राजा पृथु के राज्यकाल में ढुंढी नाम की एक बहुत की ताकतवर व चालाक राक्षसी थी। वह इतनी निर्मम थी, बच्चों तक को खा जाती। उसने देवताओं की तपस्या कर यह वरदान भी प्राप्त किया था कि उसे को देव, मानव, अस्त्र-शस्त्र नहीं मार सकेगा और न ही उस पर गर्मी, सर्दी व वर्षा आदि का कोई असर होगा। इसके बाद तो उसने अपने अत्याचार और भी बढ़ा दिए। किसी को भी उसका वध करने में सफलता नहीं मिल रही थी।
सभी उससे तंग आ चुके थे। लेकिन ढुंढी भगवान शिव के शाप से भी पीड़ित थी। इसके अनुसार बच्चे अपनी शरारतों से उसे खदेड़ सकते थे व उचित समय पर उसका वध भी कर सकते थे।
जब राजा पृथु ने राज पुरोहितों से कोई उपाय पूछा तो उन्होंने फाल्गुन पूर्णिमा के दिन का चयन किया क्योंकि यह समय न गर्मी का होता है न सर्दी का और न ही बारिश का। उन्होंने कहा कि बच्चों को एकत्रित होने को कहें। आते समय अपने साथ वे एक-एक लकड़ी भी लेकर आएं। फिर घास-फूस और लकड़ियों को इकट्ठा कर ऊंचे-ऊंचे स्वर में मंत्रोच्चारण करते हुए अग्नि जलाएं और प्रदक्षिणा करें।
इस तरह जोर-जोर हंसने, गाने व चिल्लाने से पैदा होने वाले शोर से राक्षसी की मौत हो सकती है। पुरोहित के कहे अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन वैसा ही किया गया। इस प्रकार बच्चों ने मिल-जुल कर धमाचौकड़ी मचाते हुए ढुंढी के अत्याचार से मुक्ति दिलाई।
आज भी होली के दिन बच्चों द्वारा शोरगुल करने, गाने-बजाने के पीछे ढुंढी से मुक्ति दिलाने वाली कथा की महत्ता है। हुरियारों की टोली, रंग-गुलाल, ऊंची आवाज में मस्ती और हल्के शब्दों के चलन के पीछे भी इसी मान्यता का राज है।