* आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘लगान’ को देशभक्ति की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन क्रिकेट के खेल के जरिये उन्होंने देशवासियों में देश-प्रेम का जो जज्बा जगाया वो आज तक गूँज रहा है।
* सन् 1945 से 1965 तक फिल्म गीत-संगीत का स्वर्ण-काल अब आयटम-सांग-डांस और रीमिक्स के मिक्सर में टुकड़े-टुकड़े हो चुका है। आज फिल्मों के गाने सुनने के बजाय देखने की ‘चीज’ हो गए हैं।
* पचास के दशक में मद्रास के जेमिनी स्टुडियो के दो नंग-धड़ंग बच्चे बिगुल बजाते उत्तर भारत के फिल्म बाजार में हिन्दी की पारिवारिक फिल्में उतारते थे। अम्मा रोटी दे, बाबा रोटी दे। लखनऊ चलो अब रानी, बम्बई का बिगड़ा पानी जैसे गीत गाकर पूरा परिवार फिल्म के अंत में ग्रुप फोटो जरूर उतरवाता था। इन फिल्मों में बलराज साहनी बड़े भाई या पिता का रोल निभाकर अपनी पत्नी निरूपा राय के साथ हमेशा पेटी-बिस्तर तैयार रखते थे। जब मौका मिला घर से बाहर निकल पड़ते थे। पीछे से पंडित प्रदीप गा उठते थे- चल उड़ जा रे पंछी।
* और इन आजादी के साठ सालों में भारत के 5 लाख 60 हजार गाँव फिल्मों से गायब हो गए। अब इक्का-दुक्का फिल्मों में जैसे ‘मुंबई से आया मेरा दोस्त’ या फिर रंगीन ‘नया दौर’ में ही गाँवों को देख पाते हैं।
* फिल्मों से गाँव गायब करने में यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर और सूरज बड़जात्या का जबरदस्त हाथ है। यश चोपड़ा की रोमांटिक फिल्मों में शानदार कपड़े पहनकर शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, रानी मुखर्जी या प्रीति जिंटा सिनेमा हॉल बराबर ड्राइंग रूम में मस्ती से गाते-नाचते हैं और सबके दिल में कुछ-कुछ होने लगता है।
* सूरज बड़जात्या ने पारंपरिक फिल्मों की परंपरा को जीवित भले ही रखा हो, लेकिन एक साधारण से प्रोफेसर का शानदार घर उसमें मौजूद है। पचासों रिश्तेदार दोनों हाथ में लड्डू लेकर नाचते-गाते हैं। वाह भई सूरज, तुमने तो रात को भी चमका कर दिन में बदल दिया।
* सन् 2001 से बॉलीवुड में फिल्म निर्देशकों की कनाडा, अमेरिका, यूरोप से बाढ़ आ गई है। वे विदेशी चश्में लगाकर देसी फिल्में धड़ाधड़ बना रहे हैं। किसी भी फिल्म का न सिर है न पैर। न आरंभ है न दि एंड। एक जैसी थीम। एक जैसा ट्रीटमेंट। हर शुक्रवार दर्शक बॉक्स ऑफिस पर ठगा जा रहा है।
* हाल ही में यश चोपड़ा की ‘चक दे इंडिया’ ने हॉकी जैसे उपेक्षित खेल को चमकाने की कोशिश की है वरना टेक्नालॉजी फिल्म वालों के सिर पर चढ़कर बोल रही है। फिल्मों का जो जादू पचास-साठ-सत्तर के दशक में दर्शकों को चुम्बक की तरह खींचता था वह जादू अब नदारद है।
* बीते साठ साल में विज्ञापन फिल्मों का दबदबा बढ़ा है। चौबीस घंटे समाचार उगलते सैटेलाइट चैनलों की आमदनी का खास जरिया ‘अण्डरवियर’ के उत्तेजक विज्ञापन रहे हैं। भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रायल ने ऐसे दो अश्लील और भड़काऊ अण्डरवियर विज्ञापनों को अंडरग्राउण्ड के आदेश क्या दिए, विज्ञापन एजेंसियों ने हंगामा बरपा दिया है।