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बलूचिस्तान नहीं है पाकिस्तान का हिस्सा, जानिए पाक कब्जे की कहानी

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अनिरुद्ध जोशी

अनुमानित नक्षा
#balochistan कुछ संधियों के तहत कुछ रियासतें ऐसी थी जिन पर ब्रिटिश सम्राज्य का सीधा शासन नहीं था। ऐसी रियासतें अपने आंतरिक फैसले लेने के लिए स्वतंत्र थी। इन रियासतों को ये अधिकार था कि वे भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी भी देश के साथ विलय कर सकती है या फिर स्वयं को स्वतंत्र राष्‍ट्र घोषित कर सकते हैं। उनमें से एक बलूचिस्तान (कलात, खारान, लॉस बुरा और मकरान) की रियासतें भी थी। बलूचिस्तान ने स्वतंत्र रहने की इच्छा व्यक्त की।
 
 
11 अगस्त 1947 को मुस्लिम लीग और कलात के बीच एक साझा घोषणा पत्र कर हस्ताक्षर हुए। इस घोषणा में यह माना गया कि कलात एक भारतीय राज्य नहीं है और उसकी अपनी एक अलग पहचान है। मुस्लिम लीग कलात की स्वतंत्रता का सम्मान करती है।

4 अगस्त 1947 को लार्ड माउंटबेटन, मिस्टर जिन्ना, जो बलू‍चों के वकील थे, सभी ने एक कमीशन बैठाकर तस्लीम किया और 11 अगस्त को बलूचिस्तान की आजादी की घोषणा कर दी गई। वादे के मुताबिक उसे एक अलग राष्ट्र बनना था 1 अप्रैल 1948 को पाकिस्तानी सेना ने कलात पर अभियान चलाकर कलात के खान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया। बाद में 27 मार्च 1948 को पाकिस्तान ने संपूर्ण बलूचिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया। जानिए बलूचिस्तान के जबरन पाकिस्तानी कब्जे की कहानी...
 
 
बलूचिस्तान पर अंग्रेजों का कब्जा : दरअसल, बलूच राष्ट्रवादी आंदोलन 1666 में स्थापित मीर अहमद के कलात की खानत को अपना आधार मानता है। मीर नसीर खान के 1758 में अफगान की अधीनता कबूल करने के बाद कलात की सीमाएं पूरब में डेरा गाजी खान और पश्चिम में बंदर अब्बास तक फैल गईं। ईरान के नादिर शाह की मदद से कलात के खानों ने ब्रहुई आदिवासियों को एकत्रित किया और सत्ता पर काबिज हो गए।
 
 
‘प्रथम अफगान युद्ध (1839-42) के बाद अंग्रेंजों ने इस क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया। 1869 में अंग्रेजों ने कलात के खानों और बलूचिस्तान के सरदारों के बीच झगड़े की मध्यस्थता की। वर्ष 1876 में रॉबर्ट सैंडमेन को बलूचिस्तान का ब्रिटिश एजेंट नियुक्त किया गया और 1887 तक इसके ज्यादातर इलाके ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गए।
 
अंग्रेजों से बलूचिस्तान की आजादी का संघर्ष : अंग्रेजों ने बलूचिस्तान को 4 रियासतों में बांट दिया- कलात, मकरान, लस बेला और खारन। 20वीं सदी में बलूचों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इसके लिए 1941 में राष्ट्रवादी संगठन अंजुमान-ए-इत्तेहाद-ए-बलूचिस्तान का गठन हुआ। वर्ष 1944 में जनरल मनी ने बलूचिस्तान की स्वतंत्रता का स्पष्ट विचार रखा। इधर, आजम जान को कलात का खान घोषित किया गया। लेकिन आजम जान खान सरदारों से जा मिला। उसकी जगह नियुक्त उसका उत्तराधिकारी मीर अहमद यार खान अंजुमन के प्रति तो वह अपना समर्थन व्यक्त करता था, लेकिन वह अंग्रेजों से रिश्ते तोड़ कर बगावत के पक्ष में नहीं था। यही कारण था कि बाद में अंजुमन को कलात स्टेट नेशनल पार्टी में बदल दिया गया।
 
 
आजम जान खान ने इस पार्टी को 1939 में गैरकानूनी घोषित कर दिया। ऐसे में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया गया या उन्हें निर्वासन झेलना पड़ा। 1939 में अंग्रेजों की राजनीति के तहत बलूचों की मुस्लिम लीग पार्टी का जन्म हुआ, जो हिन्दुस्तान के मुस्लिम लीग से जा मिली। दूसरी ओर एक ओर नई पार्टी अंजुमन-ए-वतन का जन्म हुआ जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गई। अंजुमन के कांग्रेस के साथ इस जुड़ाव में खान अब्दुल गफ्फार खान की भूमिका अहम थी। मीर यार खान ने स्थानीय मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय मुस्लिम लीग दोनों को भारी वित्तीय मदद दी और मुहम्मद अली जिन्ना को कलात राज्य का कानूनी सलाहकार बना लिया।
 
 
जिन्ना की सलाह पर यार खान 4 अगस्त 1947 को राजी हो गया कि ‘कलात राज्य 5 अगस्त 1947 को आजाद हो जाएगा और उसकी 1938 की स्थिति बहाल हो जाएगी।’ उसी दिन पाकिस्तानी संघ से एक समझौते पर दस्तखत हुए। इसके अनुच्छेद 1 के मुताबिक ‘पाकिस्तान सरकार इस पर रजामंद है कि कलात स्वतंत्र राज्य है जिसका वजूद हिन्दुस्तान के दूसरे राज्यों से एकदम अलग है।’
 
लेकिन अनुच्छेद 4 में कहा गया कि ‘पाकिस्तान और कलात के बीच एक करार यह होगा कि पाकिस्तान कलात और अंग्रेजों के बीच 1839 से 1947 से हुए सभी करारों के प्रति प्रतिबद्ध होगा और इस तरह पाकिस्तान अंग्रेजी राज का कानूनी, संवैधानिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी होगा।’
 
 
अनुच्छेद 4 की इसी बात का फायदा उठाकर पाकिस्तान ने कलात के खान को 15 अगस्त 1947 को एक फरेबी और फंसाने वाली आजादी देकर 4 महीने के भीतर यह समझौता तोड़कर 27 मार्च 1948 को उस पर औपचारिक कब्जा कर लिया। पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के बचे 3 प्रांतों को भी जबरन पाकिस्तान में मिला लिया था।
 
भारत का विभाजन और बलूचिस्तान : मार्च 1947 में लॉर्ड माउंटबेटन, लॉर्ड वावल के स्थान पर वाइसराय नियुक्त हुए। 8 मई 1947 को वीपी मेनन ने सत्ता अंतरण के लिए एक योजना प्रस्तुत की जिसका अनुमोदन माउंटबेटन ने किया। कांग्रेस की ओर से जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और कृपलानी थे जबकि मुस्लिम लीग की ओर से मोहम्मद अली जिन्ना, लियाकत अली और अब्दुल निश्तार थे जिन्होंने विचार-विमर्श करने के बाद इस योजना को स्वीकार किया। प्रधानमंत्री एटली ने इस योजना की घोषणा हाउस ऑफ कामंस में 3 जून 1947 को की थी इसीलिए इस योजना को 3 जून की योजना भी कहा जाता है। इसी दिन माउंटबेटन ने विभाजन की अपनी घोषणा प्रकाशित की।
 
 
इस योजना के अनुसार पंजाब और बंगाल की प्रांतीय विधानसभाओं के वे सदस्य, जो मुस्लिम बहुमत वाले जिलों का प्रतिनिधित्व करते थे, अलग एकत्र होकर और गैरमुस्लिम बहुमत वाले सदस्य अलग एकत्र होकर अपना मत देकर यह तय करेंगे कि प्रांत का विभाजन किया जाए या नहीं, दोनों भागों में विनिश्‍चित सादे बहुमत से होगा। प्रत्येक भाग यह भी तय करेगा कि उसे भारत में रहना है या पाकिस्तान में? पश्‍चिमोत्तर सीमा प्रांत में और असम के सिलहट जिले में जहां मुस्लिम बहुमत है वहां जनमत संग्रह की बात कही गई। दूसरी ओर इसमें सिन्ध और बलूचिस्तान को भी स्वतं‍त्र निर्णय लेने के अधिकार दिए गए। बलूचिस्तान के लिए निर्णय का अधिकार क्वेटा की नगरपालिका को दिया गया।
 
 
(उल्लेखनीय है कि भारत में राजर्षि टंडन ने धर्म आधारित विभाजन और 3 जून की योजना के खिलाफ आवाज उठाई थी, लेकिन उनकी आवाज नेहरू और जिन्ना की आवाज के आगे कुछ नहीं थी। गांधीजी ने मौन व्रत धारण कर लिया था। पंजाब और बंगाल के हिन्दू नहीं चाहते थे कि प्रांत का बंटवारा धर्म के आधार पर हो, लेकिन कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के आगे घुटने टेक दिए थे। मुस्लिम लीग किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। वह तो ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान बनाना चाहती थी। ...संभवत: नेहरू ने यह सोचा हो या आशा की हो कि इस तरह के बंटवारे से पाकिस्तान से सांप्रदायिक समस्या का हल हो जाएगा और दोनों देश शांतिपूर्वक रहेंगे।)
 
 
उस वक्त भारत, अफगानिस्तान और ईरान के हवाले से बलूचिस्तान के लिए यह बहस की गई थी कि आप भारत के साथ रहना चाहेंगे, ईरान के साथ रहना चाहेंगे, अफगानिस्तान के साथ रहना चाहेंगे या कि आजाद रहना चाहेंगे। उस दौरान पाकिस्तान के साथ विलय के लिए किसी भी प्रकार का करार पास नहीं हुआ था। तब यह समझाया गया था कि इस्लाम के नाम से बलूच पाकिस्तान के साथ विलय कर लें। लेकिन तब बलूचों ने यह यह मसला उठाया कि अफगानिस्तान और ईरान भी तो इस्लामिक मुल्क है तो उनके साथ क्यों नहीं विलय किया जाए? हम पाकिस्तान के साथ ही क्यों रहें, जबकि उनकी और हमारी भाषा, पहनावा और संस्कृति उनसे जुदा है।
 
 
बलूचिस्तान का पाकिस्तान में जबरन विलय : अंत में यह निर्णय हुआ कि बलूच एक आजाद मुल्क बनेगा। कलात के खान ने बलूची जनमानस की नुमाइंदगी करते हुए बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करने से साफ इंकार कर दिया था। यह पाकिस्तान के लिए असहनीय स्थिति थी। अंतत: पाकिस्तान ने सैनिक कार्रवाई कर जबरन बलूचिस्तान का विलय कर लिया। यह आमतौर से माना जाता है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने अंतिम स्वाधीन बलूच शासक मीर अहमद यार खान को पाकिस्तान में शामिल होने के समझौते पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया था।
 
 
4 अगस्त 1947 को लार्ड माउंटबेटन, मिस्टर जिन्ना, जो बलू‍चों के वकील थे, सभी ने एक कमीशन बैठाकर तस्लीम किया और 11 अगस्त को बलूचिस्तान की आजादी की घोषणा कर दी गई। विभाजन से पूर्व भारत के 9 प्रांत और 600 रियासतों में बलूचिस्तान भी शामिल था। हालांकि इस घोषणा के बाद भी माउंटबेटन और पाकिस्तानी नेताओं ने 1948 में बलूचिस्तान के निजाम अली खान पर दबाव डालकर इस रियासत का पाकिस्तान में जबरन विलय कर दिया। अली खान ने बलोच संसद से अनुमति नहीं ली थी और दस्तावेजों पर दस्तखत कर दिए थे। बलूच इस निर्णय को अवैधानिक मानते हैं, तभी से राष्ट्रवादी बलोच पाकिस्तान की गुलामी से मुक्त होने के लिए संघर्ष छेड़े हुए हैं।
 
 
14 और 15 अगस्त 1947 में भारत नहीं बल्कि एक ऐसा क्षेत्र आजाद हुआ जिसे बाद में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान कहा गया। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के पहले बलूचिस्तान 11 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था। हिन्दुस्तान की आजादी से 3 दिन पहले ही बलूचिस्तान को आजाद कर दिया था। यह बात सभी जानते थे। 14 अगस्त को पाकिस्तान बना और 15 अगस्त को हिन्दुस्तान आजाद हुआ।
 

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