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10 वर्षों में इंदौर की आबादी घटी

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अपना इंदौर

इंदौर नगर प्रारंभ में स्वच्छता, सड़कों व नालियों के अभाव में एक बदनाम शहर बन गया था। यहां की गंदगी, सड़कों पर बहता पानी व गलियों का कीचड़ बीमारियों के घर थे। 1866-67 तक भी नगर में यही हालात मौजूद थे।
 
ऐसे अस्वस्थ वातावरण में महामारियों का फैलना स्वाभाविक था। नगर में हैजे का पहला रोगी 6 मार्च 1870 को पाया था। इसके बाद यह रोग तेजी से नगर में व आसपास के देहाती क्षेत्रों में फैला। इसके बाद 9 अगस्त 1881 को पुन: इस रोग की पहली घटना घटी। नगर में 109 व्यक्ति इस रोग का शिकार हुए जिनमें से 52 की मृत्यु हो गई। राज्य की ओर से नगर के 3 अलग-अलग क्षेत्रों में शिविर स्थापित किए गए। इन शिविरों में रोगियों की देखभाल के लिए इंदौर मेडिकल स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण व्यक्तियों को नियुक्त किया गया।
 
1903 में इंदौर नगर 2 मर्तबा महामारी का शिकार हुआ। पहला प्रकोप 15 फरवरी से 29 मई तक और दूसरा अगस्त में हुआ। पहली बार यह रतलाम से और दूसरी बार महू व रेसीडेंसी क्षेत्र से फैला था। फरवरी में इस रोग के फैलते ही राजकीय सर्जन ने इसे रोकने के सुझावों सहित एक योजना कौंसिल के समक्ष रखी जिसे अविलंब स्वीकार किया गया। राय साहब बलवंतराव पांडूरंग, राव साहब जी.एन. पारूलकर व डॉ. तांबे की एक समिति सुझाए गए उपायों को लागू करने हेतु बनाई गई। लेकिन नागरिकों ने अपने-अपने आवास छोड़कर समिति को सहयोग नहीं दिया।
 
नगर में रोगियों के निदान हेतु एक महामारी चिकित्सालय खोला गया। बंबई से विशेषज्ञ को बुलाया गया तथा राजकीय सर्जन एवं डॉ. देव के सहयोग से एक महामारी विरोधी अभियान चलाया गया। इस कार्य में चिकित्सा विभाग को जब कोई सफलता न मिली तो यह कार्य नवंबर 1903 में पूरी तरह से नगर पालिका अध्यक्ष को सौंप दिया गया। नगर पालिका भी जब कोई प्रभावी कार्य नहीं कर पाई तब यह कार्य होलकर सेना के हवाले किया गया। कैप्टन माधव प्रसाद को इसका विशेष अधिकारी बनाया गया। उन्होंने सैनिकों के सहयोग से कुछ सफलता अर्जित की।
 
सेना के इस सराहनीय कार्य के लिए राज्य की ओर से सैनिकों को विशेष आर्थिक अनुदान देकर पुरस्कृत किया गया। नगर से काफी दूर 30,000/- के टेंट खरीदकर एक अस्थायी बस्ती ही बना दी गई। राज्य ने एक मंत्री के अधीन स्वतंत्र महामारी विरोधी विभाग की स्थापना करके उसके सचिव के रूप में मेजर रामप्रसाद दुबे को नियुक्त किया।
 
इन सब प्रयासों के बावजूद पर्याप्त चिकित्सा व्यवस्था का अभाव, नागरिकों की अशिक्षा व असहयोग, रोग के लक्षणों के प्रति उपेक्षा तथा पर्याप्त सफाई के अभाव में नगर में 1903 से 11 के मध्य 9 बार महामारी फैली। 1903 व 1906 में दो बार इसका प्रकोप हुआ। 1904, 8, 9, 10 व 11 में प्रतिवर्ष महामारी ने नगर में तांडव किया। इस रोग के फैलने की खबर वर्तमान कर्फ्यू के समाचार से भी ज्यादा खतरनाक खबर होती थी, क्योंकि सूचना मिलते ही शहर में भगदड़-सी मच जाती थी। लोग अपने नगरीय आवास छोड़कर ग्रामीण क्षेत्रों में भाग जाया करते थे। इस रोग से ऐसा आतंक फैलता था कि नगर के दफ्तर, कारखाने, स्कूल व महाविद्यालय सभी बंद हो जाया करते थे। व्यापार-व्यवसाय ठप हो जाता था। कार्यालयों में अवकाश घोषित करने पड़ते थे। 1903 से 1911 के मध्य इस बीमारी ने 22,500 लोगों को अपना कलेवा बनाया था।
 
तब इंदौर का क्षेत्रफल मात्र 8 वर्गमील था
 
इंदौर नगर की आबादी प्रारंभिक अवस्था में जूनी इंदौर व उसके आसपास तक केंद्रित थी। 1818 ई. के बाद जब राजबाड़ा बना तो उसके चारों ओर बाजार व आवासीय बस्तियों का विस्तार हुआ। कृष्णपुरा नदी के पूर्वी भाग में आबादी का विस्तार काफी बाद में हुआ। राजबाड़ा प्रशासनिक गतिविधियों का तो केंद्र था ही, धीरे-धीरे व्यावसायिक केंद्र भी बनता गया (जो आज तक नगर का इतना विस्तार होने के बाद भी यथावत है)। इस क्षेत्र से आबादी का दबाव घटाने के लिए 1903 में प्रयास प्रारंभ किए गए। उस वर्ष 440 मकानों को यहां से हटाया गया। राज्य ने इनके स्वामियों को क्षति-पूर्ति के रूप 1,14,285 रु. दिए और अन्यत्र विकसित भूखण्ड भी प्रदान किए, जहां वे अपने आवास-गृह बना सकें। नगर में क्षेत्र विशेष पर आबादी के दबाव से अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गई थीं। महाराजा चाहते थे कि नगर का विस्तार व विकास सुनियोजित तरीके से हो। अत: उन्होंने नगर विकास योजना विशेषज्ञ श्री एच.व्ही. लेनचेस्टर को आमंत्रित कर इंदौर नगर के भावी विकास के अध्ययन का कार्य सौंपा।
 
नयापुरा पहले मानिकबाग पैलेस के समीप एक बस्ती थी जिसे वहां से हटाकर वर्तमान स्थान पर बसाया गया। राजबाड़े को मच्छी बाजार से जोड़ने वाली सड़क का निर्माण 1914 में हुआ जिससे यातायात काफी सुगम हो गया।
 
इंदौर नगर के विकास की भावी संभावनाओं के प्रति होलकर महाराजा बहुत आशान्वित थे। उन्होंने विकास की संभावनाओं को तलाशने के लिए प्रसिद्ध नगर योजना विशेषज्ञ पेट्रिक गिडीस की सेवाएं प्राप्त कीं। श्री गिडीस ने नगर विकास की संपूर्ण संभावनाओं का विशद् अध्ययन किया और अपनी रिपोर्ट होलकर दरबार को प्रेषित की। यह रिपोर्ट 1918 में 2 जिल्दों में प्रकाशित की गई (ये दोनों जिल्दें नईदुनिया ग्रंथालय में सुरक्षित हैं)।
 
इंदौर नगर के औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार को दर्शाते हुए गिडीस महोदय ने लिखा- 'इंदौर जो एक विकासशील नगर है, अपनी प्रारंभिक विकासवादी अवस्था में औद्यो‍गीकरण से उत्पन्न बुराइयों से सुनियोजित औद्योगिक योजना द्वारा बच सकता है। जूने मिल की स्थापना के समय इसी सिद्धांत को ध्यान में रखा गया था जिससे अभी भी कोई हानि नहीं है। नवीन औद्योगिक बस्ती के लिए नगर का उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र तथा रेलवे एवं न्यू देवास रोड के मध्य का क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है।
 
1920 के चुनावों के बाद इंदौर नगर को 10 वार्डों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक वार्ड में कुछ मोहल्ले, गंज, बाजार व पुरे थे। इन उप-विभागों का नामकरण स्थानीय प्रसिद्ध व्यक्ति, जाति या व्यवसाय के आधार पर किया गया। उदाहरणार्थ मल्हारगंज (होलकर राज्य के संस्थापक सूबेराव मल्हारराव होलकर), तुकोगंज (महाराजा तुकोजीराव), नंदलालपुरा (श्री नंदलाल मंडलोई), छत्रीपुरा, सिक्‍ख मोहल्ला, लोधीपुरा, बोहरा बाजार, सराफा, कागदीपुरा, बजाजखाना, दलिया बाखल, मुराई मोहल्ला, काछी मोहल्ला, पारसी मोहल्ला, राज मोहल्ला, खजूरी बाजार आदि इस प्रकार के अनेक उप-विभाजन थे। कुछ स्थान सेना या सैनिकों के कारण जाने जाते थे, जैसे जिन्सी, चौथी पल्टन, अर्जुन पल्टन केव्हलरी, छावनी, मोती तबेला, एम.ओ.जी. लाइंस, डी.आर.पी, सी.आर.पी लाइंस इत्यादि। राजपरिवार की महारानियों व राजकन्याओं के नाम पर भी नई बस्तियों के नाम रखे गए थे, जैसे स्नेहलतागंज, उषागंज, मनोरमागंज, रानीपुरा इत्यादि।
 
नगरवासी नगर छोड़ने को तैयार न थे
 
इंदौर नगर के प्रारंभिक विस्तार के साथ, उसके विकास की सुनियोजित योजना नहीं बनाई जा सकी थी और न ही नगर की स्वच्छता, जल-मल निकास की भावी संभावनाओं पर विचार किया गया था। 1902 से 11 के मध्य प्रतिवर्ष नगर में महामारी का प्रकोप फैलता रहा जिसके परिणामस्वरूप इन 10 वर्षों में 22,528 व्यक्ति इस रोग की चपेट में आकर काल-कवलित हो गए। इस महामारी के प्रतिवर्ष फैलने का प्रमुख कारण नगर में साफ-सफाई व्यवस्था का दोषपूर्ण होना था।
 
इंदौर नगर में स्वच्छता व्यवस्था को उन्नत बनाने तथा स्वास्थ्यकर वातावरण निर्मित करने के लिए नगर के तमाम बुद्धिजीवी चिकित्सक व दरबार चिंतित था। विचार-विमर्श के बाद 1910 ई. में इंदौर नगर पालिका द्वारा एक स्वास्थ्य समिति का गठन किया गया। इस समिति में चिकित्सा का लंबा अनुभव रखने वाले रेसीडेंसी सर्जन कर्नल रॉबर्ट, रायबहादुर पीताम्बर दास, नगर पालिका अधिकारी तथा होलकर राज्य के सर्जन डॉ. ताम्बे आदि को सम्मिलित किया गया। समिति की अनुशंसा पर सार्वजनिक शौचालयों एवं कचरा पेटियों की संख्या में वृद्धि की गई। नए मोहल्लों तक सफाई सुविधाएं पहुंचाई गईं। 1910 से ही इंदौर नगर में गंदगी एकत्रित करने के लिए पाड़ा-गाड़ियों का उपयोग किया जाने लगा।
 
इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह महत्वपूर्ण अनुशंसा भी की कि महामारी जैसे संक्रामक रोग की रोकथाम के लिए ना‍गरिकों का भी पर्याप्त सहयोग लिया जाना चाहिए। नागरिकों से अपील की जाए कि नगर के किसी भी स्थान पर रोग की घटना यदि घटित हो तो तत्काल उसकी सूचना संबंधित विभाग को पहुंचाएं। महामारी फैलने पर नागरिकों के आवास-गृह अनिवार्य रूप से खाली करवा लेने की अनुशंसा भी इस समिति ने की थी। नगर में जब भी महामारी का प्रकोप होता था तो सक्षम व्यक्ति चाहे वे व्यापारी थे या कर्मचारी, स्वयं ही नगर छोड़कर अन्यत्र चले जाया करते थे। किंतु सभी मकानोगखाली करवा लेने की खबर फैली तो नगर में हंगामा उठा खड़ा हुआ। इस रिपोर्ट में निहित तथ्यों को कानूनी स्वरूप प्रदान करने के पूर्व होलकर दरबार कौंसिल ने नगर में निवास करने वाले विभिन्न समुदाय के लोगों के विचार इस समस्या पर जानने के प्रयास किए। अधिकांश नागरिकों द्वारा प्रस्तावित कानून का विरोध किए जाने से उसे कानून का सही रूप नहीं दिया जा सका और महाराजा की ओर से घोषणा की गई कि नगर की वर्तमान व्यवस्था में फिलहाल कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

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