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रेडियो की दुनिया : आवाज़ और अंदाज में आत्मीयता बनी रहे

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नवीन रांगियाल

, शनिवार, 15 अप्रैल 2023 (16:16 IST)
इंदौर। जहां तक आवाज और अंदाज की बात है तो यह किसी भी व्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। हमारे पूरे व्यक्तित्व में जो सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो आवाज और अंदाज है। इसे बदला जा सकता है। अब इसलिए वॉइस कल्चर का चलन शुरू हो गया है। वॉइस कल्चर को वाणी विन्यास भी कहना अच्छा रहेगा। वॉइस कल्चर की ट्रेनिंग दी जाना चाहिए।  यह बात आवाज़ की दुनिया के हरीश भिमानी ने 'भारतीय पत्रकारिता महोत्सव' के सत्र में कही।
 
-मैंने खुद को बदला
 
उन्होंने 'आवाज और अंदाज' विषय पर बोलते हुए कहा कि गांधीजी ने हिन्दी भाषा समिति चलाई थी। हमारे पिता मुझे रेडियो के सामने बिठाकर कहते थे कि 'सुनो इसे।' वहीं से मैं यह सीखने लगा कि मुझे भी अपने आपको सुनना चाहिए। मैंने देखा कि मैं भी कितना टूटा-फूटा बोलता हूं इसलिए मैंने खुद को बदलना शुरू किया। कैसे बोलना है, कितना बोलना है, कहां रुकना है और आवाज और अंदाज कैसा होगा?
 
-टीवी डिबेट क्यों बदनाम है?
 
टीवी डिबेट क्यों बदनाम हो रहे हैं? उसका कारण यह है कि जब कोई सुनता नहीं है तो हम चिल्लाने लगते हैं। जैसे बच्चों की आवाज नहीं सुनी जाती तो वे रोने और चीखने लगते हैं। लेकिन आवाज और अंदाज का शस्त्र शालीनता है। हमारे पास सोचने की बहुत शक्ति है, लेकिन हमें अपनी आवाज और अंदाज को शालीनता के दायरे में रखकर अपनी अभिव्यक्ति करना चाहिए।
 
-एक रेडियो कितने ही लोगों को जोड़ देता था?
 
एक रेडियो किसी दौर में कितने ही लोगों को जोड़ देता था। आज हमारे सभी कमरों में टीवी हैं, सभी का एक टीवी है और कोई किसी से जुड़ा हुआ नहीं है। एक दौर ऐसा भी आया, जब टीवी पर मैच चलता था तो बाजू में रेडियो की कमेंट्री भी सुनी जाती थी कि रोमांच बरकरार रहना चाहिए।
 
आज नुक्तों की मृत्यु हो चुकी है। अब हम उस दौर में है, जब हम ख़ुदा और खुदा के बीच फर्क नहीं करते। हम अब ख़ान और खान के बीच फ़र्क नहीं करते हैं। अब न वो अंदाज है और न ही वो आवाज़ बची है। उस दौर के अनाउंसर एक कल्ट बन चुके हैं। इस दौर में आवाज़ से ज्यादा इम्प्रेशन का महत्व हो गया है। हम प्लास्टिक दौर में जी रहे हैं, जहां लाइक्स और कमेंट्स चाहिए। उस दौर में हम मानक भाषा सीखते थे।
 
-पॉज की भी अपनी ताकत थी इस दौर में

वो ऐसा दौर था, जब महात्मा गांधी की हत्या की खबर देने में एक पॉज का इस्तेमाल किया गया था तो उस पॉज से पूरा देश हिल गया था। उस दौर में ना सिर्फ शब्द बल्कि विराम यानी पॉज की भी अहमियत थी। इसलिए आक्रामक बोलने की कोशिश करना चाहिए। भाषा में, देश में, आवाज़ और अंदाज में आत्मीयता बनी रहे।

Edited by: Ravindra Gupta

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