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प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी केएस कृष्णन

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* ऐसे स्थापित हुए नापतौल के वैज्ञानिक मानक 
 
(4 दिसंबर 1898-14 जून 1961)
 
• नवनीत कुमार गुप्ता
 
नई दिल्ली। वैज्ञानिक खोजों और उनसे जुड़े सिद्धांतों के पीछे वर्षों की मेहनत और कई व्यक्तियों का योगदान होता है। प्रसिद्ध भारतीय भौतिक विज्ञानी सर सीवी रमन द्वारा खोजे गए 'रमन प्रभाव' के मामले में भी यही बात लागू होती है। इस सिद्धांत के लिए रमन को विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहला एशियाई होने का गौरव प्राप्त है।
 
कम लोग ही जानते हैं कि इस सिद्धांत का प्रतिपादन करने में प्रख्यात भौतिक विज्ञानी करियामानिक्कम श्रीनिवासकृष्णन का अहम योगदान रहा है। विज्ञान जगत में केएस कृष्णन के नाम से विख्यात इस महान भारतीय वैज्ञानिक का जन्म 4 दिसंबर 1898 में तमिलनाडु के एक छोटे से कस्बे वातरप में हुआ था। 
 
स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में जब भारत विज्ञान आधारित विकास के प्रति वचनबद्ध था तो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक संस्थाओं के अगुआ के रूप में बहुमुखी प्रतिभा वाले कृष्णन एक स्वाभाविक विकल्प के तौर पर देखे जा रहे थे। 1947 में जब राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला यानी एनपीएल की नींव रखी गई, तो कृष्णन को इसके पहले निदेशक का पदभार ग्रहण करने दिल्ली आमंत्रित किया गया। 
 
राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला की रूपरेखा तैयार करने का काम चुनौतीपूर्ण था। अपने अनुकरणीय जुनून के चलते कृष्णन ने इमारत के निर्माण से लेकर वैज्ञानिक आधारभूत संरचना की स्थापना और वैज्ञानिक मानव शक्ति के निर्माण में खुद को डुबो दिया।
 
राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के उद्देश्यों में ऐसे मापदंडों का विकास करना शामिल था, जो सटीक नापतौल में अंतरराष्ट्रीय मानकों से मेल खाते हों। कृष्णन ने नापतौल के ऐसे राष्ट्रीय मानक स्थापित किए, जो विभिन्न भारतीय नापतौल इकाई के समकक्ष थे, जैसे वजन के लिए 1 किलो, लंबाई नापने के लिए 1 मीटर, समय को जांचने के लिए सेकंड और बिजली के वोल्टेज व रोधक को मापने के लिए 1 एम्पीयर और तापमान को मापने के लिए एक केंडेला (प्रकाश की तेजी को मापने की एक इकाई केंडेला कहलाती है)। 
 
नापतौल के इन मानकों को राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला ने अभी भी बनाए रखा है। इनमें से बहुत से मानक, जो कृष्णन के समय में निर्धारित किए गए थे, उनका स्थान नए यंत्रों ने ले लिया है। लेकिन वास्तविक नमूनों का श्रेय कृष्णन और राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला की टीम को दिया जाता है।
 
कुछ लोग मानते हैं कि रमन को नोबेल पुरस्कार कृष्णन के साथ मिलना चाहिए था। केएस कृष्णन के कार्यों की सराहना करते हुए स्वयं सर सीवी रमन ने एक बार लिखा था- 'वर्ष 1930 का भौतिकी का नोबेल 1921 से कलकत्ता में प्रकाश के प्रकीर्णन पर किए गए कार्यों पर न देकर केवल वर्ष 1928 के कार्यों पर दिया जाता तो कृष्णन को पुरस्कार में जरूर हिस्सा प्राप्त होता।' हालांकि कृष्णन स्वयं यही कहते हैं कि रमन उनके साथ निष्पक्ष रहे हैं।
 
कृष्णन ने कुछ विशेष धातुओं में ठोसों की भौतिकी यानी उनके अणुओं में सूक्ष्म व्यवस्था का अध्ययन किया। यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य था, क्योंकि यह सीधा ट्रांजिस्टर और अर्द्धचालकों पर लागू होता है जिन्हें कम्प्यूटर और पेसमेकर से लेकर एम्प्लीफायर और विद्युत ट्रांसमीटर जैसे लगभग हर आधुनिक उपकरणों में प्रयोग किया जाता है।
 
रमन प्रभाव से कृष्णन के जुड़ाव की कहानी वर्ष 1923 से आरंभ होती है, जब कृष्णन इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंसेज में रमन के शोध समूह में शामिल हो गए। रमन ने वर्ष 1920 में कई परीक्षण किए और विभिन्न पदार्थों से प्रकाश के गुजरने के परिणामों का अध्ययन किया। उधर, कृष्णन वर्ष 1922 तक इस क्षेत्र से संबंधित अपनी कुछ खोजों का प्रकाशन करा चुके थे जिसमें उन्होंने बताया था कि ऊर्जा किस प्रकार तरल अणुओं और प्रकाश की मात्रा के बीच स्थानांतरित होती है।
 
कृष्णन ने 27 फरवरी 1928 को शुद्ध ग्लीसरीन में एक धुंधला मगर निश्चित हरा प्रकाश देखा और उसे दर्ज किया। रमन ने इसका अध्ययन शुरू कर दिया। वे यह दिखाने में कामयाब हुए कि विकिर्णीत प्रकाश का कुछ हिस्सा एक अलग रंग का है जिसे पर्यवेक्षक और नमूने के बीच रखे हरे फिल्टर के द्वारा पृथक किया जा सकता है।
 
वे समझ चुके थे कि यह वास्तव में एक 'नई उपविकिरण है' जिसकी तरंगदैर्ध्य मूल प्रकाश से अलग है। सरल भाषा में समझें तो जब एक उच्च ऊर्जा वाला फोटॉन अपने लक्ष्य से टकराता है तो वह बाहरी शिथिल बंधे इलेक्ट्रॉन को छोड़ देता है। इस कारण छितराई हुई (विकिर्णीत) विकिरणों की तरंगदैर्ध्यता में परिवर्तन आता है। रमन यह समझ गए कि वे उसी प्रभाव का प्रकाशीय अनुरूप देख रहे हैं।
 
एसोसिएटेड प्रेस में अगले ही दिन 29 फरवरी (वह साल अधिवर्ष था) को इस अभूतपूर्व खोज की खबर आ चुकी थी। इस खोज का महत्व इसलिए भी था, क्योंकि यह प्रकाश के क्वांटम प्रक्रिया के सभी नए सिद्धांतों का समर्थन करती थी। अगले माह 8 मार्च तक रमन ने 'नेचर' पत्रिका को नोट लिखकर पूर्ण स्पष्टीकरण एवं व्याख्या के साथ अपनी खोज की घोषणा की। इसे 'रमन प्रभाव' के नाम से जाना गया। कृष्णन का इन सब में काफी योगदान रहा।
 
उस समय लिखे गए रमन के 12 शोधपत्रों व लेखों में से 9 के सहलेखक कृष्णन थे। कृष्णन रमन के साथ बिताए उन 5 वर्षों को 'अपने वैज्ञानिक जीवन का उत्सव' मानते रहे। उन्होंने देश में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए औद्योगिक भौतिकी समूह का गठन किया। इस समूह को उद्योगों और सामाजिक अनुप्रयोगों के लिए देशी तरीकों से कच्चा माल बनाने के लिए अध्यादेश दिया गया। राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला में कार्बन पर शुरुआती अनुसंधान कार्बन आर्क लैंप या कार्बन चाप दीप बनाने का था जिनका उपयोग फिल्म उत्पाद में होता था। 
 
कार्बन का अनुप्रयोग टॉर्च की बैटरी से लेकर अंतरिक्ष यान बनाने तक होता था। ऐसी बहुत-सी जानकारियां उद्योगों को दी गईं। राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला का एक और रोचक आविष्कार था, अमिट स्याही की तकनीक का विकास, जो कि चुनावों के दौरान बड़े पैमाने पर प्रासंगिक है।
 
कृष्णन के वैज्ञानिक सफर में अगला कदम था ढाका विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में शामिल होना। उस समय इस विभाग की सारी जिम्मेदारी एक अन्य महान भारतीय वैज्ञानिक एसएन बोस पर थी। कृष्णन ने यहां अपना ध्यान क्रिस्टल्स के अपने ढांचे के संबंध में चुंबकीय विशेषताओं में अनुसंधान पर केंद्रित किया। विभिन्न क्रिस्टल्स के चुंबकीय एनिस्ट्रोपी को मापना कृष्णन के अनुसंधान का उद्देश्य था। चुंबकीय एनिस्ट्रोपी का मतलब है कि किसी वस्तु के चुंबकीय विशेषताओं या गुणों की दिशा-निर्भरता। आज की अत्याधुनिक मशीनों के कारण इस प्रकार का माप लेना आसान लगता है। लेकिन 1920 में कृष्णन को यह तकनीक बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी। उन्होंने इसे जटिल टार्क विधि प्रक्रिया का नाम दिया।
 
वर्ष 1933 में कृष्णन कोलकाता वापस आए और ‘साइंसेज’ में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर का पद स्वीकार किया। यहां पर पढ़ाते हुए उन्होंने ढांचों के संबंध में क्रिस्टल के चुंबकीय गुणों के अपना शोध जारी रखा। इस कार्य और 'रमन प्रभाव' में अपने योगदान के लिए कृष्णन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली।
 
वर्ष 1937 में उन्हें लॉर्ड रदरफोर्ड ने कैम्ब्रिज की कैवेंडिश प्रयोगशाला और सर विलियम लॉरेंस ब्रॉग ने लंदन के रॉयल संस्थान में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। वर्ष 1942 में 42 साल की आयु में उन्हें लंदन की रॉयल सोसायटी का सदस्य फैलो चुना गया। कृष्णन केवल एक महान वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि एक बेहद अच्छे शिक्षक भी थे। कृष्णन हमेशा अपने छात्रों से कहते थे कि 'भौतिकी का मतलब है तथ्यों को जानना।' वे हमेशा अपने छात्रों के साथ किरणों का विकीर्णन, एक्स किरणें, इलेक्ट्रॉन, सांख्यिकीय ऊष्मा गतिकी से लेकर क्वांटम सिद्धांतों और तरंग बल विज्ञान जैसे विभिन्न विषयों पर प्रयोग करते रहते थे। 
 
महान गणितज्ञ रामानुजम उनकी प्रेरणा थे। ऐसे प्रायोगिक भौतिक विज्ञानी का मिलना बहुत ही दुर्लभ होता है जिसकी गणित और सिद्धांतों पर इतनी गहरी पकड़ हो। कृष्णन ने अनेक भारतीय संस्थाओं- जैसे भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में योगदान दिया। उनका जीवन और उनके कार्य भारत की नई पीढ़ी और वैज्ञानिकों को आज भी प्रेरणा देती है। (इंडिया साइंस वायर)

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