महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव का जीवन

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संत नामदेवजी का जन्म भक्त कबीरजी से 130 वर्ष पूर्व 1270 में महाराष्ट्र के जिला सातारा के नरसी बामनी गांव में कार्तिक शुक्ल एकादशी को हुआ था। उनके पिता का नाम दामाशेटी और माता का नाम गोणाई देवी था। उनका परिवार भगवान विठ्ठल का परम भक्त था। 
 
एक दिन उनके पिता बाहर गांव की यात्रा पर गए थे, तब उनकी माता ने नामदेव को दूध दिया और कहा कि वे इसे भगवान विठोबा को भोग में चढा दें। तब नामदेव सीधे मंदिर में गए और मूर्ति के आगे दूध रखकर कहा, ‘लो इसे पी लो।’ उस मंदिर में उपस्थित लोगों ने उनसे कहा- यह मूर्ति है, दूध कैसे पिएगी? परंतु पांच वर्ष के बालक नामदेव नहीं जानते थे कि विठ्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, मूर्ति को तो बस भावनात्मक भोग लगवाया जाता है। तब उनकी बाल लीला समझ कर मंदिर में उपस्थित सब अपने-अपने घर चले गए। जब मंदिर में कोई नहीं था तब नामदेव निरंतर रोए जा रहे थे और कह रहे थे, ‘विठोबा यह दूध पी लो नहीं तो मैं यहीं, इसी मंदिर में रो रोकर प्राण दे दूंगा।’
 
तब बालक का भोला भाव देखकर विठोबा पिघल गए। तब वे जीवित व्यक्ति के रूप में प्रकट हुए और स्वयं दूध पीकर नामदेव को भी पिलाया। तब से बालक नामदेव को विठ्ठल नाम की धुन लग गई और वे दिनरात विठ्ठल नाम की रट लगाए रहते थे।  
 
उनके गुरु महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर थे। उन्होंने बह्मविद्या को लोक सुलभ बनाकर उसका महाराष्ट्र में प्रचार किया तो संत नामदेवजी ने महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक उत्तर भारत में 'हरिनाम' की वर्षा की।
 
भक्त नामदेवजी का महाराष्ट्र में वही स्थान है, जो भक्त कबीरजी अथवा सूरदास का उत्तरी भारत में है। उनका सारा जीवन मधुर भक्ति-भाव से ओतप्रोत था। विट्ठल-भक्ति भक्त नामदेवजी को विरासत में मिली। 
 
उनका संपूर्ण जीवन मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातपात के विषय में उनके स्पष्ट विचारों के कारण हिन्दी के विद्वानों ने उन्हें कबीरजी का आध्यात्मिक अग्रज माना है।
 
संत नामदेवजी ने पंजाबी में पद्य रचना भी की। भक्त नामदेवजी की बाणी में सरलता है। वह ह्रदय को बांधे रखती है। उनके प्रभु भक्ति भरे भावों एवं विचारों का प्रभाव पंजाब के लोगों पर आज भी है। 
 
भक्त नामदेवजी के महाप्रयाण से तीन सौ साल बाद श्री गुरु अरजनदेवजी ने उनकी बाणी का संकलन श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक, 18 रागों में संकलित है।
 
वास्तव में श्री गुरु साहिब में नामदेवजी की वाणी अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवता को पवित्रता प्रदान करने का सामर्थ्य है। ‘मुखबानी’ नामक ग्रंथ में उनकी कईं रचनाएं संग्रहित हैं । 
 
उनके जीवन के एक रोचक प्रसंग के अनुसार एक बार जब वे भोजन कर रहे थे, तब एक श्वान आकर रोटी उठाकर ले भागा। तो नामदेवजी उसके पीछे घी का कटोरा लेकर भागने लगे और कहने लगे 'हे भगवान, रुखी मत खाओ साथ में घी लो।'
 

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