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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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लघुकथा : वो दीपावली

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सुशील कुमार शर्मा

आज मैं दीपावली की सफाई में पत्नी का हाथ बंटा रहा था कि अचानक मेरे हाथ में अपने गांव की पुरानी फोटो लग गई जिसमें पूरा परिवार एकसाथ था। पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फोटो थी, जो कि किनारों से गल चुकी थी। मैंने बहुत प्यार से उस फोटो को साफ किया और मेरे जेहन में गांव का वह टूटा-फूटा घर उमड़ने लगा। 
 
मुझे याद है पिताजी नौकरी के कारण पास के शहर में रहने लगे थे। मैं अपने छोटे भाई के साथ शहर में ही पढ़ता था। दीपावली की छुट्टी में अपने माता-पिता के साथ अक्सर गांव जाता था। मुझे गांव वाले इस टूटे-फूटे मकान में इतनी सुखद अनुभूति होती थी कि जिसका कि मैं बयान नहीं कर सकता। दादी का वह इंतजार करता चेहरा, चाचा लोगों का वह अपनापन आज भी मुझे बहुत सालता है। 
 
मुझे याद है जब छुट्टी में मैं अपने गांव पहुंचता था तो दादी गांव के बाहर मेरा इंतजार करते मिलती थी दौड़कर मैं और छोटा भाई दादी की गोदी चढ़ जाते थे और दोनों भाइयों को वह बूढ़ी दादी अपने अंक से लगाए हुए घर तक ले आती थी। गांव के सब लोग इकट्ठे मिलने आते थे। पापाजी के सब दोस्त रात-रातभर बैठकर गप्पे लड़ाते थे। मां की सहेलियां इतने सारे खाने बना-बनाकर खिलाती थीं कि हम लोग अघा जाते थे।
 
फिर दीपावली के दिन गांव के सभी बच्चे दीवाल फोड़िया पटाखों के साथ उधम मचाते हुए गांव के कई चक्कर लगाते थे। बाजार से दादी हम लोगों के लिए खोवा की मिठाई और जलेबी लेकर आती थी और बड़े प्यार के साथ गोदी में बिठालकर खिलाती थी। 
 
'क्यों किसकी यादों खोए हो?', पत्नी ने शरारत से पूछा। 
 
'कुछ नहीं, पुरानी कुछ यादें हैं, जो बहुत याद आ रही हैं', मैंने भी शरारत में उत्तर दिया। 
 
'चलो, इस बार दीपावली पर अपने गांव चलते हैं', पत्नी ने मेरे हाथ से फोटो लेते हुए कहा। 
 
'अब गांव में कुछ नहीं बचा। दादी कब की शांत हो गई हैं, चाचा लोग अब अपने अंतिम समय पर हैं और बाकी के रिश्ते अब उतने 'समझदार' नहीं कि उनके पास जाकर रुका जाए', मैंने लंबी सांस भरकर उत्तर दिया। 
 
'अच्छा एक काम करते हैं कि हम कुछ घंटों के लिए ही गांव जाएंगे और सबसे मिलकर लौट आएंगे', मेरी पत्नी ने सुझाव दिया।
 
मुझे भी गांव देखने की बहुत इच्छा हो रही थी अत: मैंने भी हामी भर दी। हम लोग अपनी गाड़ी में बच्चों के साथ सवार होकर गांव की ओर रवाना हो गए। उन रास्तों पर से गुजरते हुए 40 साल पुरानी यादें ताजा हो गईं। लगा, मेरे अंदर का बच्चा जाग गया है। मेरी पत्नी और बच्चे मुझे बड़े आश्चर्य से देख रहे थे।
 
जैसे ही गांव के उस छोर पर पहुंचे, जहां पर मेरी दादी मेरा इंतजार करती थीं, मैंने ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा और तेजी से गाड़ी से निकलकर उस और दौड़ा, जैसे मैं अपनी दादी की ओर दौड़ता था। मेरी पत्नी समझ गई और वे मुस्कुराती हुई ड्राइवर से बोलीं, 'उन्हें जाने दो, तुम मेरे बताए हुए रास्ते से घर को चलो।'
 
मैं खेतों में से दौड़ता हुआ नदी पर पहुंचा और बगैर आजू-बाजू देखे मैंने फटाफट कपड़े उतारकर नदी में छलांग लगा दी, फिर अमरूदों के बगीचे से घूमता हुआ पुराने मंदिर पहुंचा, जहां पर हम छिया-छिलाई और लुक्का-छिप्पी खेलते थे। कुछ देर वहां रुककर फिर सीताफल के बगीचे में पहुंचा, जहां पर हम सभी बच्चे लोककर सीताफलों की चोरी करते थे।
 
उस बगीचे का मालिक तो शायद खत्म हो चुका था। उसके बच्चे उस बगीचे की देखभाल करते थे। मैंने कुछ सीताफल खरीदे और मैंने पैसे देने चाहे किंतु मेरा परिचय जानकर उन्होंने बहुत सम्मान के साथ मना कर दिया। सीताफल मेरी पत्नी का पसंदीदा फल है। 
 
उसके बाद बाजार में पहुंचकर मैंने कुछ खाने की चीजें लीं और अपने पुराने मित्रों के घर उनसे मिलने पहुंचा। अधिकांशत: वृद्ध हो चुके थे तथा कई की स्थिति बहुत खराब थी और वे गरीबी के कारण आज भी उन्हीं खपरैलों के मकानों में जिंदगी जी रहे थे। 
 
मुझसे मिलकर सभी अत्यंत प्रसन्न हुए। मैंने जो भी सामान खरीदा था, वो उन सबके बच्चों और नाती-पोतों में बांट दिया। जब मैं वापस अपने गांव के मकान में जाने लगा तो सब इकट्ठे होकर मुझे छोड़ने आए। हम सब गांव की गलियों में से निकल रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि हम सब बच्चे बन गए हों। मैंने कुछ दीवाल फोड़िए पटाखे दीवालों पर मारकर फोड़े। मेरे सभी पुराने दोस्त अचरज से मुझे देख रहे थे। उनकी आंखों में खुशी थी कि मैंने शायद बचपन के कुछ पल उनको लौटा दिए। 
 
सभी रिश्तेदारों से यथायोग्य मुलाकात कर जब हम लौट रहे थे तो मैंने अपनी पत्नी को सीताफल खिलाते हुए उसका धन्यवाद किया, क्योंकि उसके कारण आज मेरी यह दीपावली मेरे प्रौढ़ होते जीवन में 'उमंगों के दीप' जला गई थी! 

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