महात्मा गाँधी ने भारत आकर अपना पहला महत्वपूर्ण भाषण 6 फरवरी 1916 को बनारस में दिया था। उस दिन भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग वहाँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास करने आए थे। महामना मदनमोहन मालवीय के विशेष निमंत्रण पर महात्मा गाँधी भी इस समारोह में शामिल हुए थे। समारोह की अध्यक्षता महाराज दरभंगा कर रहे थे। मंच पर लार्डहार्डिंग के साथ श्रीमती एनी बेसेंट और मालवीयजी भी थे।
समारोह में हीरे-जवाहरात जड़े बहुमूल्य आभूषणों से चमकते-दमकते बड़ी संख्या में देश के राजा-महाराजा भी शामिल हुए थे। ये लोग देश के कोने-कोने से तीस विशेष रेलगाड़ियों से आए थे। मालवीयजी के आग्रह पर जब महात्मा गाँधी बोलने खड़े हुए तो उनके अप्रत्याशित भाषण से सभी अवाक और स्तब्ध रह गए थे।
सर्वप्रथम उन्होंने समारोह की कार्रवाई एक विदेशी भाषा अँगरेजी में चलाए जाने पर आपत्ति की और दुख जताया। फिर उन्होंने काशी विश्वविद्यालय मंदिर की गलियों में व्याप्त गंदगी की आलोचना की। इसके बाद उन्होंने मंच पर और सामने विराजमान रत्नजड़ित आभूषणों से दमकते राजाओं-महाराजाओं की उपस्थिति को ' बेशकीमती जेवरों की भड़कीली नुमाइश' बताते हुए उन्हें देश के असंख्य दरिद्रों की दारुण स्थिति का ध्यान दिलाया। उन्होंने जोड़ा कि जब तक देश का अभिजात वर्ग इन मूल्यवान आभूषणों को उतारकर उसे देशवासियों की अमानत समझते हुए पास नहीं रखेगा, तब तक भारत की मुक्ति संभव नहीं होगी।
उन्होंने घोषित किया कि भारत को मुक्ति वकीलों, डॉक्टरों, धनपतियों और समृद्ध जमीदारों से नहीं बल्कि किसानों के उठ खड़े होने के बाद ही प्राप्त होगी। उन्होंने शहर के चप्पे-चप्पे पर वॉयसराय की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस और चौकसी व्यवस्था को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि ऐसा सुरक्षित जीवन 'जीवित-मृत्यु' के समान है जिसकी तुलना में हत्या कई माने में बेहतर होगी। यहाँ यह जानकारी दिलचस्प होगी कि गाँधी ने अपने इस स्वतःस्फूर्त भाषण में स्वयं को अराजकतावादी (एनार्किस्ट) घोषित किया था बिना अपने अराजकतावाद की व्याख्या के।
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भाषण के दौरान श्रीमती बेसेंट ने महात्मा गाँधी को रोकने की कई बार कोशिश की। अध्यक्ष महाराज दरभंगा ने उन्हें पाँच मिनट का समय देकर अपनी बात खत्म करने को भी कहा पर उन्होंने अपना भाषण जारी रखा। अंततः महाराज अलवर ने अपना विरोध दर्ज कराते हुए समारोह से सबसे पहले 'वाक आउट' किया। इसके बाद अध्यक्ष और श्रीमती बेसेंट के साथ अन्य राजे-महाराजे भी समारोह-मंडप से बाहर निकल गए। श्रीमती बेसेंट का मानना था कि गाँधी का इस तरह का उत्तेजक भाषण बारूद जैसे विद्यार्थियों के लिए विस्फोटक सिद्ध हो सकता था।
महात्मा गाँधी के भारत में इस पहले महत्वपूर्ण भाषण की सविस्तार चर्चा सोद्देश्य की गई है। इसे भारत में उनके भावी राजनीतिक मुहावरे को निर्धारित करने वाला बीज-भाषण कहा जा सकता है। इसके पहले ब्रिटिश साम्राज्य के भारत में सर्वोच्च प्रतिनिधि वॉयसराय के मुँह पर किसी ने इस तरह की दो-टूक बातें नहीं कही थीं। सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक आचार्य नरेंद्रदेव के अनुसार विदेशी शासन के दमन और उत्पीड़न के आतंक और भय से मुक्ति देश की जनता को महात्माजी की सबसे नायाब देन थी।
भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में महात्मा गाँधी के अपूर्व योगदान के बीज सन् 1909 में मूलरूप से गुजराती में लिखी उनकी छोटी सी पुस्तिका हिंद स्वराज में मिलते हैं। इस वर्ष इसकी शती है। हिंद स्वराज गाँधीजी की अकेली रचना है जिसका अनुवाद गुजराती मूल से अँगरेजी में 'इंडियन होमरूल' के नाम से उन्होंने स्वयं किया है। इसे सन 1910 में फीनिक्स आश्रम, नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) ने 20 मार्च को प्रकाशित किया था। गाँधीजी की आत्म कथा 'सत्य के प्रयोग' समेत उनके अधिकांश गुजराती लेखन के अँगरेजी अनुवाद महादेव भाई देसाई-उनके सचिव ने किए थे। स्पष्ट है गाँधीजी स्वयं "हिंद स्वराज" को कितना महत्व देते थे।
महात्मा गाँधी द्वारा 'हिंद स्वराज' में पश्चिमी सभ्यता की आलोचना पिछले सौ सालों में पूरब और पश्चिम दोनों जगहों में गंभीर विमर्श का विषय रही है। गाँधी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उभरे एक विरल चिंतक हैं जिनमें पश्चिम को पूरब की और पूरब को पश्चिम की दृष्टि से देखने की विलक्षण क्षमता रही है। उन्होंने 'हिंद स्वराज' सन 1909 में लिखा था पर जिन विषयों पर उसमें उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं इस पर वे कई वर्षों से अध्ययन और मनन कर रहे थे।
सन 1907 से उनके ' हिंद स्वराज' संबंधी विचार रूपाकार ग्रहण करने लगे थे जो नवंबर 1909 में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका की समुद्री यात्रा के दौरान कागज पर उतरे। गाँधी के अनुसार उपनिवेशवाद आधुनिक माने जाने वाली पश्चिमी सभ्यता का अभिशप्त उपहार था। उससे जूझने के लिए उन्होंने अपने धारदार हथियार खोजे, जो बीसवीं सदी में अनेक देशों के मुक्ति-संघर्ष में अदभुत रूप से कारगर सिद्ध हुए।
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आज उन्नीसवीं सदी का पूँजीवाद बीसवीं सदी को रौंदते हुए इक्कीसवीं सदी में कदम जमा चुका है। उन्नीसवीं सदी और आज के पूँजीवाद में जमीन-आसमान का अंतर है। इसका चेहरा अब अत्यंत मायावी हो चुका है। इसका सामना करने में आज तक विकसित सभी विचारसरणियाँ त्रासद रूप से अपर्याप्त सिद्ध हो रही हैं।
चीन जैसी प्रबल साम्यवादी व्यवस्था तक ने उसके सामने घुटने टेक दिए हैं। उसके अनिष्टकारी प्रभाव के फलस्वरूप निरंतर अधिकाधिक लोग उत्पादन और वितरण की व्यवस्था से पूरी दुनिया में बाहर होते चले जा रहे हैं। अप्रत्याशित असमानता और बेरोजगारी पूँजीवाद के स्वर्ग संयुक्त राज्य अमेरिका में भी विकराल समस्या बनती जा रही है।
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष अमेरिका के आर्थिक आतंकवाद के चलते विकास एक ऐसा मॉडल पूरी दुनिया पर लाद रहे हैं जो बहुत सारे देशों की समस्याओं के हल की जगह उन्हें और जटिल तथा असाध्य बना रहे हैं। ग्रामों के मॉडेल में कोई जगह ही नहीं बच पा रही है। शहरीकरण का दानव पूरी ग्राम्य-व्यवस्था को निगल जाने में लगभग कामयाब हो गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवनयापन के साधन लगातार तेजी से सामान्यजन की सामर्थ्य सीमा के बाहर होते चले जा रहे हैं।
गाँधी जी का स्वतंत्र-चिंतन एक व्यापक औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के ठेठ किन्तु तेजस्वी प्रयासों तक ही सीमित नहीं था बल्कि जीवन और जगत के वृहत्तर सरोकारों को अपनी परिधि में समेटे हुए भी था।
परिस्थितियाँ एक बार फिर उसकी रोशनी में तमाम अन्तर्विरोधों और विसंगतियों के साथ अपनी जीवन-शैली और समाज व्यवस्था पर पुनर्विचार की माँग कर रही है। भूमंडलीकरण के नाम पर पश्चिम का पूँजी प्रेरित आर्थिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपनिवेशवाद संसार को अपने विकराल और लुभावने नागपाश में जकड़ चुका है। यह विरोधाभास सा लगेगा पर गाँधीजी के ईमानदार प्रतिरोध के हथियार पूँजीपतियों के एजेंट कहकर दागे जाते रहे गाँधी में तलाशने में कोई हर्ज नहीं है।