History of Maharana Pratap: राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास का सबसे चर्चित हल्दीघाटी युद्ध मुगल सम्राट अकबर ने नहीं बल्कि महाराणा प्रताप ने जीता था। साल 1576 में हुए इस भीषण युद्ध में अकबर को नाको चने चबाने पड़े और आखिर जीत महाराणा प्रताप की हुई। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ईस्वी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। इस वर्ष महाराणा प्रताप की 482वीं जयंती मनाई जा रही है। आओ जानते हैं उनकी विरता का इतिहास।
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महाराणा के मेवाड़ की राजधानी उदयपुर थी। उन्होंने 1568 से 1597 ईस्वी तक शासन किया। उदयपुर पर यवन, तुर्क आसानी से आक्रमण कर सकते हैं, ऐसा विचार कर तथा सामन्तों की सलाह से प्रताप ने उदयपुर छोड़कर कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके को अपना केन्द्र बनाया।
प्रताप के काल में दिल्ली में मुगल सम्राट अकबर का शासन था, जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य की स्थापना कर इस्लामिक परचम को पूरे हिन्दुस्तान में फहराना चाहता था। 30 वर्षों के लगातार प्रयास के बावजूद महाराणा प्रताप ने अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की, जिसकी आस लिए ही वह इस दुनिया से चला गया।
महाराणा प्रताप ने भगवान एकलिंगजी की कसम खाकर प्रतिज्ञा ली थी कि जिंदगीभर उनके मुख से अकबर के लिए सिर्फ तुर्क ही निकलेगा और वे कभी अकबर को अपना बादशाह नहीं मानेंगे। अकबर ने उन्हें समझाने के लिए चार बार शांति दूतों को अपना संदेशा लेकर भेजा था लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर के हर प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था।
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जगमल जा मिला अकबर से : महाराणा प्रताप का छोटा भाई जगमल नाराज होकर बादशाह अकबर के पास चला गया और बादशाह ने उसको जहाजपुर का इलाका जागीर में प्रदान कर अपने पक्ष में कर लिया। इसके पश्चात बादशाह ने जगमल को सिरोही राज्य का आधा राज्य प्रदान कर दिया। इस कारण जगमाल की सिरोही के राजा सुरतान देवड़ा से दुश्मनी हो गई और अंत में सन् 1583 में हुए युद्ध में जगमाल मारा गया।
जिस समय महाराणा प्रताप सिंह ने मेवाड़ की गद्दी संभाली, उस समय राजपूताना बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। बादशाह अकबर की क्रूरता के आगे राजपूताने के कई राजाओं ने अपने सिर झुका लिए थे। कई वीर प्रतापी राज्यवंशों के उत्तराधिकारियों ने अपनी कुल मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। कुछ स्वाभिमानी राजघरानों के साथ ही महाराणा प्रताप भी अपने पूर्वजों की मर्यादा की रक्षा हेतु अटल थे और इसलिए तुर्क बादशाह अकबर की आंखों में वे सदैव खटका करते थे।
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मेवाड़ पर अकबर का आक्रमण : मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने कई प्रयास किए। अजमेर को अपना केंद्र बनाकर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया। महाराणा प्रताप ने कई वर्षों तक मुगलों के सम्राट अकबर की सेना के साथ संघर्ष किया। प्रताप की वीरता ऐसी थी कि उनके दुश्मन भी उनके युद्ध-कौशल के कायल थे। उदारता ऐसी कि दूसरों की पकड़ी गई मुगल बेगमों को सम्मानपूर्वक उनके पास वापस भेज दिया था।
अपनी विशाल मुगलिया सेना, बेमिसाल बारूदखाने, युद्ध की नवीन पद्धतियों के जानकारों से युक्त सलाहकारों, गुप्तचरों की लंबी फेहरिस्त, चालबाजी के उपरांत भी जब अकबर महाराणा प्रताप को झुकाने में असफल रहा तो उसने आमेर के महाराजा भगवानदास के भतीजे मानसिंह (जिसकी बुआ जोधाबाई अकबर जैसे विदेशी से ब्याही गई थी) को विशाल सेना के साथ डूंगरपुर और उदयपुर के शासकों को अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश करने के लक्ष्य के साथ भेजा। मानसिंह की सेना के समक्ष डूंगरपुर राज्य अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका।
इसके बाद मानसिंह महाराणा प्रताप को समझाने हेतु उदयपुर पहुंचे। मानसिंह ने उन्हें अकबर की अधीनता स्वीकार करने की सलाह दी, लेकिन प्रताप ने दृढ़तापूर्वक अपनी स्वाधीनता बनाए रखने की घोषणा की और युद्ध में सामना करने की घोषणा भी कर दी। मानसिंह के उदयपुर से खाली हाथ आ जाने को बादशाह ने करारी हार के रूप में लिया तथा अपनी विशाल मुगलिया सेना को मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। आखिरकार 30 मई सन 1576, बुधवार के दिन प्रातःकाल में हल्दी घाटी के मैदान में भयंकर युद्ध छिड़ गया।
मुगलों की विशाल सेना टिड्डी दल की तरह मेवाड़-भूमि की ओर उमड पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के साथ जबरदस्त तोपखाना भी था। अकबर के प्रसिद्ध सेनापति महावत खां, आसफ खां, मानसिंह के साथ शाहजादा सलीम (जहांगीर) भी उस मुगलवाहिनी का संचालन कर रहे थे, जिसकी संख्या इतिहासकार 80 हजार से 1 लाख तक बताते हैं।
इस युद्ध में प्रताप ने अभूतपूर्व वीरता और साहस से मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए और अकबर के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। विकट परिस्थिति में झाला सरदार मानसिंह ने उनका मुकुट और छत्र अपने सिर पर धारण कर लिया। मुगलों ने उसे ही प्रताप समझ लिया और वे उसके पीछे दौड़ पड़े। इस प्रकार उन्होंने राणा को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने का अवसर प्रदान कर दिया। इस असफलता के कारण अकबर को बहुत गुस्सा आया।
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उसी दौरान अकबर स्वयं विक्रम संवत 1633 में शिकार के बहाने इस क्षेत्र में अपने सैन्य बल सहित पहुंचे और अचानक ही महाराणा प्रताप पर धावा बोल दिया। प्रताप ने तत्कालीन स्थितियों और सीमित संसाधनों को समझकर स्वयं को पहाड़ी क्षेत्रों में स्थापित किया और लघु तथा छापामार युद्ध प्रणाली के माध्यम से शत्रु सेना को हतोत्साहित कर दिया। बादशाह ने स्थिति को भांपकर वहां से निकलने में ही समझदारी समझी।
एक बार के युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपने धर्म का परिचय दिया और युद्ध में एक बार शाही सेनापति मिर्जा खान के सैन्यबल ने जब समर्पण कर दिया था, तो उसके साथ में शाही महिलाएं भी थीं। महाराणा प्रताप ने उन सभी के सम्मान को सुरक्षित रखते हुए आदरपूर्वक मिर्जा खान के पास पहुंचा दिया।
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जहांगीर से युद्ध : बाद में हल्दी घाटी के युद्ध में करीब 20 हजार राजपूतों को साथ लेकर महाराणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80 हजार की सेना का सामना किया। इसमें अकबर ने अपने पुत्र सलीम (जहांगीर) को युद्ध के लिए भेजा था। जहांगीर को भी मुंह की खाना पड़ी और वह भी युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया। बाद में सलीम ने अपनी सेना को एकत्रित कर फिर से महाराणा प्रताप पर आक्रमण किया और इस बार भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक घायल हो गया था।
राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुगलों का मुकाबला किया, परंतु मैदानी तोपों तथा बंदूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित 22 हजार राजपूत सैनिकों में से केवल 8 हजार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाए। महाराणा प्रताप को जंगल में आश्रय लेना पड़ा।
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प्रताप का वनवास : महाराणा प्रताप का हल्दी घाटी के युद्ध के बाद का समय पहाड़ों और जंगलों में ही व्यतीत हुआ। अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति द्वारा उन्होंने अकबर को कई बार मात दी। महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने लगे। महारानी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और जंगल के पोखरों के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफाएं ही अब उनका आवास थीं और शिला ही शैया थी। महाराणा प्रताप को अब अपने परिवार और छोटे-छोटे बच्चों की चिंता सताने लगी थी।
मुगल चाहते थे कि महाराणा प्रताप किसी भी तरह अकबर की अधीनता स्वीकार कर 'दीन-ए-इलाही' धर्म अपना लें। इसके लिए उन्होंने महाराणा प्रताप तक कई प्रलोभन संदेश भी भिजवाए, लेकिन महाराणा प्रताप अपने निश्चय पर अडिग रहे। प्रताप राजपूत की आन का वह सम्राट, हिन्दुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अडिग रहा।
कई छोटे राजाओं ने महाराणा प्रताप से अपने राज्य में रहने की गुजारिश की लेकिन मेवाड़ की भूमि को मुगल आधिपत्य से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, वे महलों को छोड़ जंगलों में निवास करेंगे। स्वादिष्ट भोजन को त्याग कंद-मूल और फलों से ही पेट भरेंगे, लेकिन अकबर का आधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करेंगे। जंगल में रहकर ही महाराणा प्रताप ने भीलों की शक्ति को पहचानकर छापामार युद्ध पद्धति से अनेक बार मुगल सेना को कठिनाइयों में डाला था। प्रताप साधन सीमित होने पर भी दुश्मन के सामने सिर नहीं झुकाया।
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भामाशाह की मदद : बाद में मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त संपत्ति रख दी। भामाशाह ने 20 लाख अशर्फियां और 25 लाख रुपए महाराणा को भेंट में प्रदान किए। महाराणा इस प्रचुर संपत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गए। इस अनुपम सहायता से प्रोत्साहित होकर महाराणा ने अपने सैन्य बल का पुनर्गठन किया तथा उनकी सेना में नवजीवन का संचार हुआ। महाराणा ने पुनः कुम्भलगढ़ पर अपना कब्जा स्थापित करते हुए शाही फौजों द्वारा स्थापित थानों और ठिकानों पर अपना आक्रमण जारी रखा!
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अकबर की सेना ने की लूटपाट : मुगल बादशाह अकबर ने विक्रम संवत 1635 में एक और विशाल सेना शाहबाज खान के नेतृत्व में मेवाड़ भेजी। इस विशाल सेना ने कुछ स्थानीय मदद के आधार पर वैशाख कृष्ण 12 को कुम्भलगढ़ और केलवाड़ा पर कब्जा कर लिया तथा गोगुन्दा और उदयपुर क्षेत्र में लूट-पाट की। ऐसे में महाराणा प्रताप ने विशाल सेना का मुकाबला जारी रखते हुए अंत में पहाड़ी क्षेत्रों में पनाह लेकर स्वयं को सुरक्षित रखा और चावंड पर पुन: कब्जा किया। शाहबाज खान आखिरकार खाली हाथ पुनः पंजाब में अकबर के पास पहुंच गया।
चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से पुन: उद्धार कर लिया। उदयपुर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। विचलित मुगलिया सेना के घटते प्रभाव और अपनी आत्मशक्ति के बूते महाराणा ने चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ के अलावा संपूर्ण मेवाड़ पर अपना राज्य पुनः स्थापित कर लिया।
इसके बाद मुगलों ने कई बार महाराणा प्रताप को चुनौती दी लेकिन मुगलों को मुंह की खानी पड़ी। आखिरकार, युद्ध और शिकार के दौरान लगी चोटों की वजह से महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी 1597 को चावंड में हुई। 30 वर्षों के संघर्ष और युद्ध के बाद भी अकबर महाराणा प्राताप को न तो बंदी बना सका और न ही झुका सका। महान वो होता है जो अपने देश, जाति, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए किसी भी प्रकार का समझौता न करें और सतत संघर्ष करता रहे। ऐसे ही व्यक्ति लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहते हैं।