Interview: साहित्य की अपनी राजनीति है और राजनीति के अपने साहित्यकार: शरद पगारे

शकील अख़्तर
साहित्य की अपनी राजनीति है और राजनीति के अपने साहित्यकार! 

यह दर्द बयान करने वाले वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ.शरद पगारे 90 साल की उम्र में भी अनवरत साहित्यिक साधना में लीन है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार, वे देश के 100 नामी हिन्दी लेखकों में अपना 46 वां स्थान रखते हैं। वे एक ऐसे विरले उपन्यासकार हैं, जिन्होंने इतिहास में उपेक्षित किरदारों में नई जान फूंकी है।

उन्होंने गुलारा बेगम, बेगम ज़ैनाबादी,पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी,गंधर्व सेन जैसे चर्चित उपन्यास लिखे, साथ ही उनके आठ कहानी संग्रह भी छप चुके हैं। उनके लेखन की अपने-अपने समय में स्वनामधन्य साहित्यकारों ने प्रशंसा की हैं। इनमें जैनेंद्र कुमार,अमृतलाल नागर,विष्णु प्रभाकर से लेकर डॉ.धर्मवीर भारती और डॉ.शिवमंगलसिंह सुमन जैसे दिग्गज शामिल हैं।

इन दिनों डॉ.पगारे अपने नये उपन्यास-‘रानी रूपमती अकबर की रूपकथा‘ के लेखन में व्यस्त हैं। हाल ही में उनसे वरिष्ट पत्रकार और लेखक शकील अख़्तर ने बातचीत की। प्रस्तुत बातचीत के संपादित अंश।

प्रश्न- क्या आपको लगता है कि साहित्य जगत या साहित्य अकादमी ने भी आपके लेखन को नजरअंदाज किया है। क्या कहेंगे?

उत्तर- क्या कहूं ? साहित्य की अपनी राजनीति है और राजनीति के अपने साहित्यकार। मेरा कर्तव्य लिखना है और वह कार्य मैं पूरी ईमानदारी और उत्साह से करता हूं। इससे ज्यादा क्या कहूं? हां, पाठकों ने मुझे वह सब दिया है, जिसकी एक लेखक को अपेक्षा होती है।

प्रश्न - इन दिनों क्या लिख रहे हैं? किसी खास विषय पर काम कर रहे हैं?
उत्तर- कुछ वक्त से मैं रानी रूपमती-अकबर की रूपकथा पर काम कर रहा हूं। रानी रूपमती का सौंदर्य, नृत्य, गायन, खासकर कविताएं और सुलतान बाज बहादुर से उसका प्रेम-व्यापार दुनिया भर के प्रेमियों को माण्डू हर वर्ष खींच लाता है। उसके चारों ओर कल्पनाओं का कुहासा है। जिसे वहां मौजूद घूमने वाले छोटे कलाकार ऐतिहासिकता देने को प्रयत्नशील हैं। रूपमति, ओरछा रूपसी प्रवीणराय, गढ़ा मण्डला की रानी दुर्गावती एवं तानसेन की समकालीन थी। उसके बारे में इतिहास में बिखरी सामग्री को शोध के माध्यम से जोड़ रहा हूं। उपन्यास का शीर्षक ‘रानी रूपमती अकबर की रूपकथा‘ रखा है।

प्रश्न- आपके बारे में आलोचकों की अपनी राय है। परंतु आप खुद किस तरह से अपने काम का आकलन करते हैं?
उत्तर- मैंने कहा ना, लिखना महत्वपूर्ण है, शेष पाठक पर। फिर भी जहां तक मेरे लेखन का सवाल है तो मैंने आचार्य चतुरसेन शास्त्री एवं श्री वृंदावनलाल वर्मा के बाद के दशकों में ऐतिहासिक कथानक, विषय वस्तु, भाषा शैली कथानक संबंधी वातावरण में मैंने काफी बदलाव किया है। ऐतिहासिक कथानक का उपचार,भाषा शैली, कथानक अनुकुल वातावरण को अपनी लेखन दृष्टि दी है। मैं ऐतिहासिक कथानक, घटनाएं एवं चरित्र इतिहास के सत्य तथा साहित्य के काल्पनिक यथार्थ के सन्तुलित समन्वय से तैयार करता हूं। इस बात का विषेष ध्यान रखता हूं कि न तो मैं इतिहास लिख रहा हूं न साहित्य। यद्धपि मैं ऐतिहासिक कथानकों, घटनाओं तथा इतिहास में वर्णित चरित्रों से बिल्कुल छेड़छाड़ या तोड़- मरोड़ नहीं करता। परंतु जहां इतिहास मौन हैं, वहां मैं साहित्य के काल्पनिक यथार्थ का कथानक के अनुरुप खुलकर उपयोग करता हूं। इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं कि मेरी यथार्थवादी साहित्यिक कल्पना कथानक में घुलमिल जाए। उसका हिस्सा लगे।

प्रश्न - गुलारा बेगम, बेगम जैनाबादी और पाटलिपुत्र की सम्राज्ञी जैसी कृतियों का लेखन किस तरह से हुआ? क्या आपके मन में इस तरह के पात्र पहले से थे? या आपने इतिहास पढ़ाते समय यह महसूस किया कि इन किरदारों पर लिखा जाना चाहिए?
उत्तर - ना ! गुलारा बेगम का उल्लेख किसी इतिहासकार ने नहीं किया है। ताज्जुब की बात ये है कि ‘गुलारा बेगम‘ को इतिहास नहीं जानता। उसके लिए मुगल शहजादे खुर्रम (शाहजहां) ने 1614 में ताजमहल से पहले बुरहानपुर से 15 किलोमीटर दूर करारा गांव की उतावली नदी के दोनों किनारों पर दो बारादरियां बनवाई। उन्हें एक पुल से जोड़ा और दीवार उतावली नदी पर बनाई जिसके कारण उतावली नदी जलप्रपात बन बारादरियों और पुल के नीचे से बहती है। पूरे चांद की रात पुल पर बैठने पर नज़ारा बडा दिलकश बनता है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने एक बारादरी पर प्लेट लगा कर लिखा है कि शहजादा खुर्रम (शाहजहां) ने 1614 में गुलारा की मुहब्बत में इन्हें बनवाया। ताज महल से 23 साल पहले इसे बनवाया। बिल्डिंग है इतिहास में नाम गायब है। तब मैंने इतिहास में शोध से पाया कि 1614 में शाहजादा खुर्रम अहमद नगर जीतने बुरहानपुर आया और बोरवाडी की मशहूरो- मारूफ तवायफ से मिलकर उसे अपनी रखैल बना लिया। इन बरादरियों के जरिए मुहब्बत का इज़हार किया। इस तरह साहित्यकारों की नज़र में यह उपन्यास इतिहास की सचाई और साहित्य के काल्पनिक यथार्थ के सन्तुलित समन्वय का उदाहरण बन गया है। ‘गुलारा बेगम‘ इतनी लोकमान्य और लोकप्रिय हुई कि उसका मराठी, उर्दू, गुजराती, मलयालम एवं पंजाबी में अनुवाद एवं प्रकाशन हुआ है। हिंदी में इसके अब तक 11 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह साहित्य के क्लासिक उपन्यास के रूप में उभर रहा है।

प्रश्न - क्या बेग़म जैनाबादी को लेकर भी ऐसी ही बात है?
उत्तर- नहीं,‘गुलारा बेगम‘ की अपेक्षा ‘बेगम जैनाबादी‘ के बारे में पर्याप्त सामग्री इतिहास में मिलती है। ‘बेगम जैनाबादी‘ का पूरा नाम हीराबाई था। चूंकि वो बुरहानपुर के पास ताप्ती के उस पार के कस्बे, जैनाबाद की रहने वाली थी इसलिए शहजादा औरंगजेब ने उसका नाम ‘बेगम जैनाबादी‘ रखा। जैनाबादी भी बुरहानपुर की बोरवाडी की बेहद खूबसूरत और नाच-गाने में पारंगत तवायफ थी। मुहब्बत की इस दास्तान का जिक्र समकालीन इतिहासकार इनायत उल्लाह ने अहकाम - ए- आलमगिरी में किया है। अब्दुल हामिद ने भी ‘पादिशाहनामा‘ में इसका जिक्र किया है। महान इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने भी औरंगजेब के आख्यान में इसे पेश किया है। औरंगजेब की मुहब्बत ने गहरे तक प्रभावित करने पर मैंने उपन्यास लिखा। दिल्ली के शितिज थिएटर ग्रुप ने इसका 10 और 11 अक्टुबर 2014 को दिल्ली के श्रीराम सेंटर में मंचन किया था जो बड़ा सराहा गया था।

प्रश्न: - ऐतिहासिक परिपेक्ष्य के उपन्यासों को लेकर आपने किस तरह का अध्ययन और शोध कार्य किया? इससे लेखन को कैसे गति मिली?
उत्तर - इतिहास एवं साहित्य का काल्पनिक यथार्थ मेरे उपन्यासों की आधारशिला है। मेरे सारे पात्र ऐतिहासिक हैं। ‘गुलारा बेगम‘ इतिहास से गायब है लेकिन उसकी ठोस उपस्थिती करारा गांव की उतावली नदी के  दोनों किनारों पर बनी बारादरियां गवाही देती है। अतः सम्पूर्ण उपन्यास ‘गुलारा बेगम‘ साहित्य के काल्पनिक यथार्थ की उपज है। ‘गुलारा बेगम‘ में वर्णित मुगल कालीन भाषा, वेशभूशा शाही- शानशौकत, शाही रस्मो-रिवाज, शाही अदब कायदे सभी इतिहास से लेकर उपन्यासों को सजीव और जीवंत बनाया। ‘बेगम जैनाबादी‘ भी इसका उदाहरण है। 'पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी' में प्राचीन भारत, खासकर मौर्यकाल की पुस्ताकों से उस काल की भाषा, चाणक्य के अर्थशास्त्र में वर्णित सामग्री तथा नंद-मौर्य कालीन भारत के इतिहास से सामग्री ले, उसे भी प्रमाणिकता दी। इसने उपन्यास को गति दी।

प्रश्न - क्या आपके लेखन में किन्ही और लेखकों का भी प्रभाव रहा ? आपने अनेक कहानियां लिखी हैं, कहां से प्रेरणा मिली?
उत्तर- हां! मुझे विश्वप्रसिद्व, विश्वमान्य, विश्वलोकप्रिय रशियन लेखक लेव तोल्स्तोय की सर्वकालिक प्रिय कृति ‘वॉर एण्ड पीस‘  तथा अंग्रेज साहित्यकार चार्ल्स डिकिन्स के प्रसिद्व ऐतिहासिक उपन्यास ‘टेल आफ टू सीटिज‘ ने गहरे तक प्रभावित किया। ‘वॉर एण्ड पीस‘ में उस युग के महानयोद्वा विजेता फ्रेंच सम्राट नेपोलियन के रूस के हमले व युद्व जनित मानव सभ्यता,संस्कृति तथा सामान्य मानकों की हत्या का निष्पक्ष सृजन है। वहीं डिकिन्स के ‘टेल आफ टू सीटिज‘ ने सन 1789 की फ्रेंच क्रांति में निदोर्षो को फांसी चढाने की कथा है। इसमें समय नायक है। यह युद्व के बजाय शांति का सन्देश देता है। जो मानव कल्याण की पहली शर्त है ये ही डिकिन्स निर्दोष  के पक्ष का समर्थन करते हैं। प्रेमचंद्र , जैनेन्द्र, शरत बाबू चटटोपाध्याय आषापूर्णादेवी , अमेरिकन कथाकारों खासकर स्टीफेन ज्वीग, मांपासा एवं एमिल जोला तथा इटालियन कथाकार अलबर्टो मोराविया ने मानवीय चरित्रों उसके जीवन की विसंगतियों, घृणा-प्यार, ईर्षा- द्वेष जैसी संवेदनात्मक भावनाओं का पात्रों की आत्मा में प्रवेष करा चित्रित किया है। उनसे भी मैं प्रभावित हूं।

प्रश्न - आपने ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में विरला काम किया है। अब ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की परम्परा समाप्त हो रही है। ऐतिहासिक उपन्यास लेखन का भविष्य क्या है?
उत्तर - ऐतिहासिक कथानक, खासकर ऐतिहासिक उपन्यास परिश्रम, कठोर परिश्रम साध्य विधा है। विषय से संबंधित इतिहास पुस्तकों का अध्ययन,शोध,विष्लेषण एवं मनन उसकी मांग है। डॉ.दीक्षित के शब्दों में आज कोई परिश्रम करना नहीं चाहता। ऐतिहासिक कथानक संबंधी कृतियों का नवलेखन का भविष्य दुर्गम है। परंतु विश्वास है भविष्य के गर्भ में कोई तोल्स्तोय या डिकिन्स छिपा बैठा है जो इसे नवजीवन प्रदान करेगा।

प्रश्न- अच्छा आपकी दिनचर्या क्या रहती है? आप लिखने का वक्त कब निकालते हैं?
उत्तर- मैं ब्रम्ह मुहुर्त याने सुबह चार बजे उठ जाता हूं। योग और सैर इत्यादि के बाद मैं लेखन में जुट जाता हूं। मेरा मानना है कि लेखन के लिये सुबह का समय सबसे अच्छा होता है। मैं शांत चित्त होकर,संदर्भ आदि देखकर ही लिखना शुरू करता हूं। विशेषकर ऐतिहासिक लेखन के लिये मैं एक दिन पहले ही इतिहास संबंधी सामग्री पढ़ लेता हूं। मेरे पास अपनी लायब्रेरी है। इसमें 1500 से अधिक ऐतिहासिक पुस्तकें हैं। 1820,1906,1910 में प्रकाशित हुए विरले ऐतिहासिक ग्रंथ हैं जिन्हें मैनें दिल्ली-मुम्बई से ख़रीदा हैं। मैं सन् 1956 से 1991 तक इतिहास का प्रोफेसर रहा हूं। अतः चालीस से अधिक वर्षो इतिहास पढा और पढाया, शोध किया। इस काम ने ही मुझे  ऐतिहासिक कथानकों पर लिखने में बडी मदद की। मुझे ऐसे लेखन के प्रति समर्पित कर दिया है।

प्रश्न- क्या आपका लेखन मूड पर निर्भर करता है या आप निरंतर लिखते रहते हैं और यह एक सामान्य प्रक्रिया है?
उत्तर- मेरे लिये यह सामान्य प्रक्रिया की तरह है। अपितु जिस दिन मैं कुछ ना लिखूं, उस दिन मेरा मन कुछ अनमना सा रहता है। मैं नित लिखता हूं, पढ़ता हूं। सोचता रहता हूं।

प्रश्न- आपकी नये लेखकों से क्या अपेक्षा हैं,क्या संदेश देंगे?
उत्तर- साहित्य... आत्मा, संवेदना, मानवीय व्यवहार और भावों की अभिव्यक्ति है। युगानुरुप चीजें, व्यवहार, भाव, और संवेदनाएं बदलती हैं। मगर प्रेम, स्नेह, राग, द्वेष, त्याग, बलिदान , मानवीय सहयोग सहायता शाश्वत हैं। नए लेखकों को खूब पढना चाहिए। विश्वप्रसिद्ध, रचनाकार और उनकी रचनाएं ही नए लेखकों की शिक्षक हैं। वे ही मार्गदर्शक  हैं। तुलसी, कबीर, गालिब, तोल्स्तोय, डिकिन्स से श्रेष्ठ और उनकी रचनाओं से बडा कोई शिक्षक दूसरा नहीं।

प्रश्न - किसी देश काल के इतिहास का वर्तमान सन्दर्भों में क्या अर्थ है, वे सूचना देते हैं या ज्ञान?
उत्तर - एच. जी. वेल्स का कथन है ' इतिहास विगत मानव के क्रिया कलापों का दस्तावेज है जो वर्तमान में मार्गदर्शन कर भविष्यवाणी प्रदान करता है।

डॉ. शरद पगारे की प्रमुख कृतियां एक नज़र में-

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