक कि चीन ने हम पर आक्रमण नहीं कर दिया। उस युद्ध में भारतीय सैनिकों के पास जो हथियार थे, वे सौ साल पुराने थे, जबकि चीनी सैनिक अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे। चीन से युद्ध के दौरान नेहरू ने अमेरिका से सैन्य और आर्थिक सहायता मांगी लेकिन तब अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को लगा कि पंडित नेहरू को उनकी नीयत पर शक है। परिणामस्वरूप भारत, चीन के मुकाबले बुरी तरह हार गया।  
 
इससे कुछेक महीने पहले नेहरू जी,  इंदिरा गांधी के साथ अमेरिका के दौरे पर गए थे। वहां राष्ट्रपति कैनेडी ने उनकी खूब मेहमाननवाजी की और उन्होंने नेहरू जी को यह समझाने की कोशिश की, भारत को अमेरिका से दोस्ती दीर्घकालिक रूप से बहुत लाभदायक रहेगी, लेकिन नेहरूजी यह बात  समझने में विफल रहे। कैनेडी, भारत के साथ इस कारण से दोस्ती चाहते थे क्योंकि उनको विश्वास था कि भारत ही चीन जैसे ताकतवर देश का मुकाबला कर सकता है। 
 
उनका यह भी मानना था कि भारत चूंकि एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए उसके साथ अमेरिका की दोस्ती स्वाभाविक होनी चाहिए। भारत ने दोस्ती का वह मौका गंवाया और इसकी कीमत अपने जवानों के खून से चुकानी पड़ी। तब यदि हम अमेरिका के दोस्त होते, तो शायद चीन हमला करने का साहस न करता। यदि उसी समय अमेरिका के साथ हमारा रिश्ता मजबूत होता, तो एक दशक बाद बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए हुए युद्ध में अमेरिका, पाकिस्तान की बजाय हमारे साथ होता।
 
नेहरू जी ने विदेश नीति के मोर्चे पर गलतियां कीं क्योंकि उनके लिए विचारधारा देशहित से ज्यादा अहमियत रखती थी। इस मामले में ऐसे प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ दिन पहले कहा था कि उनकी विदेश नीति का मतलब है भारत का हित या ‘इंडिया फर्स्ट' यह अपने आप में बिल्कुल सही विचार है। इसलिए अब अगर अमेरिका से दोस्ती हो रही है, तो इससे यही समझा जाना चाहिए कि यह दोस्ती भारत के हित में है। इसकी हमें जरूरत है क्योंकि चीन और पाकिस्तान एक साथ हो गए हैं, और यह हमारे हित में नहीं है।
 
कूटनीति समय और काल के हिसाब से सत्ताधारियों की दशा-दिशा तय करती आई है। इस लिहाज से पिछले हफ्ते अस्तित्व में आया भारत-अमेरिका समझौता इसकी मिसाल है। अति आशावादी मान बैठे हैं कि अब भारत और अमेरिका मिलकर पाकिस्तान को आतंकवाद के खूनी पंजे से मुक्त करा लेंगे। इससे कश्मीर में शांति हो जाएगी और हमारे यहां दहशतगर्दी की वारदात थम जाएंगी। कुछ उत्साही टीवी चैनल ने यहां तक कह डाला कि इस संधि से चीन बौखला गया है।
 
यह संधि भारत और अमेरिकी कूटनीति में नए बदलाव का संकेत तो है, पर इससे मनचाहे अर्थ निकाल लेना अनुचित होगा। स्वतंत्र भारत के ‍शुरुआती दिनों में अमेरिका ने पाकिस्तान को हमारे मुकाबले अधिक तरजीह दी क्योंकि पंडित नेहरू गुटनिरपेक्ष नीति के वास्तुकार थे और वह भारत को अमेरिका अथवा सोवियत संघ के पाले में डालने से हिचकते थे। 
 
जब पाकिस्तान ने 1954 में अमेरिका से संधि करके अपनी नीयत जाहिर कर दी थी। इसीलिए 1965 और 1971 के युद्धों के दौरान भारत की मदद के लिए वाशिंगटन नहीं, बल्कि मॉस्को आगे आया था। 1971 की भारत-पाक जंग हमारे लिए एक तरफ जीत का उल्लास लेकर आई, तो दूसरी तरफ एक बुरी खबर भी थी। अमेरिका ने भारत को धमकाने के लिए अपना सातवां जंगी-बेड़ा हिंद महासागर के लिए रवाना कर दिया था। 
 
भारत और अमेरिका के नेताओं के मतभेद अखबारों की सुर्खियां तक बन चुके थे। निक्सन अपने तत्कालीन विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर से इंदिरा गांधी को ‘बूढ़ी जादूगरनी’ कहते थे। लेकिन उस दौर में श्रीमती गांधी ने काबिले तारीफ दृढ़ता और चतुराई दिखाई। उन्होंने सोवियत राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव के साथ संधि कर जता दिया था कि हमें आका नहीं, मित्र चाहिए। जबकि पाकिस्तान लगातार अमेरिका की गोद में बैठा रहा।
 
अमेरिकियों ने पाकिस्तान को न केवल लड़ाकू विमान, आर्थिक मदद और मोटी रकम मुहैया कराई लेकिन इसके साथ ही उसने पाक को 'तालिबान' और 'अल-कायदा' जैसे भस्मासुरों की भी सौगातें दीं। भारत ने तो अमेरिकी ‘लाल गेहूं’ की मदद पाकर ‘हरित क्रांति’ रच डाली, जबकि पाकिस्तान अमेरिकी टुकड़ों पर पलते हुए ऐसे अपंग मुल्क में तब्दील हो गया, जिसके पास गर्व करने लायक कुछ नहीं है। भारत के सामने दूसरा कठिन समय तब आया जब अपनी ही गलतियों के कारण सोवियत संघ के कई टुकड़े हो और भारत अपनी समयानुकूल नीतियों पर चलता रहा।
 
इसके बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कारोबार, धर्म और जमीन पर कब्जे को लेकर ऐसी लड़ाइयां करने वाले आतंकवादी संगठन खड़े हो गए। कि इन लड़ाइयों में कुछ देश टूट गए तो कुछ कंगाल हो गए। ऐसा समय भी आ गया जब अमेरिकी एकाधिकारवादी ताकतों की चूलें इन नई उपजी महामारियों ने हिला दीं। अमेरिकी जान गए हैं कि पाकिस्तान जैसे देश पर भरोसा करने का मतलब क्या होता है और सिर्फ पाक, चीन की गलबहियों से काम नहीं चलेगा। उसे अंतत: भारत जैसी शक्तियों को भी अपने साथ मिलाना होगा। नया समझौता इसी बदलाव की देन है। अब दोनों देश खुलेआम एक-दूसरे के हवाई अड्डों, तटों आदि का असैन्य इस्तेमाल कर सकेंगे। 
 
हालांकि, ऐसा पहले भी होता रहा है लेकिन इन बातों की कोई भी सरकार पुष्टि नहीं करती थीं। संकट के दौरान क्या भारतीय हवाई अड्डों पर अमेरिकी जहाजों की ईंधन भराई की खबरें सही नहीं हैं? इसी तरह के तालमेल का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि जिस ओसामा को पाकिस्तान ने शरण दे रखी थी, उसी को मरवाने के लिए रावलपिंडी में बैठे जनरलों ने अमेरिकी ‘सील’ लाने- ले जाने वाले विमानों की आवाजें भी अनसुनी कर दी थीं।
 
सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे लोगों की ऐसी करानामों के दर्जनों उदाहरण मिल जाएंगे। कहा जाता है कि जब कर्नल मुअम्मर गद्‍दाफी अपने अंतिम समय में जान बचाने के लिए खोहों, खाइयों और सुरंगों में मारा-मारा फिर रहा था तब पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने उसे चेतावनी दी थी कि आपकी जान को खतरा है, संभव हो तो कहीं सुरक्षित स्थान पर छिप जाएं। लेकिन गद्दाफी के अंतिम समय में जो परिवर्तन होना था, वही हुआ और उनके स्थान पर और अधिक क्रूर, हिंसक लोग आ गए।   

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