सन् 1947 में भारतवर्ष आजाद होकर हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रूप में विभाजित हो गया। हिंदुस्तान ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया। क्या होती है धर्मनिरपेक्षता? गुटनिरपेक्ष बनना, तुष्टिकरण करना, अपने ही देश में सीमाओं पर मारे जा रहे लोगों पर ध्यान नहीं देना, देश के गंभीर मुद्दों के प्रति शुतुमुर्ग बन जाना या कि उस सोच को बढ़ाते जाने जो 'भारत तेरे टूकड़े होंगे' के नारे लगा सके। दूसरी ओर पाकिस्तान ने कट्टरपंथ का रास्ता अपनाया और वह मुल्क किसी की भी परवाह ना किए बगैर अपने मकसद में कामयाब रहा। पंजाब में उसने करके दिखा दिया और कश्मीर में उसने जो करना था कर दिया। उसके पास अफगानिस्तान का अच्छा खासा अनुभव है और वह आगे भी यह करता रहेगा। जहां तक सवाल है चीन से दोस्ती का तो उसने 1962 में बता ही दिया।
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हम तो पाकिस्तान से तीन बार युद्ध जीतकर भी टेबल पर हार गए। हम ऐसी सोच के लोग हैं जो अपने डर को छुपाने के लिए अब कहते हैं कि 'अध्यक्ष महोदय जी! युग बदल गया है अब देश सामरिक ताकत से नहीं आर्थिक ताकत से चलता है।'.....आप कुछ भी सोचते रहिए जो काम हथियार का है वह तो हथियार ही करेगा। यदि अर्थ ही सबकुछ है तो हटा दीजिए सेना।...कोई माने या न माने लेकिन हम धीरे-धीरे अपनी आजादी खोते जा रहे हैं। अभी ही वक्त है चेतने का अन्यथा हम खुद को एक ऐसे संघर्ष में घिरा पाएंगे जहां आम जनता के सबसे नजदीक होंगे दुश्मन देश के सैनिक जिनका साथ देंगे देश के गद्दार। आप जानते ही हैं कि कैसे सीमावर्ती राज्यों में ये हालात हो गए हैं। मूल निवासी तो बेदखल हो ही रहा है और धर्मान्तरण के चलते मूल धर्म भी अब लुप्त होने लगा है।
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मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष का आधार धन को मानते हैं जबकि जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक राल्फ डेरेनडाफ वर्ग संघर्ष का आधार ताकत को मानते थे। हालांक कुछ लोगों का मानना है कि दोनों तत्वों का इसमें योगदान रहता है। संघर्ष या फसाद पैदा करने वाली विचारधाराएं धर्म में भी होती है और समाज में भी। प्रकृति भी कई दफे संघर्ष का कारण बन जाती है। हालांकि जो व्यक्ति संघर्ष करने की प्रवृत्ति के बीच संघर्ष से बचने की बात करता है वह लुप्त हो जाएगा यह तय है।
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भारत में 1757 से 1857 तक कंपनी का राज था। 1857 से शुरू हुआ ताज का राज जो 1947 में खतम हो गया, लेकिन अंग्रेजों ने इन दो सौ सालों में ऐसे बीज बोए जो आज हमारे लिए कांटे बनकर चुभ रहे हैं। अंग्रेजों ने जाते-जाते भारत के दो टुकड़े कर जनता के बीच सांप्रदायिक, प्रांतीय, भाषाई और जातिवादी सोच की चिंगारी भड़का कर चले गए। वर्तमान में माओवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, धार्मिक कट्टरता, अवैध घुसपैठ, धर्मान्तरण, वामपंथी राजनीति, जातिवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति, भ्रष्टाचार, देशद्रोह और सीमा विवाद आदि सभी 70 वर्ष पहले बोए गए बीज के वृक्ष हैं।
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जिनके हाथ में दी आजादी:
आजादी के आंदोलन के दौरान देश के लोगों में धर्म, भाषा या प्रांत को लेकर किसी भी प्रकार का अलगाववादी भाव नहीं था। लेकिन जैसे ही आजादी की सुगबुगाहट हुई तो सभी तरह की अलगाववादी और विभाजनकारी सोच सामने आ गई। जिन्हें हमने अपना आदर्श माना उनकी गलतियां हमारे लिए आज भी कांटे-सी चूभती है। आपको कुछ उदाहरण से समझ में आएगा कि आजादी किन लोगों के हाथ में चली गई थी।
स्वतंत्रता के बाद पहले जयप्रकाश नारायण के जनआंदोलन के कारण इमरजेंसी ने आजादी पर ग्रहण लगाया, फिर मंडल आयोग ने देश के सामाजिक ताने-बाने में सेंध लगाई। बाबरी ढांचे के विध्वंस का तमाशा सबने देखा। फिर मुंबई बम कांड और फिर गोधरा कांड के कारण गुजरात दंगों के दंश को झेला। आरक्षण के नाम पर छात्र आंदोलन की आग बुझी ही नहीं थी कि गुर्जर और मीणाओं की तनातनी भी देखी। फिर अंत में आ गए अन्ना हजारे जिनके आंदोलन को अरविन्द केजरीवाल ने भस्म कर कर दिल्ली के सिंहासन को अपने कब्जे में कर लिया।
हर आंदोलन ने देश में असंतोष की आग तो लगाई साथ ही नए राजनेता पैदा कर दिए जिसमें आश्चर्यजनक रूप से वे लोग हमेशा से ही हाशिये पर धकेल दिए गए जिन्होंने आंदोलन की शुरुआत की या तो आंदोलन के सेतु थे। मेन स्ट्रीम में आ गए वे नकली लोग जो सत्ता के भूखे और चालक लोग थे। आजादी के आंदोलन के साथ भी यहीं हुआ। असली लोग फांसी पर चढ़ गए और उनके परिवार के लोग हाशिए पर धकेल दिए गए। नकली लोगों ने सत्ता का सुख भोगा और देश में ढेर सारी समस्याओं को जन्म देकर वे भी अंग्रेजों की तरह मजे लुटकर चिता पर जल गए और उनकी समाधियों पर देश-विदेश के नेता आकर आज फूल चढ़ाते हैं।
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आजादी के 70 वर्ष बाद आज तक हम उन्हीं सभी समस्याओं से लड़ रहे हैं जो अंग्रेज हमें देकर गए थे। हमने कभी उन समस्याओं को हल करने की दिशा में कार्य नहीं किया बल्कि हमारे राजनीतिज्ञों ने भी वहीं किया जो अंग्रेज 200 वर्षों से करते आए थे। उन्होंने दो संप्रदायों के बीच फूट डालकर राज किया हमारे राजनीतिज्ञों ने भी यही किया। उन्होंने जातियों को बढ़ावा दिया और अगले और पिछड़े की भावना को विकसित किया, हमारे राजनीतिज्ञों ने भी उन्हीं का अनुसार किया। इस सब के चलते आजाद के आंदोलन, आजादी ने और आजादी के बाद के राजनीतिज्ञों की नीति ने ऐसे हजारों सवाल खड़े कर दिए हैं जिनका जवाब ढूंढा जाना चाहिए...ऐसे ही कुछ सवाल जो अपके मन में ही होंगे...
* आज भी क्यों जारी है अंग्रेजों के सिस्टम?
* कब होगा सीमाओं का निपटना?
* कब तक जारी रहेगी जातिवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति?
* सत्ता, राजनीति, मीडिया, शिक्षण संस्थान और सिनेमा जगत में बैठे देश के गद्दारों से कब निपटा जाएगा?
* धर्मान्तरण और नक्सलवाद के लिए विदेशों से मिल रही आर्थिक मदद और हथियारों की सप्लाई कब बंद होगी?
* गुंडा, नशा और दुर्घटना मुक्त भारत कब बनेगा?
*** और भी सवाल जोड़े जा सकते हैं।
हम आजादी का पर्व क्यों मनाते हैं? क्या इस दिन भारत विभाजित नहीं हुआ था? किन लोगों के कारण भारत विभाजित हुआ था? क्यों भारत विभाजित हुआ था? अंग्रेजों ने हमें गुलाम क्यों बना लिया था? 200 साल में अंग्रेजों ने हमारे साथ क्या-क्या किया? और अंत में यह सवाल भी कि कितने भारतीय युवा जानते हैं कि अंग्रेजों ने हमारे साथ क्या-क्या किया और हमें आजादी किन-किन लोगों ने दिलवाई और भारत को विभाजित किन लोगों ने मिलकर किया था?
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इतिहास के प्रति उपेक्षा : गुलाम बनने के मुख्य कारणों में से एक यह है कि लोग अपने इतिहास और भूगोल के प्रति सजग नहीं रहते हैं। राजनीति और समाज की समझ का आधार इतिहास होता है। ज्यादातर ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिन्हें भारत के इतिहास और भूगोल की कोई खास जानकारी नहीं है। कहते हैं कि जिस देश के लोगों को अपने इतिहास की जानकारी नहीं होती, वह देश धीरे-धीरे स्वयं की संस्कृति, धर्म, देश की सीमा और देशीपन को खो देता है।
इस देश के ज्यादातर लोगों को सिर्फ इतना-भर मालूम है कि हम कभी गुलाम थे इसीलिए आज आजादी का पर्व मनाया जाता है। हमें गुलामी से मुक्त कराने वाले कुछ खास नाम वे हैं जिनके पोस्टर हम शहरों या अखबारों में छपे हुए देख लेते हैं किंतु यह कतई नहीं मालूम कि यह आजादी किस तरह हासिल की गई और क्या था अंग्रेजों का काल और किस तरह हमें अंग्रेजों ने लूट खाया। यह नहीं मालूम तभी तो आज भी ज्यादातर भारतीय अंग्रेजों और अंग्रेजी के भक्त हैं। धन्य है मेरा देश जो इतिहास नहीं जानता।
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इन 70 वर्षों में देश के राजनीतिज्ञों ने देश का सत्यानाश कर दिया है। आज सरहद असुरक्षित है। रोज एक जवान शहीद हो रहा है। कई बच्चे अनाथ हो रहे हैं और शहीदों की लिस्ट बढ़ती ही जा रही है। किसे चिंता है इसकी? संसद में बैठे नेता चिल्ला रहे हैं किसलिए? आजादी के आंदोलन में शहीद हुए शहीदों के बलिदान को व्यर्थ सिद्ध कर करने के लिए या सत्ता भोग के लिए। आज दुख होता है जब भगतसिंह के घर को तोड़ा जाता है। मंगल पांडे की समाधी पर दीपक जलाने के लिए देश का कोई बड़ा नेता नहीं जाता है।
इन 70 वर्षों में देश के लगभग हर हिस्से में मनमानी तंत्र ही नजर आया। इस मनमानी के चलते देश में अलगाववादी, आतंकवादी, प्रांतवादी, सांप्रदायिक, भाषावादी और भ्रष्टाचारवादी प्रवृत्तियां पनपती रहीं और देश को विखंडित किए जाने का दुष्चक्र चलता रहा जो आज अपने चरम पर है। देश के देना इसके प्रति आंखें मुंदे बैठे रहे। क्या आजादी का यही मतलब है कि हम नए तरीके से गुलाम होने या विभाजित होने के रास्ते खोजें? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और खंभात से लेकर सिक्किम तक भारतवासी भय, भुखमरी और असुरक्षा की भावना में जी रहे हैं। हमने तरक्की के नाम पर युवाओं के हाथों में मोबाइल, इंटरनेट, शराब की बोतल, धर्म और राजनीति के झंडा दे दिए हैं, लेकिन अपना सुख-चैन, आपसी प्रेम और विश्वास खो दिया।
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ये चल रहा है देश में, कुछ हेडलाइनें...
यदि हम संपूर्ण भारत पर एक विहंगम नजर डालें तो पिछले साल भर में यह हुआ:- हर तरफ चक्काजाम, बाजार बंद, रेल और ट्रेनें बंद, समूचा भारत आज बंद है। दंगों के कारण स्कूल, कॉलेज और सारे कार्यालय बंद है। अपने ही देश में शरणार्थी बना हिंदू। देशभर के डॉक्टरों की हड़ताल शुरू। बैंककर्मी अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतरे। भ्रष्ट नहीं मान रहे और जमाखोरों की वजह से महंगाई हुई बेकाबू। गोदामों से प्याज गायब कर दिया विपक्ष ने। भूख से पिछले साल लगभग 2234 लोगों की मौत हो गई। पहाड़ों और जंगलों को कटने से नहीं रोक रही सरकार। खनन माफिया चला रहा है सरकार। आरक्षण को लेकर हिंसक आंदोलन।
बंगाल में नहीं खुलने देंगे फैक्टरी। तोड़फोड़, बसों में आग, फैक्टरी पर ताला। मालदा पर नहीं होगी जांच। कश्मीर में एनकाउंटर की न्यायिक जांच होगी। पत्थरबाजों को मिल रहे हैं रोजाना 500 रुपए। सीमापार से घुसपैठ बढ़ी, सेना के दो मेजर सहित चार जवान शहीद।
दिल्ली में चलती बस में हुए गैंगरेप के बाद अब गैंगरेप पर कोई ध्यान नहीं देता। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों की सड़कों पर अब रात में स्वतंत्र तफरी करने में डर लगता है। शहर और कस्बों में पुलिस, गुंडों और छुटभैये नेताओं की ही चलती है। स्वच्छता अभियान में साथ नहीं दे रहे कार वाले। कचरा कहीं भी फेंककर निकल लेते हैं। तंबाखूबाज हर कहीं थूकने से बाज नहीं आ रहे, गुंडे बना रहे हैं बंगले और गरीबों के लिए सरकार बना रही है पोल्ट्री फार्म जैसे मकान।
स्वतंत्रता की समीक्षा करें:
आजादी के 70 वर्ष बाद यदि हम अपनी स्वतंत्रता की समीक्षा करते हैं तो पता चलता है कि इस स्वतंत्रता का हमने कितना दुरुपयोग किया है। अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का दुरुपयोग तो हम देख ही रहे हैं। वर्तमान दौर में बेशक हमने कई क्षेत्रों में उन्नति की है, लेकिन हमने विश्वास के आपसी रिश्तों और सामाजिक ताने-बाने को खो दिया है। खो दिया है आधी रात को स्वतंत्र घूमने के आनंद को। खो दिया है नकली भोज्य पदार्थों और नकली दवाइयों के युग में स्वस्थ रहने के अपने अधिकार को। खो दिया है सरहदों पर सुरक्षा की गारंटी को। अब तो आजादी के नाम पर समलैंगिक लोगों को मान्यता की बात चलती है, महिलाओं के छोटे वस्त्र पहने की पैरवी होती है, देशभर में सीमावर्ती क्षेत्रों में मारे जा रहे हिन्दुओं की बात छोड़ तो तो भीड़ द्वारा पीटपीटर मार दिए जाने के मामले में संसद में हंगामा होता है।
निश्चित ही हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में अन्य देशों से कहीं आगे निकल गए है तभी तो 'भारत तेरे टूकड़े होंगे' का नारा देने वालों को न्याय दिलाने की बात चलती है और उनके समर्थन में जाने माने राजनेता संसद नहीं चलने देते हैं। सचमुच हमें इन 70 वर्षों में यह सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल की है कि अन्य देशों की अपेक्षा इस देश में गद्दारों की संख्या बड़ा ली है। कोई चीन के साथ है तो कोई पाकिस्तान के, कोई नेपाल के साथ है तो कोई बांग्लादेश के, कोई अमेरिका के तो कोई रूस के। निश्चित ही उन लोगों के लिए भारत के साथ होना आजादी के खिलाफ है।
बिगाड़ दिया भूगोल : हम सीमाओं की बात नहीं कर रहे हैं वहां तो नक्शा बिगड़ा हुआ है। जो नक्शा देखते और जो राष्ट्रगान गाते हैं उस पर हमें गर्व है लेकिन क्या यह सही है? पूरा पंजाब, सिंध और बंग कहां है? पीओके, अक्साई चीन किसके पास है? जिस भूमि की सीमा की रक्षा के लिए लाखों शहीद हो गए, हमारी संसद देखती रही उसे दुश्मन देशों के द्वारा हड़पते हुए। चारों तरहफ सीमाओं पर विवाद है। कौन-सा हमारा भू-भाग है और कौन-सा नहीं यह हमारे सांसदों को ही नहीं पता होगा।
खैर, सबसे ज्यादा दुःख तो इस बात का है कि जिस भारत भूमि के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया था उस भूमि से हमने उसका हरापन छीन लिया। छीन लिया उसके साफ और स्वच्छ आसमान से ताजा पवन के झोंके को। हमने हमारे ही पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियों को मारकर उन्हें लुप्त प्राय बना दिया। गौरय्या तो अब नजर नहीं आती।
नदियों पर कई डेम बनाकर हमने उनके स्वाभाविक बहाव को रोककर उसकी प्राकृतिक संपदाओं को नष्ट कर दिया है। अब दौड़ती नहीं नर्मदा, गंगा भी अब पूजा-पाठ और श्राद्धकर्म के नाम पर अधमरी हो गई है। यमुना के तट पर वंशीवट के हाल बेहाल हैं। विकास के नाम पर पहाड़ों को भी मैदान बना दिए जाने का दुष्चक्र जारी है, जिसके चलते अब ठहरते नहीं बादल। पिघलते हिमालय पर अब कोई साधु तपस्या के लिए नहीं जाता। जंगलों को बगीचे जैसा व्यवस्थित बनाकर लाभ का जंगल बनाए जाने का प्रस्ताव अभी विचाराधीन है।
आजादी के दुश्मन : आप कहते हैं कि कितने गंदे लोग हैं, कहीं भी कचरा फेंक देते हैं। कहीं भी थूक देते हैं, कहीं भी पेशाब कर देते हैं और कहीं भी वाहन खड़ा कर देते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि आपने यातायात के नियमों का कितना पालन किया। आप यह भी कहते हैं कि भाषा, प्रांत, जाति की सोच में जीने से देश का विखंडन हो जाएगा लेकिन आप कितना पालन करते हैं इस सोच का? धर्म, सेवा और राजनीति के नाम पर देश में लूट मची हुई है परंतु इस लूट के खिलाफ कोई आवाज बुलंद क्यों नहीं करता?
ज्यादातर लोग यह सोचते हैं कि देश ने हमारे लिए क्या किया? बहुत कम ही लोग यह सोचते हैं कि हमने देश के लिए क्या किया? देश तो लोगों से ही मिलकर बनता है फिर लोगों का यह सोचना कि देश ने हमारे लिए क्या किया, गलत ही होगा। जातिवादी और साम्प्रदायिक सोच, अलगाववाद, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, अपराधी, नेता और पुलिस की मनमानी, सूदखोर, जमाखोर, पूंजीवादी और जनवादी सोच की चालाकी से भरी राजनीति यह सब देश की आजादी के दुश्मन हैं। क्या आप नहीं चाहेंगे कि आजादी के इन दुश्मनों के खिलाफ पुन: नया 'आजादी बचाओ आंदोलन' छेड़ा जाए?'
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भारत में क्रांति क्यों नहीं होती?
वह क्या वजह है कि इस देश में पिछले 5 हजार वर्षों से क्रांति नहीं हो पाई है? दुनियाभर में क्रांतियां होती है, लेकिन भारत में क्रांति क्यों असफल हो जाती है? या क्रांति को असफल कर दिया जाता है। प्रकृति और सामाजिक तानेबाने को खत्म कर इस देश में शराब क्रांति, इंटरनेट क्रांति, मोबाइल क्रांति, फैशन क्रांति, बाजार क्रांति और सब तरह की क्रांतियां होती है। इन सभी क्रांतियों से क्या सचमुच ही देश का भला हुआ है?
यह कभी बहस नहीं होती कि 1857 की क्रांति असफल हुई या कुछ लोगों ने असफल कर दी? ऐसी कई क्रांतियां हैं जिन्हें असफल कर दिया गया। आंदोनल की बात करें तो जेपी के आंदोलन को लालू, मुलायम ने खत्म कर दिया तो अन्ना के आंदोलन को अरविंद ने। इसीलिए यह करने में कोई गुरेज नहीं कि हमें आजादी नहीं मिली हमें आजादी दी गई? क्या आप समझते हैं कि हमने क्रांति करके आजादी हासिल की? यह कुछ सवाल जिन पर चर्चा नहीं होती। कांग्रेस एक आंदोलन था, लेकिन अब वह एक पार्टी है। देश की सबसे भ्रष्ट पार्टी। जेपी का आंदोलन भी आंदोलन ही था लेकिन उनके आदर्शों पर चलकर कौन सी पार्टी ने देश के सिस्टम को बदल दिया? सब का सब वही है। हम वहीं 1947 के चौराहे पर खड़े हैं।
भारत आजादी के बाद से चौराहे पर खड़ा है। उसे पता नहीं कि अब किधर जाना है। पिछले सैकड़ों वर्षों में ऐसे कई मौके आए जबकि उसने अपने आप को चौराहे पर खड़ा पाया। अब किधर जाएं? क्योंकि संसद में बैठे नेताओं की सोच और गली में चौराहे पर खड़े नेता की सोच में कोई खास फर्क नहीं है। इसीलिए भारत की जनता को धकेला गया उन-उन रास्तों पर जिन रास्तों को या तो विदेशियों ने बनाया था या जिनको बाजार ने बनाया। आज भी भारत खुद के बनाए हुए नहीं, दूसरों के बनाए हुए रास्तों पर धकेले जाने के लिए तैयार खड़ा है। आखिर क्यों?
ऐसा नहीं है कि भारत के पास अपना खुद का कोई विचार नहीं है, कोई आइडियोलॉजी नहीं है? है, लेकिन उन सारे लोगों को जनता, राजनेता, धार्मिक नेता और व्यापारियों ने हाशिए पर धकेल रखा है, क्योंकि भारत पिछले हजार वर्षों से विदेशियों का भक्त बना हुआ है। यह आदत आजादी के 70 साल बाद भी जस की तस बनी हुई है। वही, अंग्रेजी कानून, वही अंग्रेजी शिक्षा और वही अंग्रेजी मानसिकता।
अंग्रेज काल में 200 साल तक हम सिस्टम के खिलाफ लड़े और फिर एक नया सिस्टम लाए, जिसे भानुमति का पिटारा माना जाता है। लेकिन क्या आजादी के इन 70 सालों में हमने सिस्टम के खिलाफ लड़ना छोड़ दिया? हम आज भी हमारे ही बनाए गए सिस्टम के खिलाफ लड़ रहे हैं। सवाल यह उठता है कि तब फिर हम किसके खिलाफ लड़ें?
व्यवस्था परिवर्तन का नारा लगाने वाले पहले भी कई लोग हुए हैं और इस माध्यम से उन्होंने सत्ता तक अपनी पहुंच बनाकर, वे भी उसी व्यवस्था-सत्ता का अंग बनकर रह गए। हमने देखी है फ्रांस, जर्मन, रूस, चीन, मिश्र आदि मुल्कों की क्रांतियां। क्रांतियों के बाद क्या समानता आ गई? क्या जीवन बेहतर हो गया? हमारी राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा वही है जो सदियों से चला आ रहा है। आधुनिकता के नाम पर हमने 'राजा' हटा दिए और 'प्रधानमंत्री' बना दिए। राजा हटा दिए और तानाशाह बना दिए। बस इससे ज्यादा कुछ नहीं किया। हमारी मानसिकता तो वही है।
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भटके हुए लोग : आप क्या समझते हैं कि भारत का युवा बहुत बुद्धिमान है? सचमुच आप सही समझे। जरा फेसबुक को टटोलिए। ट्वीटर को देखिए और इससे पहले आप अपनी स्कूली शिक्षा, कॉलेज का माहौल और जॉब प्लेसमेंट की प्रक्रिया को भी समझे। यदि आप समझदार हैं तो समझ जाएंगे कि हम क्या पढ़ते, क्या लिखते और क्या समझते हैं। हमारी सोच का दायरा कितना है।
जरा पूछिए इन युवाओं से खुद के देश के इतिहास के बारे में, राजनीति के बारे में और खासकर उन लोगों के बारे में जो अविष्कारक थे, वैज्ञानिक थे और दार्शनिक थे। इतनी दूर क्यों जाते हैं आप, कितने लोगों को मालूम है कि आजादी के आंदोलन में शहीद हो गए लोगों की कुल संख्या कितनी थी?
आज का युवा जहां रूढ़ीवाद, परंपरागत, कर्मकांडी सोच और बाबाओं के चक्कर में फंसा हुआ है, वहीं वह पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण कर नशे और सेक्स में लिप्त हो चला है तो दूसरी और नक्सलवादी और सांप्रदायिकता गतिविधियों में वह भारत के उद्धार की बात सोचने लगा है...क्यूं.? चारों ओर देखने पर लगता है कि सभी गायक बनना चाहते हैं, डांसर बनना चाहते हैं। कौन है जो देश के उद्धार की बात सोचता है?