पनप चुका है सांस्कृतिक माफिया !
ख्यात कहानीकार ज्ञानरंजन से रवीन्द्र व्यास की बातचीत
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मुझसे सब पूछते हैं कि साहित्यिक पत्रिका 'पहल' क्यों बंद हो गई? इसके कुछ निजी और सामाजिक-सांस्कृतिक कारण हैं। पहली बात तो यह कि अब अमीरी संस्कृति का दबदबा है। यह लगातार बढ़ रही है। इसलिए बाजार की ताकतें हावी हैं। पहले लेखक बाजार के खिलाफ लिखता था, प्रतिरोध करता था, अब लेखक भी इसका हिस्सा बन चुके हैं।' '
उसने भी अपना एक बाजार बना लिया है। वही किताबें छपवाता है, बँटवाता है और समीक्षाएँ करवाता है। जैसे राजनीतिक माफिया होता है, ठीक वैसा ही अब सांस्कृतिक माफिया पनप चुका है। यह दुःखद है।' यह कहना है हिंदी के अप्रतिम कहानीकार और साहित्यिक पत्रिका 'पहल' के संपादक ज्ञानरंजन का।उल्लेखनीय है कि पिछले पैंतीस सालों से निकल रही इस पत्रिका को बंद कर दिया गया है। इसके संपादक ज्ञानरंजन एक निजी यात्रा पर इंदौर आए थे। खास बातचीत में उन्होंने कहा कि इस नए बाजार तंत्र में विचार को हाशिए पर फेंक दिया गया है। पहले लेखकों ने रचनात्मक और वैचारिक स्तर पर बाजार के खिलाफ खूब लिखा। अब लेखक इसका हिस्सा बन चुके हैं, इसलिए प्रतिरोध और विरोध की आवाजें मंद पड़ गई हैं। 'पहल' एक मकसद से निकाली गई थी। उसके कुछ मूल्य थे, लड़ाइयाँ थीं। इसमें उसका साथ देने के लिए उसके लेखक थे। लेकिन अब मैं महसूस करता हूँ कि लेखकों की एक नई पीढ़ी आ चुकी है। नए आलोचक और टिप्पणीकार आ गए हैं।इंटरनेट की दुनिया फैल चुकी है। इन दिनों ब्लॉग्स खासे चर्चित हैं जिन पर गंभीर बहसें हो रही हैं। फिर मैं 73 साल को हो गया हूँ, मेरे दिल के दो आपरेशन हो चुके हैं। मेरी अपनी सीमाएँ हैं। इस तमाम बातों के मद्देनजर मुझे लगा कि 'पहल' को नई तैयारी के साथ अपनी नई भूमिका तलाशना होगी, एक नया तंत्र बनाना होगा। निश्चित ही यह चुनौतीपूर्ण है। पुराने तरीके और पुराने तंत्र के साथ पत्रिका निकालना उचित नहीं था। इसलिए मैंने 'पहल' को बंद करने का फैसला लिया। वे कहते हैं यह वक्त पत्रिका निकालने का सबसे अच्छा समय है। आज मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरप्रदेश और दिल्ली की सरकारें पत्रिकाओं को पच्चीस हजार रूपए तक विज्ञापन देती हैं। लेकिन श्रेष्ठ रचनात्मकता को सामने लाना पत्रिकाओं की जिम्मेदारी होना चाहिए। इसके लिए ईमानदारी और पारदर्शिता की जरूरत है। जहाँ तक कहानी का सवाल है आज उदय प्रकाश जैसे कहानीकार नई रीडरशिप के डॉर्लिंग हैं। उनकी नई रचना का बेसब्री से इंतजार होता है। युवा लेखक से लेकर आम पाठक तक उनका क्रेजी है। उदय प्रकाश ने अपनी रचनात्मकता से अपना क्रेजी वर्ल्ड बना लिया है। यही कारण है कि आज उनकी कहानियों का अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में अनुवाद हो रहा है। उदय प्रकाश के बाद देवीप्रसाद मिश्र, अल्पना मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ, चंदन पांडेय और तरूण भटनागर जैसे नए कहानीकार अच्छी कहानियाँ लिख रहे हैं। लेकिन हिंदी में एक तरह का सांस्कृतिक वर्चस्ववाद है। यही हिंदी का नर्क भी है। इसमें संपादक से लेकर लेखक संगठन और संगठन के बाहर के कुछ लोग नहीं चाहते कि नए लेखकों को पहचाना जाए। गोवा से लेकर दिल्ली तक भोपाल से लेकर लखनऊ तक यही हाल है। ये बहुत बड़ी समस्या है। |
उल्लेखनीय है कि पिछले पैंतीस सालों से निकल रही इस पत्रिका को बंद कर दिया गया है। इसके संपादक ज्ञानरंजन एक निजी यात्रा पर इंदौर आए थे। खास बातचीत में उन्होंने कहा कि इस नए बाजार तंत्र में विचार को हाशिए पर फेंक दिया गया है। |
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नए लेखकों के लिए ये सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। 'पहल' ने हिंदी बेल्ट के तमाम लेखकों को जोड़ा, उनसे लिखने का आग्रह किया, दबाव बनाया, समय दिया और नई से नई रचनात्मकता को सम्मान दिया। यह काम कठिन था, हमने पैंतीस सालों तक यह किया। 'पहल' के अलावा जो दूसरी पत्रिकाएँ हैं वे यह काम क्यों नहीं कर सकतीं?
अमीरी की संस्कृति और बाजारू ताकत की गिरफ्त में आए बिना ही यह काम हो सकता है। इसके लिए विश्वसनीयता जरूरी है। आज की पत्रिकाओं की यह जिम्मेदारी है कि वे नए और अच्छे लेखकों को सामने लाएँ । पत्रिकाओं को नए लेखकों के लिए रास्ते बनाना चाहिए, उन्हें सामने लाना चाहिए। कहानी में तो भी यह हो रहा है लेकिन कविता में बहुत लोग आ गए हैं। अच्छे कवि खोजना मुश्किल हो गया है। तीसरे और चौथे दर्जे के कवि भी आ गए हैं और अच्छे कवि गुम हो रहे हैं।