बिल्कुल अंधेरी रात थी। दुश्मन पूरी ताकत से हमारे ऊपर फायरिंग कर रहा था। हमने भी इस तरफ से क्रॉस फायरिंग शुरू कर दी। ठीक इसी वक्त एक गोली मेरे पेट में आकर लगी। मैं घायल होकर गिर गया, लेकिन जैसे ही गोली लगी मेरा उत्साह दो गुना और बढ गया।
शौर्य की यह कहानी है कारगि ल युद्ध के दौरान घायल हुए कांस्टेबल 44 वर्षीय भरत सिंह की। वे सेना नायक के पद से सेवानिवृत्त हुए। 18 साल सेवाएं देने के बाद इन दिनों वे नीमच जिले के अपने पैतृक गांव सावन गांव में रह रहे हैं।
उन्होंने मीडिया को बताया कि रात कि हमें सर्चिंग ड्यूटी में लगाया गया था। लगभग चार घंटे का प्लान तैयार किया गया था। इसी दौरान फायरिंग हो गई। मेडिकल स्टाफ ने मुझे संभाला। सेना में शरीर का घायल होना कोई बड़ी बात नहीं। मन पूरी तरह स्वस्थ था। उत्साह भी दोगुना था। आखिरकार हम कारगिल में विजयी हुए।
भरत सिंह कारगिल के बारे में याद करते हुए बताते हैं कि युद्ध के पहले अधिकारी ने सूचना दी कि शाम को ही निकलना है। जम्मू सेक्टर से अब हम द्रास सेक्टर की ओर रवाना हो रहे थे। मेरे साथ मेरी राजपूत बटालियन में 19 साथी और थे। अधिकारी का आदेश सिर्फ आदेश होता है। घर पर बात नहीं हो सकी। पूरी तरह वर्दी में और पीठ पर वजन लेकर वाहन में चढ़ गए।
एक लंबी यात्रा के बाद हम नए पड़ाव पर थे। अधिक कुछ बताया नहीं गया। सिर्फ इतना कहा गया कि युद्ध में जाना है और अपनी पूरी जान लगा देना है। देश की सीमा कलेजे से अधिक प्यारी है। परिवार दूसरी प्राथमिकता पर। पहला टारगेट हमारा दुश्मन और इस वक्त हमारा दुश्मन था पाकिस्तान।
सेना में रहते हुए भरत सिंह का अधिकांश जीवन जम्मू, द्रास और कुपवाड़ा के पहाड़ों में गुजरा। वे बताते हैं 2001 में बेटे ने जन्म लिया। बेटा रोहित कारगिल और हिम्मत के किस्से सुनकर अब सेना में जाने की तैयारी कर रहा है।
गुर्जर बताते हैं कि कक्षा 12 उत्तीर्ण रोहित ने आर्ट संकाय से पढ़ाई की। वह प्रतिदिन दो घंटे मेडिकल फिटनेस के लिए दौड़ता है। वह भी पिता के समान सेना में अपना जीवन देना चाहता है। इन दिनों भरत सिंह अपनी साढ़े चार बीघा पैतृक जमीन पर मां सोहन बाई और पिता हीरालाल के साथ खेती कर पसीना बहा रहे हैं।