Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

व्यवसाय पर भी एकाधिकार!

हमें फॉलो करें व्यवसाय पर भी एकाधिकार!
- सुरेन्द्र कांकरिया
21वीं सदी में आ रही आजादी की प्रत्येक वर्षगाँठ देश के विकास हेतु किए गए वादों का मूल्यांकन करने का वाजिब मापदंड भी है। लगभग पिछले 400 वर्षों से वनों की ओर धकेल दिए गए आदिवासी वर्ग का विकास इन वादों की सचाई को देखने का आईना है। इस दृष्टि से देखें तो आजादी की पहली आर्थिक किरण यहाँ आपातकाल के साए में आई।

बहुत संक्षिप्त दृष्टि से इतिहास को देखें तो कोई 400 वर्ष पूर्व झाबुआ जिले पर
ND
आदिवासी राजाओं का शासन था। लगभग कबीलाई तर्ज पर अपनी-अपनी उपजातियों के नाम से रियासतों में बँटे इन राजाओं को नायकवंशीय राजाओं ने पहली बार पराजित किया। अधीनता स्वीकार करने के बजाए ये जातियाँ वनों की ओर पलायन कर गईं। तब से आदिवासियों का जीवन वन आधारित हो गया।

सामाजिक दृष्टि से इनके उत्थान का पहला प्रयास सन्‌ 1890 के आसपास कैथोलिक मिशन के तहत किया गया। इसी के साथ झाबुआ जिले में ईसाई मिशनरीज का प्रवेश भी हुआ। शीघ्र ही यह प्रयास धर्मांतरण के रूप में सामने आया। 1936 में इस धर्मांतरण का पहला विरोध मामा बालेश्वरदयाल के नेतृत्व में किया गया। इसी के साथ 400 वर्ष में दुनिया कितनी बदल गई, इसका अहसास आदिवासी समाज को हुआ। 1936 से ही उसमें विकास की मुख्य धारा से जुड़ने की छटपटाहट भी शुरू हो गई।

वनों से गाँवों की ओर उनका आना 'हाली' बनाम घरेलू नौकर के रूप में शुरू हुआ। श्रेष्ठि वर्ग के घरों में काम करते आदिवासी युवकों ने अपनी आँखों से बाहरी दुनिया देखनी शुरू की तो वे साहूकारी शोषण का शिकार होने लगे।

वनों से जुड़ा उनका अर्थशास्त्र कृषि से जुड़ा जरूर, लेकिन अत्यंत न्यूनतम आवश्यकता के बावजूद उनकी कृषि उपज साहूकारी शोषण के कुटिल रास्तों में गुम हो जाती थी। यह क्रम आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी रहा। इंतिहा तो यह थी कि आजादी के बाद के सांसद व विधायक कभी साहूकारों व शहरी नेताओं के बंधुआ मजदूर की तरह व्यवहार करते थे। उनका अपना स्वतंत्र वजूद तो जैसे था ही नहीं। अशिक्षा व वनों से बाहर आने पर टूटकर बिखरता उनका आत्मविश्वास प्रमुख कारण थे।

आपातकाल में एक कदम 'ऋण मुक्ति' का भी था। झाबुआ जिले के गाँव-गाँव में ऋणमुक्ति के मेले लगे व सैकड़ों क्विंटल आभूषणों के साथ-साथ लाखों रुपए के आदिवासी ऋण साहूकारों को लौटाना पड़े। इस एकमुश्त राहत व शोषण पर वज्रपात ने इस जिले की दशा व दिशा ही बदल दी। एक तरह से 1975 में इस जिले को आर्थिक गुलामी से मुक्ति मिली।

इस बदलाव ने कम से कम तीन मोर्चों को एक साथ तत्काल प्रभावित किया। पहली बार 1975 में यहाँ का आदिवासी सरकारी रहमोकरम को छोड़कर स्वयं काम की खोज में जिले से बाहर गया। राहत कार्यों के नाम पर होने वाले भ्रष्टाचार से अलग उसने प्रतिदिन अपना श्रम भरपूर कीमत पर बेचने की कला सीखी। 1975 में ही उसे झाबुआ के 10 रु. के बदले कोटा में 30 रु. प्रतिदिन मिलने लगे।

दूसरा परिवर्तन उसने कृषि शैली में किया। मक्का, जुवार व मूँगफली पैदा करने वाले किसान ने सोयाबीन, कपास, टमाटर, मटरफली, गोभी जैसी फसलें पैदा करने का सफल साहस किया।

तीसरा बदलाव राजनीतिक शैली में आया। पहली बार वह किसी अन्य की राजनीतिक छाया से बाहर आया व स्वयं की राजनीतिक ऊँचाई को प्रदर्शित भी किया।

इन मोटे-मोटे तीन बदलावों ने इस जिले ही नहीं, पश्चिमी मध्यप्रदेश की आदिवासी संस्कृति में ही तूफान ला दिया। इस तूफान का अंदाज इसी से सहज लगाया जा सकता है कि अब झाबुआ जिले के प्रत्येक एक किलोमीटर पर कोई न कोई स्कूल मौजूद है। ढाई लाख से अधिक आदिवासी युवक-युवतियाँ जिले से बाहर स्थायी रोजगार प्राप्त कर रहे हैं।

झाबुआ जिले का एक भी ऐसा गाँव या फलिया नहीं है, जहाँ कोई न कोई दुपहिया, चार पहिया वाहन व मोबाइल फोन नहीं हो।

यहाँ का आदिवासी मुंबई की बॉलीवुड दुनिया में अपने श्रम का डंका बजा रहा है तो सेना के साथ भी वह देश की सीमाओं पर तैनात है। प्रत्येक 5 में से 4 ड्राइवर यहाँ आदिवासी हैं तो होटलों में वे लजीज व्यंजन भी बना रहे हैं।

इस जिले की लड़कियाँ पुलिस, स्वास्थ्य, प्रशासन जैसे महत्वपूर्ण विभागों के शीर्ष पदों तक पहुँच रही हैं। 1975 में औसतन 5 रु. प्रतिदिन, प्रति व्यक्ति कमाने वाले झाबुआ जिले का आर्थिक औसत 100 रु. को पार कर चुका है।

1975 तक व्यवसाय से पूर्णतः अनभिज्ञ आदिवासी अब फल, सब्जी के अलावा दवाई, कपड़े, जनरल स्टोर्स जैसे व्यवसाय करने लगे हैं।

झाबुआ जिले में दुपहिया वाहनों की बिक्री ने किस ऊँचाई को छुआ है, इसका अंदाज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस जिले के दुपहिया वाहन विक्रेता लगातार देश के श्रेष्ठ विक्रेता होने का पुरस्कार प्राप्त कर रहे हैं।

मजेदार तथ्य यह है कि यह समृद्धि बिना शासकीय सुविधा वाले क्षेत्रों में दर्ज हुई है। विकास को प्रदर्शित करने के लिए शासन के पास अपने आँकड़े हैं। अपनी विकास कथाएँ हैं। लेकिन इन शासकीय आँकड़ों से इतर भी विकास ने अपने दस्तावेज लिखे हैं।

आज झाबुआ जिले के आदिवासी समाज ने विभिन्न व्यवसायों में स्थापित महारथियों को मैदान से बाहर कर दिया है। खासकर वाहन परिचालन, भवन निर्माण, स्वल्पाहार जैसे व्यवसायों पर उसका एकाधिकार ही हो गया है। शैक्षणिक संस्थाओं में 90 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी केवल इसी वर्ग के हैं। अब आदिवासी किसी तंत्र, मंत्र से अपना इलाज नहीं करवाता, वह अब दवाइयों से जुड़ने लगा है। महानगरों की भव्यता के भय से अब वह मुक्त हो चुका है।

वनों को अब भी वह अपनी संपत्ति मानता है। विकास की तड़प अब उसमें 'उन्माद' का रूप लेने लगी है। इस उन्माद के चलते कई बार वह वर्ग संघर्ष की स्थितियाँ भी बना लेता है। विकास के उन्माद के चलते ही इस जिले में अँगरेजी शराब, घातक पाउच जैसी वस्तुओं की बिक्री के आँकड़े करोड़ों रु. के आँकड़ों को पार करने लगे हैं।

आदिवासी संस्कृति की अमूल्य धरोहर उसका भोलापन, काईयाँपन में बदलने लगा है। इस कारण गैर आदिवासी वर्ग, प्रशासन व अन्य स्तरों पर समस्याएँ भी आना शुरू हो गई हैं। स्वतंत्रता में स्वच्छंदता की बू आने लगी है। अगर इस ओर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो यह विकास अंधे विकास में भी तब्दील हो सकता है।

आजादी की इस वर्षगाँठ पर जबकि जिले के एक-एक ठौर पर राष्ट्रीय ध्वज को फहराने वाले जनप्रतिनिधि के रूप में केवल आदिवासी वर्ग के लोग ही मंत्री, विधायक, पंचायत प्रतिनिधि के रूप में मौजूद रहेंगे, तब यह संकल्प भी लेना होगा कि इस जिले का विकास ही आदिवासी का विकास कहलाएगा। इस जिले का विकास से भटकाव अंततः आदिवासी का ही भटकाव होगा।

सैकड़ों वर्षों की वन तपस्या के बाद अपने पुरुषार्थ से प्राप्त आर्थिक व सामाजिक आजादी को विकास के नशे में बर्बाद करने से बेहतर है कि विकास की राह को और प्रशस्त किया जाए, क्योंकि अभी कई और लोगों का इस रास्ते पर आना बाकी भी है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi