छत्रपति शिवाजी महाराज ने 26 अप्रैल 1645 में हिन्दवी स्वराज स्थापित करने की शपथ ली थी। उन्होंने 12 मावल प्रांतों से कान्होजी जेधे, बाजी पासलकर, तानाजी मालुसरे, सूर्याजी मालुसरे, येसाजी कंक, सूर्याजी काकडे, बापूजी मुदगल, नरसप्रभू गुप्ते, सोनोपंत डबीर जैसे लोगों को एकजुट किया, जो भोरके पहाड़ों से परिचित थे। इन सिंह समान महापराक्रमी मावलों में से एक थे तानाजी मालुसरे।
तानाजी या ताण्हाजी मालुसरे छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर सेनापति और मराठा सरदार थे। उनकी वीरता के कारण शिवाजी उन्हें 'सिंह' कहा करते थे। तानाजी मालुसरे सातारा में 1600 ईस्वी में जन्मे थे। उनकी माता का नाम पार्वतीबाई और पिता का नाम सरदार कोलाजी था। उनके भाई का नाम सरदार सूर्याजी था।
जब शिवाजी कोढाणा किले को जीतने निकले थे, तब तानाजी अपने पुत्र के विवाह में व्यस्त थे। चारों ओर उत्सव का वातावरण था। तभी उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज का संदेश मिला कि माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोढाणा दुर्ग पर मुगलों के हरे झंडे को हटाकर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी। तुम्हें सेना लेकर इसी समय इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है।
यह संदेश पाकर तानाजी ने कहा कि विवाह के बाजे बजाना बंद करो और युद्ध के बाजे बजाओ। सभी ने तानाजी से कहा कि पहले पुत्र का विवाह तो हो जाने दो फिर आज्ञा का पालन कर लेना। लेकिन तानाजी ने ऊंची आवाज में कहा, 'नहीं, पहले कोढाणा दुर्ग का विवाह होगा, बाद में पुत्र का विवाह। यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूंगा। यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे।'
इसके बाद सेना लेकर वीर तानाजी शिवाजी से मिलने पहुंचे। उनके साथ उनके भाई और 80 वर्षीय शेलार मामा भी थे। वहां पहुंचकर शिवाजी महाराज ने उनका स्वागत किया और दोनों में परामर्श होने के बाद फिर वे सेना लेकर दुर्गम कोढाणा दुर्ग के लिए निकल पड़े। तानाजी के नेतृत्व में मराठा सेना ने रात में आक्रमण कर दिया।
दुर्ग के लिए भीषण युद्ध हुआ। कोढाणा का दुर्गपाल उदयभानु राठौड़ था, जो कि मुगल सेनापति जयसिंह के आदेश पर किले की रक्षा कर रहा था। उसके साथ लड़ते हुए तानाजी महाराज वीरगति को प्राप्त हुए। थोड़ी ही देर में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया। सूर्योदय होते-होते कोढाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहरा दिया गया। 1670 ई. में कोढाणा किले (सिंहगढ़) को जीतने में तानाजी ने वीरगति प्राप्त की थी।
शिवाजी को जब यह समाचार मिला तो उन्हें दु:ख के साथ प्रसन्नता भी हुई। शिवाजी महाराज को तब बड़ा दु:ख हुआ, जब उन्हें यह पता चला कि तानाजी उनके आदेश का पालन करने के लिए अपने पुत्र का विवाह छोड़कर आए थे। तब उनके मुख से निकल पड़ा- 'गढ़ आला पण सिंह गेला' अर्थात 'गढ़ तो हाथ में आया, परंतु मेरा सिंह (तानाजी) चला गया।' उसी दिन से कोढाणा दुर्ग का नाम 'सिंहगढ़' हो गया।
यह किला लगभग 4,304 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। तानाजी ऊपर पहुंचने के लिए लगभग 2,300 फुट चढ़े होंगे। तानाजी 342 सैनिकों के साथ अंधेरी रात में चढ़े और जाकर अंदर से किले का दरवाजा खोल दिया, जहां अंधेरे में ही उनके भाई सूर्याजी 500 अन्य सैनिकों के साथ आकर इंतजार कर रहे थे। दोनों का लगभग 5,000 मुगल सैनिकों के साथ भयंकर युद्ध हुआ था।
युद्ध करते समय जब उनकी ढाल टूट गई तब उन्होंने अपने सिर के फेटे को अपने हाथ पर बांधा और तलवार के वार वे अपने हाथों पर झेलने के लिए मजबूर हो गए। युद्ध के दौरान तानाजी अपने सैनिकों की हिम्मत बढ़ाने के लिए जोर-जोर से गाना गाने लगे। उनकी वीरता को देखकर सैनिकों में जोश भर गया और उन्होंने 5,000 मुगल सैनिकों को धूल चटा दी। तानाजी महाराज की वीरता और उनके बलिदान को कभी नहीं भूला जा सकता है।