हिंदू अरेंज्ड मैरिज करने का सही तरीका क्या है, स्टेप बाई स्टेप प्रक्रिया और 7 फेरे के 7 वचन

कैसे करते हैं हिंदू विवाह, जानिये परंपरा और रिवाज

WD Feature Desk
सोमवार, 4 मार्च 2024 (13:39 IST)
Hindu vivah kya hai: धर्मशास्त्रों के अनुसार हिंदू विवाह एक समझौता नहीं है। यह भोगविलासिता का साधन भी नहीं है। हिन्दू विवाह 16 संस्कारों में से एक धार्मिक संस्कार है। शास्त्रों के अनुसार विवाह आठ प्रकार के होते हैं। विवाह के ये प्रकार हैं- ब्रह्म, दैव, आर्श, प्राजापत्य, असुर, गन्धर्व, राक्षस और पिशाच। इसमें से ब्रह्म विवाह को ही धर्म शास्त्रों ने मान्यता दी है। वर्तमान में सभी हिंदू इसी विवाह पद्धिति को अपनाते हैं जिसमें स्थानीय संस्कृति के अनुसार उनके रीति रिवाज भले ही भिन्न हो।
 
ब्रह्म विवाह क्या है : दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह उसकी समहित से निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। विवाह करके एक पत्नी व्रत धारण करना ही सभ्य मानव की निशानी है। शिव और पार्वती और श्रीराम और सीता ने इसी विवाह का पालन किया था।
 
हिंदू अरेंज्ड मैरिज का सही तरीका:-
  1. हिन्दू धर्मानुसार विवाह एक ऐसा कर्म या संस्कार है जिसे बहुत ही सोच-समझ और समझदारी से किए जाने की आवश्यकता है।
  2. किसी भी लड़के या लड़की के विवाह योग हो जाने पर माता पिता उसके लिए योग वर या वधु ढूंढते हैं।
  3. दूर-दूर तक रिश्तों की छानबिन किए जाने की जरूरत है।
  4. पहले इस कार्य के हेतु रिश्‍तेदारों के अलावा किसी ज्योतिष और पुरोहित की मदद भी ली जाती थी।
  5. जब योग वर या वधु मिल जाते हैं तो नाड़ी दोष और मंगल दोष का मिलान किया जाता है।
  6. नाड़ी दोष और मंगल दोष का निवारण होने के बाद लड़के और लड़की की आपसी सहमति से रिश्ता तय होता है।
  7. रिश्ता तय होने के बाद तिलक की रस्म निभाई जाती है।
  8. तिलक की रस्म के 1 से 3 माह के अंदर सगाई की रस्म पूर्ण करते हैं।
  9. जब दोनों ही पक्ष सभी तरह से संतुष्ट हो जाते हैं तभी इस विवाह को किए जाने के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है।
  10. सगाई की रस्म पूर्ण होने के 3 माह बाद उचित मुहूर्त देखकर विवाह किया जाता है।
 
मांगलिक दोष और नाड़ी दोष : मांगलिक दोष मात्र 20 प्रतिशत ही बाधक बन सकता है। वह भी तब जब अष्टमेश एवं द्वादशेश दोनों के अष्टम एवं द्वादश भाव में 5 या इससे अधिक अंक पाते हैं। मांगलिक के अलावा यदि अन्य मामलों में कुंडली मिलती है तो विवाह सुनिश्चित कर दिया जाता है। अत: मंगल दोष कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं होती है। समस्या नाड़ी दोष ही है। यह माना जाता है कि नाड़ी मिलान नहीं होता है तो यह विवाह नहीं करना चाहिए।
ram sita vivah
विवाह की रस्म:-
- वैदिक पंडितों के माध्यम से विशेष व्यवस्था, देवी पूजा, वर वरण तिलक, हरिद्रालेप, द्वार पूजा, मंगलाष्टकं, हस्तपीतकरण, वरमाला, मर्यादाकरण, पाणिग्रहण, ग्रंथिबन्धन, प्रतिज्ञाएं, प्रायश्चित, शिलारोहण, सप्तपदी, शपथ आश्‍वासन आदि रीतियों को पूर्ण किया जाता है।
 
- वर द्वारा मर्यादा स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपे और वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। यह क्रिया हाथ से हाथ मिलाने जैसी होती है। मानों एक दूसरे को पकड़कर सहारा दे रहे हों। 
 
- कन्यादान की तरह यह वर-दान की क्रिया तो नहीं होती, फिर भी उस अवसर पर वर की भावना भी ठीक वैसी होनी चाहिए, जैसी कि कन्या को अपना हाथ सौंपते समय होती है। वर भी यह अनुभव करें कि उसने अपने व्यक्तित्व का अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं गतिविधियों के संचालन का केन्द्र इस वधू को बना दिया और अपना हाथ भी सौंप दिया। 
 
- दोनों एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए एक दूसरे का हाथ जब भावनापूर्वक समाज के सम्मुख पकड़ लें, तो समझना चाहिए कि विवाह का प्रयोजन पूरा हो गया।
 
- इसके बाद 7 वचनों के साथ ही सात फेरे लिए जाते हैं।
विवाह के 7 फेरे के 7 वचन- saat phere vachan:-
विवाह के समय पति-पत्नी अग्नि को साक्षी मानकर एक-दूसरे को सात 7 वचन देते हैं। इसे सप्तपदी कहा जाता है।
 
1. तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।
 
(यहां कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)
 
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नी का होना अनिवार्य माना गया है। पत्नी द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नी की सहभा‍गिता व महत्व को स्पष्ट किया गया है।
 
2. पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!
 
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)
 
यहां इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रख वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
 
3. जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं!!
 
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे यह वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं।)
 
4. कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।।
(कन्या चौथा वचन यह मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दा‍यित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं।)
 
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
 
5. स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्‍त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!
(इस वचन में कन्या कहती जो कहती है, वह आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वह कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)
 
यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
 
6. न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आपको दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।) 
 
7. परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमंत्र कन्या!!
(अंतिम वचन के रूप में कन्या यह वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)
 
इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।

क्यों करते हैं ब्रह्म विवाह :- मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण- ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-यागादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा उचित रीति से ब्रह्म विवाह करके पितरों के श्राद्ध-तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है। इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सदधर्म का पालन करने की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में ब्रह्म विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।

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