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लेखन मेरे लिए उत्सव है : वर्तिका नंदा

कविता मेरे मौन की सहयात्री है....

हमें फॉलो करें लेखन मेरे लिए उत्सव है : वर्तिका नंदा
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वर्तिका नंदा, नाप्रखप्रभावपत्रका‍रितलिजानजातै, नासटीसंवेदनशीकविताओलिपहचानजातहैमीडियअध्ययआरंउनकसफमीडियअध्यापजाकथमनहीबल्कि सफनिरंतनिखारनसकारात्मसुप्रयाजाररहसाहित्साहचर्उसअधिसुंदबनायाविगदिनोउन्हेकवितसंग्रह ' ी, हूरहूंगी ' लिऋतुरापरंपरसम्मादिजानघोषणगईप्रस्तुराजकमप्रकाशसाउनकआत्मीसाक्षात्कार:

प्रश्न : लेखक के रूप में आपका जीवन पत्रकारिता से ही शुरू हुआ या साहित्य की किसी अन्य विधा से?

वर्तिका नंदा : साहित्य की तरफ रुझान पत्रकारिता और टेलीविजन की वजह से हुआ। 80 की शुरुआत में मुझे जालंधर दूरदर्शन में बतौर एकंर और टीवी कलाकार चुन लिया गया। मैं उस समय शायद एशिया की सबसे छोटी उम्र की टेलीविजन एंकर थी और मेरे सामने चुनौती थी कि मैं अपनी क्षमता को सिद्ध करूं। इसी प्रेरणा से साहित्य-रचना की तरफ मुड़ी। टीवी का हर कार्यक्रम एक नया अध्याय होता था जिसे मुझे शुरू से आखिर तक लिखना होता था।

जब लिखने लगी तो महसूस हुआ कि साहित्य और पत्रकारिता जहां मिलते हैं, मैं उसके एकदम बीच में खड़ी हूं। इन दोनों माध्यमों के संवाद से ही मेरे अंदर कविता का जन्म हुआ। लेखन मेरे लिए उत्सव है और पत्रकारिता मेरा कर्म। इस रिश्ते से दोनों मेरे लिए आराध्य हैं।

प्रश्न : आपकी पहली रचना क्या थी? वह कब लिखी गई और उसे किसने किस पत्र-पत्रिका में प्रकाशित किया?

वर्तिका नंदा : पहली कविता का प्रकाशन 1982 में जालंधर में हुआ। दैनिक 'वीर प्रताप' के पहले पृष्ठ पर यह कविता छपी और उस समय मुझे इसके लिए खूब प्रोत्साहन मिला। इसके बाद वहां के दूसरे अखबारों, मसलन 'दैनिक ट्रिब्यून' में भी कई बार छपी। फिर कुछ साल बाद कहानी लिखने लगी तो पंजाब विश्वविद्यालय, पंजाबी विश्वविद्यालय और दैनिक ट्रिब्यून' तीनों से सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखन का पुरस्कार मिला।

प्रश्न : आपकी पहली प्रकाशित पुस्तक कौन-सी है, वह कब और किस प्रकाशन से प्रकाशित हुई?

वर्तिका नंदा : पहली किताब कविता-संग्रह ही था 'मधुर दस्तक'। यह संग्रह 1989 में फिरोजपुर में छपा। तब मैं स्कूल में पढ़ती थी और उन दिनों पंजाब बुरी तरह से आतंकवाद की गिरफ्त में था। इस संग्रह पर जो प्रतिक्रियाएं मिलीं, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में जो समीक्षाएं छपीं, उनसे लगा कि पाठक मेरी कविताओं को सिर्फ इसलिए पसंद नहीं कर रहे कि मैं टीवी पर दिखाई देती हूं, और यह जानना मेरे लिए बहुत सुखद था।

प्रश्न :राजकमल प्रकाशन समूह यानी राधाकृष्ण, राजकमल और लोकभारती से आपका पहला जुड़ाव कब हुआ?

वर्तिका नंदा : राजकमल प्रकाशन समूह से मेरा जुड़ाव 2010 में हुआ,जब राजकमल से मेरी किताब 'टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग' प्रकाशित हुई। यहां मैं बताना चाहूंगी कि इससे पहले 2005 में भी एक किताब राजकमल को देने की बात हुई थी पर संवेदना के स्तर पर फैसला लेते हुए किताब को भारतीय जनसंचार संस्थान को दिया क्योंकि मैं इस संस्थान की छात्रा थी और बाद में एसोसिएट प्रोफेसर भी। मैं संस्थान को आभार के तौर पर अपनी एक किताब देना चाहती थी। बाद में इसी किताब पर मुझे 'भारतेन्दु हरिश्चंद्र अवॉर्ड' भी मिला।

राजकमल प्रकाशन ने 2010 में मेरी पुस्तक को छापने में जो सहयोग और उत्साह दिखाया, वह मेरे लिए एक सुखद अनुभव रहा। मुझे अपनी किताब ठीक उसी रूप में मिली, जिस रूप में उसे प्रकाशित कराने का मेरा सपना था। एक लेखक के लिए इससे ज्यादा संतोष की बात और कोई हो ही नहीं सकती।

प्रश्न : हिन्दी समाज में लेखक और प्रकाशक के संबंध अक्सर तनावपूर्ण रहते हैं। माना जाता है कि यह एक अनिवार्य स्थिति है। इस संबंध में आपके अनुभव कैसे रहे और इस बारे में क्या सोचती हैं?

वर्तिका नंदा : यह स्थिति बनाई हुई है, अनिवार्य तो बिल्कुल नहीं। कारण यह है कि लेखक और प्रकाशक दोनों ही अपने-अपने ऊंचे किलों में कैद हैं। लेखक को अक्सर यह खुशफहमी हो जाती है कि उसकी किताब छपते ही क्रांति हो जाएगी और प्रकाशक को लगता है कि अगर वह लेखक को नहीं छापेगा तो लेखक खत्म हो जाएगा।

यह स्थिति बदलनी चाहिए। फिर दोनों ही पक्षों में प्रोफेशनलिज्म का अभाव है, यहां ऊपरी तौर पर चमकीलापन है और अंदर सीलन। इसका असर तो पड़ेगा ही। यह अजीब बात है कि तकनीकी और सूचनात्मक खुलेपन के बावजूद प्रकाशक व लेखक के रिश्ते की कई गांठें आज भी नहीं खुल सकी हैं। यह भी लगता है कि पुस्तकों के चयन के लिए भी एक निश्चित मानदंड होने चाहिए और लेखकीय विकास के लिए कुछ बेहतर माहौल भी बनना चाहिए। इसके लिए सरकारों के पास सरोकार नहीं, हमें ही कुछ करना होगा।

प्रश्न : एक लेखक के रूप में सबसे ज्यादा संतोष आपको किस पुस्तक ने दिया और सबसे ज्यादा पाठक किस किताब को मिले?

वर्तिका नंदा : हर किताब ने भरपूर संतुष्टि दी। हर नई किताब पिछली किताब से बेहतर भी लगी लेकिन हां, यह जरूर है कि अब तक की सभी छह किताबों में 'थी.हूं..रहूंगी... 'सबसे करीब है। इस किताब में मैंने कई प्रयोग किए। यह देश का शायद ऐसा पहला कविता संग्रह है जिसकी कविताएं महिला अपराध पर केंद्रित हैं। ज्यादातर कविताएं घरेलू हिंसा के आस-पास की है। जब तक कविताएं सहजेती रही, किताब के शीर्षक को लेकर वैचारिक उथल-पुथल बनी रही। मैं ऐसा शीर्षक रखना चाहती थी जो समय, समाज और अपराधी के आगे थकती औरत के लिए एक दीया बनता। मैं चाहती थी मेरी कविता की औरत, तमाम साजिशों के बावजूद मारी न जा सके क्योंकि मैं मानती हूं कि औरत चाहे चूल्हे पर चांद सी रोटी सेंके या घुमावदार सत्ता संभाले सबकी आतंरिक यात्राएं एक सी है। मैं यह भी कहना चाहती थी कि अपराधी जब अपनी सभी सीमाएं पार कर देते हैं तो कई बार औरत दुर्गा बन जाती है और जतला देती है कि पुरुष भाग्यविधाता नहीं हो सकता।

जिस दिन किताब छपने जा रही थी, उससे एक रात पहले सूझा 'थी.हूं..रहूंगी..। मुझे लगा मैंनवो सब कह दिया जो किसी भी औरत को कहना चाहिए,यह बात अलग है कि इसके लिए कीमत चुकानी होगी।

पर मुझे लगा कि दुख के विराट मरुस्थल बनाकर देते पुरुष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुरा कर कह दे ''थी.हूं..रहूंगी...।'' दूसरे इस संग्रह की पहली कविता' नानकपुरा सब जानता है' देश की महिला अपराध शाखाओं की कहानी कहती है।

अपराधी नहीं बदलता और न ही उसके शोषण करने का तरीका। उसी तरह व्यवस्थाएं भी बमुश्किल बदला करती हैं। सब कुछ सहेजना एक पीड़‍ित को ही पड़ता है। पुलिस और अपराधी के बीच पीड़‍ित की जिंदगी के चौराहे पर है यह कविता। यह हमारे समाज की सवंदेनात्मक विकलागंता की एक सच्ची तस्वीर है।

खासतौर से घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं पूरी तरह से थकने के बाद जब महिला अपराध शाखाओं पर पहुंचती हैं तो उनकी यात्रा का एक और दर्दनाक हिस्सा शुरु होता है। अपराधी के पैने हथियार और पीड़‍ित की बेबसी दोनों आमने-सामने होते हैं। अपराधी का शोर, दबाव, आरोप ....और दूसरी तरफ पीड़‍ित का मौन और उसके आंसू। आखिर में अक्सर तमाम अपमानों के बीच पीड़‍ित अपने हाथों में एक दीया थाम ही लेती है। पुरुष यह समझ नहीं पाता कि जहां उसका दिया अपमान हदें तोड़ता है वहां औरत का एक नया जन्म होना तय होता है।

इस किताब के कवर को लेकर भी मैं काफी सोच में थी। मैं ऐसा कवर चाहती थी जो सिर्फ निम्न वर्ग ही नहीं बल्कि ईलिट क्लास की पीड़‍ित महिला के दर्द को भी उभार पाए। तीसरे टेलीविजन के लिए क्राइम रिपोर्टिंग करते हुए अनुभव का जो हिस्सा टीवी पर अभिव्यक्त नहीं किया जा सका, उसी से ये कविताएं निकली हैं।

मैं मानती हूं कि अपराध सिर्फ उतना नहीं होता जितना हम टीवी स्क्रीन पर देखते-सुनते हैं। उसके पीछे और बहुत कुछ होता है। अपराध के कई पहाड़ होते हैं, कई टीले, कई मरुस्थल। जो बिखरे अंशों में मैं देखती या महससू करती रही, उन्हीं को मैंने कविताओं में कहने का प्रयास किया है। मैं चाहती हूं कि कविता सिर्फ कविता होकर न रह जाए। उसका मैदान खुला रहे, उसका राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़े और वह ठहरे पानी और पथरीले दिल में कोई हलचल जरूर मचाए।

प्रश्न : इन दिनों आप क्या कर रही हैं?

वर्तिका नंदा : आजकल मैं अपने अगले कविता-संग्रह की तैयारी कर रही हूं और साथ ही एक उपन्यास 'चिरकुट' भी लिख रही हूं। यह एक बड़े अधिकारी की आपराधिक मानसिकता और बेहद सावधानी लेकिन क्रूरता से की गई घरेलू हिंसा पर आधारित है। एक रहस्यपूर्ण परिवार के अंदर की हिंसा,अपमान और त्रासदी को झेलती यह औरत लंबे समय तक मौन रहती है। उसके लबों पर प्रार्थना रहती है और सच उसके साथ होता है।

अपराधी तमाम उपकरण इस्तेमाल करता है, उसे बदनाम करता है और वह सभी आरोप जड़ता है जो उसके खुद किए हुए थे। अपराधी और पीड़ित के द्वंद्व के बीच ईलीट क्लास का सच कहेगा यह उपन्यास।

प्रश्न : आप किस विधा की पुस्तकें पढ़ना पसंद करती हैं? इन दिनों आपने क्या उल्लेखनीय पढ़ा?

वर्तिका नंदा : मुझे सबसे पहले आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना पसंद है। उसके बाद मीडिया से सम्बंधित पुस्तकें और फिर साहित्य। आजकल मैं 'नदी के द्वीप' (अज्ञेय) और 'द सीक्रेट'( रौंडा बायन) पढ़ रही हूं।

प्रश्न : एक पत्रकार के रूप में आप हिन्दी के रचनात्मक साहित्य को किस रूप में देखती हैं?

वर्तिका नंदा : मेरे लिए दोनों आत्मा में शामिल हैं। इसलिए अलग करके कभी देख नहीं सकी। मैं मानती हूं कि साहित्य का काम पत्रकारिता के बिना काफी हद तक चल सकता है लेकिन यही बात पत्रकारिता के लिए कहना मुश्किल होगा।

साहित्य से कटी हुई पत्रकारिता भाषाई और वैचारिक रूप से अनाथ होती है। बेहतर स्थिति तो वही है कि दोनों तालमेल से आपस में जुड़े रहें। वैसे एक सुखद बात हुई है। इंटरनेट की तेज उछलकूद के बीच साहित्य, खासतौर से हिंदी साहित्य, एकाएक फैशनेबल हो गया है।

साहित्य फिर से सरोकार और संवाद का विषय बनने लगा है। लोग कविताओं पर, कहानियों पर बात कर रहे हैं। गोष्ठियां, साहित्यिक समारोहों में ऐसे लोग भी दिखाई देने लगे हैं जिनका साहित्य से कोई सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन वे लोग भी उसकी बढ़ती हुई जगह को पहचान रहे हैं।

प्रश्न : हिन्दी का ज्यादातर लेखन-प्रकाशन साहित्य केन्द्रित होता है। क्या अब हमें साहित्य के अलावा स्वास्थ्य, कानून और प्रबन्धन आदि विषयों पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए?

वर्तिका नंदा : निश्चित रूप से। खासकर उन विषयों पर प्रकाशकों को पुस्तकें छापनी चाहिए जिनके साथ टेलीविजन और
अखबार पूरा न्याय नहीं कर पाते। ऐसे अनेक विषय और सरोकार हैं जिनके बारे में पत्रकारिता से पूरी जानकारी नहीं मिल पाती, ऐसे विषयों पर पुस्तकें हों, तो उनसे एक बड़ी कमी पूरी होगी।

प्रश्न : पाठकों की कमी की शिकायत आज सभी प्रकाशक करते हैं। आप इस समस्या को कैसे देखती हैं और इसका क्या समाधान हो सकता है?

वर्तिका नंदा : कमी पाठकों की नहीं है। जरूरत है पाठकों तक पहुंचने की। इस मामले में टीवी से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। टीवी जानता है कि दर्शक की भूख क्या है, उसे कब क्या चाहिए। यही काम प्रकाशक को भी करना होगा। उसे अपने खोल से निकलकर पाठक तक जाना होगा और नएपन को अपनाना होगा।

प्रश्न : भारतीय प्रकाशन के इतिहास में यह पहली ऐसी घटना है जब तीन बड़े प्रकाशन संस्थान-राजकमल, राधाकृष्ण और लोकभारती एक छतरी के नीचे काम कर रहे हैं। आप इसे किस रूप में देखती हैं?

वर्तिका नंदा : यह हिन्दी जगत के लिए एक शुभ संकेत हैं। मैं आशा करती हूं कि राजकमल प्रकाशन समूह हिन्दी समाज की उम्मीदों पर खरा उतरे।

प्रश्न : मीडिया की व्यस्त दिनचर्या के किस मोड़ पर आपको अपनी कविता मिलती है?

वर्तिका नंदा : कविता मुझे मिलती नहीं। वह हमेशा मेरे साथ रहती है। एक सच की तरह जिसे हर रोज नहीं कहा जा सकता। वह मेरे मौन की सहयात्री है। मेरे लिए कविता मेरी सांस है, आत्मा है, परमात्मा है। उसके रंग रोज बदलते हैं।

कभी वह एक छोटी-सी लड़की बन जाती है, कभी चिड़िया, कभी दीया, कभी साथी, कभी टापू, कभी पूरी दुनिया। वह मेरा खेल भी है और खिलौना भी!

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