-धीरेन्द्र गर्ग
हम लोकतंत्र में रहते हैं और अगर लोकतंत्र में सभी को बराबर भागीदारी और साथ न मिले तो सच्चा जनतंत्र नहीं कहा जा सकता है। आने वाले 15 अगस्त को भारतीय स्वतंत्रता के अध्याय में एक और साल जुड़ जाएगा। इसी दिन हमने अत्याचारी ब्रितानी हुकूमत के बाद आजादी का पहला सूरज देखा था।
आजाद होने के बाद यह सोचा गया था कि हिन्दुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश होगा। इसमें सांप्रदायिकता अतीत की चीज होगी। लेकिन यह दुर्भाग्य रहा कि ऐसा हकीकत में हो नहीं पाया। अब तक देश ने कई प्रधानमंत्री व सरकारें देखीं।
देश में प्रगति भी हुई, परंतु आज जब मैं इस अजीम देश के 71 वर्षों का इतिहास देखता हूं तो मेरे जेहन में कुछ खलिश होने के साथ कुछ सवाल भी कौंधते हैं जिसका जवाब कहीं भी नहीं मिलता दिख रहा है।
यहां एक प्रश्न इन नीति-नियंताओं से है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने सालों बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा गरीब क्यों है? क्या इसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने प्रतिनिधि चुनकर एक समृद्धशाली देश का स्वप्न देखा!
एक रिपोर्ट के अनुसार आबादी के मात्र 18 प्रतिशत हिस्से के पास ही 21वीं सदी की मूलभूत सुविधाएं जैसे स्वच्छ पानी, सफाई तथा भोजन है जबकि अनेक योजनाएं सरकार जनहित में चला रही हैं! आज देश का एक बड़ा तबका शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली तथा पानी जैसी सुविधाओं से महरुम क्यों है? क्या यह उन मरहूम महान सेनानियों का अपमान नहीं है? जिन्होंने हमें आजाद कराने के लिए अपनी बलि दे दी।
मैं विकास का झुनझुना थमाने वाले राजनीति के खिलाड़ियों से जानना चाहता हूं कि आज भी देश की लगभग 33 करोड़ की आबादी गरीब क्यों है? जबकि कुबेरपतियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।
इस तथाकथित कृषि-प्रधान देश में आज अन्नदाताओं की हालत इस कदर खराब है कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। एनसीआरबी की मानें तो अब तक देश के 2 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और 41 फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। ऐसे में हमारे सामने खाद्य सुरक्षा की जबरदस्त चुनौती होगी।
महंगाई ने सबका गला दबा रखा है, दिनोदिन आतंकवाद देश में जड़ें जमा रहा है फिर भी आजादी का जश्न! इन सब का जिम्मेदार कौन है? क्या इन सबके बाद भी हम महान हैं? ऐसे में हालत में शायद सोचनीय है।
यदि सिलसिला ऐसा ही रहा तो नीति-निर्माताओं से जनता का इकबाल भी उठ जाएगा। सिर्फ विश्वगुरु बनने का अलाप भरकर भारत को विश्व का अगुआ नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए सरकारों को योजनाओं की रस्म-अदायगी से ऊपर उठकर देश की आवश्यक आवश्यकताओं और समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा।