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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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आजादी के 61 वर्ष बाद कृषि

उजले देश का अंधेरा कोना

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महेंद्र तिवारी
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अपने 61 साल के आजाद सफर में तरक्की के जितने डग हिंदुस्तान ने भरे, उनमें माटी की भूमिका सबसे ज्यादा रही। पंडित नेहरू की पंचवर्षीय योजना हो या वर्गीस की श्वेत क्रांति। वह कृषि ही थी, जिसने नवनिर्माण काल में देश का पोषण किया तो वैश्वीकरण के दौर में भी करोड़ों भारतीयों का पेट भरा।

एमएस स्वामीनाथन की हरित क्रांति के रूप में देश को समृद्धि का स्वाद तो चखाया, इसके जरिए दुनियाभर में भारत को ख्याति भी दिलाई। यह दीगर बात है कि वक्त के साथ देश के दिल में 'माटी' के लिए जगह कम पड़ती गई।

धरती का लाल कभी समर्थन मूल्य को लेकर लड़ता दिखा, तो कहीं गुणवत्ताविहीन खाद-बीज के कारण उसे सरकारी दफ्तरों की खाक छानना पड़ी। सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन उसका मुस्तकबिल हमेशा उजाले के लिए तरसता रहा। नेताओं ने उसकी मजबूरी से वोट बनाए, तो साहूकारों ने अपनी तिजोरियाँ भरीं।

   धरती का लाल कभी समर्थन मूल्य को लेकर लड़ता दिखा, तो कहीं गुणवत्ताविहीन खाद-बीज के कारण उसे सरकारी दफ्तरों की खाक छानना पड़ी। सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन उसका मुस्तकबिल हमेशा उजाले के लिए तरसता रहा।      
जब इनका पेट भर गया तो गुजिश्ता कुछ सालों में नकली बीज और कीटनाशक विक्रेताओं ने उसे तिल-तिल मरने पर मजबूर कर दिया। 'हल' का हलक हमेशा हक के लिए हुँकार ही भरता रहा। कभी सोना बनाने वाला आज मौत की नींद सोने को मजबूर है।

कहने को कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। देश की सत्तर फीसदी आबादी इसी पर पलती है। करीब 43 प्रतिशत हिस्से पर खेती होती है। भारत के कुल निर्यात का 8.56 फीसदी हिस्सा कृषि से आता है।

कृषि उत्पादन में भारत विश्वभर में दूसरे स्थान पर है। यह दूध, सूखे मेवे, चाय, अदरक, हल्दी और काली मिर्च पैदा करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है। विश्व की सबसे बड़ी पशु संख्या (193 मिलियन) भी यहीं पायी जाती है। गेहूँ, चावल, शकर और मूँगफली में भी यह दुनिया में दूसरे स्थान पर है। तंबाकू की पैदावार में भारत तीसरे पायदान पर है। विश्व के दस प्रतिशत हिस्से को फलों की आपूर्ति भारत ही करता है। इनमें सर्वाधिक निर्यात केला और चीकू का किया जाता है।

पंजाब गेहूँ की पैदावार में सिरमौर है तो दक्षिण भारतीय राज्य जैसे आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल चावल के उत्पादन में अग्रणी माने जाते हैं। अनाज उगाने में हरियाणा आत्मनिर्भर तो है ही, देश को अनाज मुहैया कराने वाला दूसरा सबसे बड़ा राज्य भी।

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इस सबके बावजूद बीते एक दशक में आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र के कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विदर्भ इसकी जीती-जागती मिसाल है। महाराष्ट्र का यह हिस्सा आज अपनी भौगोलिक संरचना या दूसरी चीजों के लिए नहीं, बल्कि तंगहाली के कारण मौत को गले लगाते किसानों के लिए जाना जाता है।

हालात से लड़ते-लड़ते वहाँ के काश्तकारों के लिए खेती करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। मतलबपरस्त व्यवस्था, अनियमित मानसून और महँगी लागत ने उसे तोड़कर रख दिया है। कभी ओले किसान को खून के आँसू रोने पर मजबूर कर देते हैं, तो कभी बेरहम सूखा उसके माथे पर चिंता की सिलवटें ले आता है।

आँकड़ों के आईने में झाँके तो भारतीय कृषि का कुल क्षेत्रफल जहाँ साल-दर-साल कम होता जा रहा है, वहीं सकल घरेलू उत्पाद में उसकी हिस्सेदारी गिरावट के नित-नए रिकॉर्ड बना रही है। तमाम सरकारी योजनाएँ और ऋण माफी जैसे प्रलोभन भी उसका भरोसा नहीं जीत पा रहे हैं। कभी सोना उगलने वाली जमीनें सीमेंट-कांक्रीट के जंगलों की जमीन तैयार कर रही हैं।

  एक किसान बाप अब अपने बच्चे के हाथ में बक्खर सौंपने के बजाय दस-बीस रुपए प्रति सैकड़ा की दर से ब्याज पर कर्ज लेकर उसे शहर की तालीम दिलाना बेहतर समझता है, ताकि डूबती खेती के बीच उसकी जिंदगी जमाने के साथ कदमताल कर सके      
उन पर अब फसलें पैदा नहीं होतीं। भू-माफिया के लोग उसकी बोली लगाते हैं। जैसे-जैसे शहर की भूख बढ़ रही है, खलिहानों का दामन लगातार छोटा हो रहा है।

दो जून की रोटी और एक अदद छत की तलाश में गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं। एक किसान बाप अब अपने बच्चे के हाथ में बक्खर सौंपने के बजाय दस-बीस रुपए प्रति सैकड़ा की दर से ब्याज पर कर्ज लेकर उसे शहर की तालीम दिलाना बेहतर समझता है, ताकि डूबती खेती के बीच उसकी जिंदगी जमाने के साथ कदमताल कर सके। जाहिर है ताजा सूरते हाल में उसका जमीर इस बात के लिए राजी नहीं है कि बेटा भी इस बदहाली और बेबसी से जद्दोजहद करे।

देश को आज भले ही आर्थिक विकास दर, जीडीपी और इस जैसी कई अन्य शब्दावलियों में उलझाकर मौजूदा स्थिति की सुनहरी तस्वीर पेश की जा रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि जिस कृषि से ये आँकड़े बनते हैं, उस पर बदहाली का कब्जा है। मनुष्य के स्वार्थ ने उसके सीने में सूखे की कील ठोंक दी है, तो कुदरत का कहर उसके होठों से दरार बनकर उभर रहा है।

वैश्वीकरण, मुक्त व्यापार समझौता और कृषि नीति केवल बुद्धिजीवियों के समझने-समझाने और बहस के मुद्देभर हैं। उससे इनका फायदा कोसों दूर है, जिसे असल में इनकी जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि कृषि की तरफ विकासशील भारत की यह उदासीनता उसके बुरे भविष्य की वजह बन जाए, इसलिए आजादी के इस उत्सव में हम थोड़ा अपनी माटी के बारे में भी गंभीरता से सोचें...।

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