बसंत फिर बहराएगा

Webdunia
-दिलीप गोविलकर
 
रोज बैंक के लंच अवर्स में हम सभी सहकर्मी अपने-अपने टिफिन लेकर बैठ जाते हैं। यही एक वह समय होता है, जब सुवासित भोजन ग्रहण करते-करते अपने पारिवारिक सुख-दुखों को आपस में साझा करते हैं।

 
आज भी हम सब अपने-अपने टिफिन खोलकर बैठे ही थे कि बैंक की एकमात्र महिला सहकर्मी ने चहककर स्वैच्छिक सेवानिवृत्त ले लेने का निर्णय सुनाया, मानो सबको सांप सूंघ गया। दो मिनट तक मुंह का निवाला मुंह में ही फ्रिज हो गया, एक पल तो लगा कहीं यह सपना तो नहीं? 
 
पर अगले ही पल हमारे लेखापाल (जो लंच में हमारे साथ नहीं बैठते) स्तब्धता को चीरते हुए पान से लबरेज अपनी खींस निपोरते हुए बोले, 'सब यही कहते हैं भैया, जब जवाबदारी आती है तो जवाबदारी से बचने का यही तरीका अपनाते हैं, पर वास्तव में भला पैसा किसे बुरा लगता है? अपने कपूर को ही देखो, इस्तीफा देने के बाद वापस ले लिया कि नहीं? अरे लोग तो रिटायरमेंट के बाद भी संविदा की जुगत भिड़ाते हैं। हमें मत बताओ, हमने भी इतने साल झक नहीं मारी है। लगी-लगाई नौकरी छोड़ने के लिए कलेजा चाहिए।' 
 
मुझे लगा कि लेखापाल महोदय की बात में तो दम है इसलिए लेखापाल के ये बोल वचन तात्कालिक राहत तो दे रहे थे किंतु फिर भी न जाने क्यों अनचाहे खतरे को भांपकर मन उदास हो रहा था। कहीं वे सचमुच तो नहीं कह रही हैं? बैंक में वैसे भी स्टाफ की कमी है, उस पर भी ऐसे वर्कर का सेवानिवृत्ति लेने का निर्णय मानो पहाड़ टूट पड़ा हो।
 
मिसेस सुरेखा। जैसा नाम वैसा ही रूप। 45 की उम्र को मैडम ने कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। किसी भी रंग की साड़ी हो, मैचिंग पर्स और मोबाइल कान से हमेशा सटा। बॉब कट कटे हुए बाल और बालों को हल्के से झटककर वे बोलती हैं तो ऐसा लगता है, मानो आकाशवाणी हो रही है। 
सभी मैडम के इस कदर दीवाने हैं कि हमारे कुछ ग्राहक तो एटीएम की सुविधा होते हुए भी पैसे निकालने ब्रांच में हर 1-2 दिन में आ ही जाते हैं और बैलेंस कम होने के कारण बिना पैसे निकाले वापस चले जाते हैं। मैं जानता हूं कि उनकी यह सोची-समझी चाल होती है, परंतु वे क्या करें? सुरेखा मैडम का जादू ही कुछ ऐसा है। सीनियर सिटीजन पहले पूछते हैं, 'मैडम हैं क्या?' मैडम के छुट्टी पर होने की बात सुन उल्टे पांव लौट जाते हैं। जब मैडम छुट्टी से वापस आएंगी तब आएंगे एफडी कराने।
 
मैंने एक परिचित को ताना मारा, 'दादा, मुंह में दांत नहीं।' 
 
बीच में ही मुझे टोंककर वे बोले, 'बेटा, ऐसी बात नहीं है। बात करने का ढंग भी कुछ होता है बेटा।' मैडम अपना समझकर फायदे की राय देती हैं तो बताओ हम इधर-उधर क्यूं जाए?' 
 
दादा की बात मेरे दिल को छू गई और हमें महसूस हुआ कि मैडम की कस्टमर डीलिंग की टेक्निक का हम सभी को अनुसरण करना चाहिए। मैडम ने बैंक को जैसे ही वीआरएस का नोटिस दिया क्या, बैंककर्मी-बैंक कस्टमर भी मैडम को अपना निर्णय बदलने के लिए जोर डालने लग गए। 
 
हमारे असिस्टेंट ब्रांच मैनेजर पहले तो 8-10 दिन छुट्टी पर चले गए। लौटकर आए तो बुझे-बुझे अनमने से। पूछा तो पहले बोले, 'अभी तबीयत ठीक नहीं हुई है', पर हम तो समझते थे उनके दिल की बात। बड़े दिलफेंक, पर बेहद शर्मीले। कम्प्यूटर की आड़ में कनखियों से अपलक मैडम के सौन्दर्य को निहारते रहने की आदत से स्वयं मैडम भी अनजान नहीं थी। 
 
कई बार गुस्से में मैडम ने मुझसे यह बात शेयर करते हए चेताया था, 'शर्माजी, समझा देना वरना इनकी दोनों आंखों को विपरीत दिशा में कर दूंगी।' 
 
परंतु मैडम को अपने स्टेटस का भी ख्याल रखना था, सो गुस्सा शांत होने के बाद चुपके से मुझसे पूछ लेती थी, 'कुछ कहा तो नहीं उन्हें? रहने भी दो कुछ मत कहना?' आखिर महिला है, वह भी करुणामयी।
 
हमारी ब्रांच का चपरासी जिस पैनी नजरों से मैडम को घूरता है, उससे उसकी बिरादरी का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। इस पर आज के सभ्य समाज में अभी भी महिलाकर्मियों के प्रति पुरुषकर्मियों के क्या विचार हैं, इस पर कभी न खत्म होने वाली संगोष्ठी आयोजित की जा सकती है।
 
बहरहाल, वह दिन भी आ गया जिसके कभी न आने की हमने अनेक मन्नतें मांगी थीं। हार-फूल व पुष्पगुच्छों से लदी बैंक की कार में मैडम ऐसी बैठी थीं, मानो वे सचमुच अपने ससुराल जा रही हों। बुझे मन व भरे हुए कंठ से शर्माजी ने जाने-अनजाने में किए अपने अपराधों के लिए प्रायश्चित के रूप में मैडम से क्षमा मांग ली।
 
हमें तो लगा 'बैंक' शब्द के ऊपर लगी सुहाग की बिंदी ही किसी ने पोंछ डाली हो, परंतु बाद में समझ में आया कि यही तो परिवर्तन है। सभी दिन एक समान नहीं होते हैं। पुराने साथी छूटेंगे तो नए साथी फिर से जुड़ेंगे। हम फिर मुस्कुराएंगे।
 
'बसंत फिर बहराएगा...!'
 
मो. नंंबर 99777-66468
 
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