सिनेमा के 60 बरस
आजादी के बाद हिंदी फिल्मों का सफर
आजाद भारत के साथ-साथ हिंदी सिनेमा ने भी 60 वर्षों का सफर पूरा किया है। इस पूरे दौर में सिनेमा ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अपने खाते में दर्ज कीं। समय के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सुर और मुखर हुए। इन 60 सालों में भारतीय सिनेमा के कई यादगार क्षण है। हिंदी सिनेमा के इन साठ वर्षों पर एक नजर :
सेंसर बोर्ड का गठन
वर्ष 1949 में सिनेमेटोग्राफिक एक्ट ऑफ इंडिया लागू किया गया। इस एक्ट के जरिए हिंदी सिनेमा को दो श्रेणियों में विभक्त किया गया। पहली श्रेणी U यानी कि यूनीवर्सल एक्जीबिशन की थी। इस श्रेणी में आनी वाली फिल्में सभी आयु वर्ग के दर्शकों के लिए होती थीं। दूसरी श्रेणी A, यानि कि वयस्क फिल्मों की श्रेणी थी, जिन्हें देखने की अनुमति सिर्फ वयस्क दर्शकों को ही होती थी।
मुख्यमंत्री ने लगाया प्रतिबंध:
वर्ष 1950 में अशोक मुखर्जी की फिल्म ‘संग्राम’ को गुजरात में प्रदर्शित नहीं होने दिया गया। प्रदर्शन के 16 सप्ताह बाद गुजरात के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध फिल्म में बहुत अधिक हिंसात्मक दृश्य होने की वजह से लगाया गया था।
प्रथम अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह:
वर्ष 1952 में मुंबई में देश का पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित किया गया। इस समारोह में विश्व के विभिन्न हिस्सों के नामी फिल्मकारों ने शिरकत की।
फिल्मों को मिले राष्ट्रीय पुरस्कार
फिल्म कला को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की शुरुआत हुई। वर्ष 1953 में सर्वश्रेष्ठ सिनेमा का पहला राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने का गौरव मराठी फिल्म ‘श्यामची आई’ को प्राप्त हुआ।
पाथेर पाँचाली:
वर्ष 1955 में भारतीय सिनेमा को सत्यजीत राय ने पाथेर पांचाली जैसी क्लासिक फिल्म का तोहफा दिया। यह सत्यजीत राय की विश्वविख्यात श्रृँखला अपु त्रयी की पहली फिल्म थी। इस फिल्म ने भारतीय सिनेमा को विश्व मंच पर एक नई पहचान दिलाई। विदेशों में इस फिल्म को बहुत पसंद किया गया।
वैश्विक हुआ भारतीय सिनेमा वर्ष 1957 में भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बहुत सराहा गया। इसी वर्ष राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ ने कार्लोवी वारी फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता। सेन फ्रांसिस्को में पाथेर पाँचाली को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला। फिल्म ‘मदर इंडिया’ को ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। मनोज कुमार का देशप्रेम
साठ के दशक की सुपरहिट फिल्म ‘उपकार’ में मनोज कुमार जब सिल्वर स्क्रीन पर ‘मेरे देश की धरती’ गुनगुनाते हुए दिखे तो आम भारतीय दर्शकों ने टिकट खिड़की पर रुपयों की बरसात कर दी। मनोज कुमार ने अपने समय में बॉलीवुड को देशभक्ति के रंग से रंग दिया। ‘शहीद’, ‘उपकार’ और ‘पूरब और पश्चिम’ के बाद से मनोज कुमार की छवि भारत कुमार की बन गई। महाकाव्यात्मक फिल्मों की शुरुआत:साठ के दशक में 15 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद के. आसिफ का ख्वाब ‘मुगल-ए-आजम’ सिनेमा के पर्दे पर साकार हुआ। उस समय इस फिल्म की लागत डेढ़ करोड़ रुपए आई थी। इसे सिनेमा में भव्यता की शुरुआत कहा जा सकता है। यह फिल्म सुपरहिट हुई और आज भी हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है।समांतर सिनेमा की नई धारा भारत में यथार्थवादी सिनेमा के खाते में आम दर्शकों की तालियाँ और सीटियाँ भले ही न लिखी हों, फिर भी कुछ समर्पित फिल्मकार कला सिनेमा में अपना अद्वितीय योगदान जरूर देते रहे। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी सरीखे फिल्मकारों ने समांतर सिनेमा की नई धारा की शुरुआत की। श्याम बेनेगल ने कुछ नए और यथार्थवादी सिनेमा के साथ फिल्म जगत में प्रवेश किया। बेनेगल ने ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘मंथन’ जैसी बेहतरीन कृतियाँ हिंदी फिल्म उद्योग को दीं। वहीं गोविंद निहलानी ने ‘आक्रोश’ और ‘दृष्टि’ जैसी फिल्में बनाकर सिनेमा को नए रूप में परिभाषित किया।
सुपर स्टार बने काका
वर्ष 1966 में अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़कर राजेश खन्ना फिल्म उद्योग में दाखिल हुए। उनकी पहली फिल्म ‘आखिरी खत’ को विशेष सफलता नहीं मिली। लेकिन इस फिल्म ने बॉलीवुड को एक नया सितारा जरूर दे दिया था। उसके बाद का पूरा दौर सुपर स्टार राजेश खन्ना का दौर है। 1969 में ‘आराधना’, 1970 में ‘आनंद’, 1971 में ‘अमरप्रेम’ और इसके बाद ‘अंदाज’, ‘बावर्ची’ जैसी सुपरहिट फिल्में देकर राजेश खन्ना लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गए। राजेश खन्ना का जादू युवाओं पर कुछ इस तरह चला कि कपड़ों से लेकर बालों को सँवारने तक में लोग उन्हीं की नकल करने लगे। राजेश खन्ना के बाद ऐसी लोकप्रियता कम ही सितारों को नसीब हुई।
अमिताभ बने शहंशाह
1969 में सात हिंदुस्तानी फिल्म से अपने फिल्मी करियर की शुरुआत करने वाले अमिताभ बच्चन ने अस्सी के दशक तक बॉलीवुड के सिंहासन पर अपना एकछत्र राज्य स्थापित कर लिया। ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘त्रिशूल’ ‘मुकद्दर का सिकंदर’ और ‘डॉन’ जैसी हिट फिल्मों ने उन्हें लोकप्रियता के सबसे ऊँचे पायदान पर पहुँचा दि'या। 1975 में आपातकाल के बाद आम भारतीयों के आक्रोश को अमिताभ ने फिल्मों में बेहतरीन अभिव्यक्ति दी और अमिताभ की छवि एक एंग्री यंग मैन की बन गई।
रूमानियत और हास्य का दौर
नब्बे के दशक की शुरुआती फिल्मों में प्यार और मोहब्बत का रंग छाया रहा। लेकिन इस वक्त तक बॉलीवुड एक ऐसे कैनवास का रूप ले चुका था , जिस पर हर रंग की तूलिका चलाने की छूट फिल्मकारों के पास थी। इस दशक में खान सितारों ने दर्शकों का दिल जीता। गोविंदा और डेविड धवन की जोड़ी ने दर्शकों को खूब हँसाया। वहीं मणिरत्नम और रामगोपाल वर्मा नए विचारों के साथ बॉलीवुड की जमीन को सींचते रहे।
एक बार फिर चढ़ा वसंती रंग
वर्ष 2000 के दशक में आशुतोष गोवारीकर की फिल्म लगान ने देशभक्ति की खुशबू से बॉलीवुड को महकाया। इसी दशक में आशुतोष गोवारीकर, करण जौहर, मधुर भंडारकर, विशाल भारद्वाज और संजय लीला भंसाली जैसे निर्देशकों का उदय हुआ, जिनके पास एक नई दृष्टि, विचार और आधुनिक तकनीक है। इसी दौर में राकेश मेहरा ने ‘रंग दे बसंती’ बनाकर नवीनतम संदर्भों में देशभक्ति का सवाल उठाया और बॉलीवुड को नए वसंती रंग में रंग दिया।
प्रयोगधर्मी सिनेमा की शुरुआत
समय के साथ हिंदी सिनेमा में प्रयोगधर्मिता का विकास हुआ है। जो विषय अब तक संवाद से भी अछूते थे, वे अब सिनेमा का विषय बनने लगे हैं। ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘ऊप्स’, ‘फायर’ और ‘माय ब्रदर निखिल’ इसी कड़ी की फिल्में हैं। विवाहेतर रिश्तों और समलैंगिक संबंधों पर बन रही फिल्में संबंधों को नए नजरिए से परिभाषित कर रही हैं।
प्रस्तुति : नूपुर दीक्षित