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दिल्‍ली में कोई ठिकाना नहीं था, चित्रकार रामकुमार के स्‍टूडियो में रहता था: प्रयाग शुक्‍ल

हमें फॉलो करें दिल्‍ली में कोई ठिकाना नहीं था, चित्रकार रामकुमार के स्‍टूडियो में रहता था: प्रयाग शुक्‍ल
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नवीन रांगियाल

जितना हम जानते, समझते हैं साहित्‍य हमें उससे कहीं ज्‍यादा बड़ी दुनिया देखने के लिए देता है। इसलिए साहित्‍य मुझे प्रिय है। मैं पुस्‍तकालयों में जाता था, किताबें पढ़ता था, कई लेखक और कवियों को पढ़ता था। इस तरह मैं किताबों और साहित्‍य  की दुनिया में ही आ गया। दरअसल, जब हम कोई नॉवेल पढ़ते हैं तो एकसाथ कई चरित्र को हम एकसाथ जीते हैं, तो इस तरह साहित्‍य के प्रति एक आकर्षण बना। फिर 14-15 साल की उम्र में सोच लिया था, एक ध्‍वनि आई अंदर से कि मैं लेखक बनूं या न बनूं, लेकिन साहित्‍य की दुनिया जो मुझे प्रिय है मैं उसी में रहूंगा।

वरिष्‍ठ लेखक और कवि प्रयाग शुक्‍ल ने  वेबदुनिया के साथ विशेष चर्चा में यह बात कही।

कोलकाता में हमारे पिताजी की किताबों की दुकानें थीं, किताबों का व्‍यवसाय था, मुझे याद है कि फिल्‍मकार सत्‍यजीत राय भी हमारी दुकान से किताबें खरीदने के लिए आया करते थे।

आपके लिखने की शुरुआत कैसे हुई?
जब मैं 23 साल का था तो मुझे हैदराबाद की एक प्रतिष्‍ठित  मैगजीन ‘कल्‍पना’ में लिखने का मौका मिला। यह मैगजीन बद्री विशाल पित्‍ती निकालते थे। बद्री विशाल पित्‍ती एमएफ हुसैन के पहले पेट्रन थे, जो उनके चित्र भी खरीदते थे। हुसैन भी वहां आया करते थे, लिखने के साथ ही मेरा बाकी कलाओं की तरफ आने के पीछे ‘कल्‍पना’ मैगजीन का हाथ रहा, उसके आवरण पर मकबूल फिदा हुसैन और रामकुमार के चित्र छपते थे। बाद में यह लगा कि साहित्‍य के साथ कलाओं को जानना भी बहुत जरूरी है। इसलिए करीब एक साल तक ‘कल्‍पना’ में रहकर काम किया।

कोलकाता से पहले हैदराबाद फिर दिल्‍ली कैसे आना हुआ?
24 साल की उम्र में दिल्‍ली खींचने लगी। वहां मेरे मित्र बहुत लिख रहे थे, वे हुसैन की प्रदर्शनी देखते थे, रविशंकर का सितार सुनते थे, यामिनी कृष्‍णमूर्ति का नृत्‍य देखते, इब्राहम अल्‍काजी के नाटक होते थे नेशनल स्‍कूल ऑफ ड्रामा में। मुझे लगा कि मैं यहां क्‍या कर रहा हूं, मुझे दिल्‍ली जाना चाहिए, तो कुछ पैसे इकट्ठा कर मैं दिल्‍ली चला आया। लेकिन मेरे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, फ्रीलांसर था, इसके पहले चित्रकार रामकुमार से मेरी मुलाकात कोलकाता और हैदराबाद में हो चुकी थी। जब उन्‍हें पता चला कि दिल्‍ली में मेरा कोई ठिकाना नहीं है तो उन्‍होंने मुझे अपने स्‍टूडियो में रहने के लिए बुला लिया। मेरे प्रति यह उनका अतिस्‍नेह था, मैं करीब 3 महीने तक उनके स्‍टूडियो में रहा। आप समझ सकते हैं मुझे इससे क्‍या मिला होगा। एमएफ हुसैन वहां आते थे, तैयब मेहता मिलते थे, निर्मल वर्मा से तो पहले ही मेरी मुलाकात हो चुकी थी, लेकिन वहां उनसे और ज्‍यादा गहरी दोस्‍ती हो गई। वे हमसे थोड़े  ही बड़े थे, हालांकि निर्मल लेखक के तौर पर स्‍थापित हो चुके थे, लेकिन उनके प्रति हमारी पीढ़ी में गहरा आकर्षण था।

आपने बाल साहित्‍य भी लिखा है?
बच्‍चों की पत्रिका से मेरी शुरुआत हुई थी, इसमें आनंद आता है। कविता के लिए हमें सालोसाल प्रतीक्षा करना पड़ती है। कई बार घबराहट होती है कि अब लिख पाएंगे या नहीं लिख पाएंगे? लेकिन बच्‍चों के मामले में ऐसा नहीं है, बहुत सरल और सहज होता है बच्‍चों के बारे में लिखना। तो बच्‍चों के लिए तुक्‍का, छंद और शब्‍द-खेल का बहुत आनंद आता है, इसलिए बच्‍चों के लिए भी लिखा।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के काम का अनुवाद कैसा अनुभव था?
रवीन्द्रनाथ टैगोर गीतांजलि में प्रकृति और ईश्‍वर की बात करते हैं, परम सत्‍ता की बात करते हैं। मेघों की, चिड़िया और फूलों की बात करते हैं। इसका अनुवाद करते हुए मैंने गीतांजलि के महत्‍व को जाना और समझा। मुझे मजा आने लगा अनुवाद करने में। यह एक अलग तरह का अनुभव था। गीतांजलि में वो सब मिलेगा, जो हम नहीं बना सके। हम प्रकृति की एक चीज नहीं बना पाए। हम पानी नहीं बना सके, हवा, अग्‍नि और आकाश नहीं बना सके, उसका सिर्फ इस्‍तेमाल कर सकते हैं। यह सारा अनुभव हमें रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि में मिलेगा।

जगदीश स्‍वामीनाथन की तरफ आपका कैसे रुझान हुआ?
जब मैं दिल्‍ली आया तो ‘दिनमान’ के लिए फ्री-लांसिंग करता था। अज्ञेय उसके संपादक थे। उन्‍होंने बुलाकर कहा कि 21वीं सदी में कलाओं के लेकर जगदीश स्‍वामीनाथन से बात कीजिए। मैंने उनका इंटरव्‍यू किया, वो बोलते रहे और मैं सुनता रहा, उनसे कला और कविता की समझ मिली। मैं कई बार उनके मिला, करीब 16 बार उनके साथ बैठक कर चर्चा की। वो बीड़ी पीते थे, मैं भी बाद में बीड़ी पीने लगा, अब नहीं पीता हूं हालांकि। लेकिन जगदीश स्‍वामीनाथन कहते थे कि कलाकृति किसी के बारे में नहीं होती, वो सिर्फ अपने बारे में होती है। कला या लेखन हमारा अपना यथार्थ होती है। इसके लिए जरूरी है कि हमारे संबोधन में ईमानदारी हो, सच्‍चाई हो। मैं उनसे काफी प्रभावित हुआ, बाद में उनकी बायोग्राफी लिखी।

क्‍या लेखक का राजनीतिक सरोकार होना चाहिए?
लेखक का राजनीतिक सरोकार होता है, लेकिन उसे हर विषय पर लिखने से बचना चाहिए।  

अब आप क्‍या लिखना चाहते हैं?
बहुत सारे विषय है जिस पर लिखना चाहता हूं। रामकुमार की जीवनी लिखना चाहता हूं, कोलकाता पर लिखना चाहता हूं। वहां के लोग मुझे बहुत प्रेम करते हैं।

नए लेखकों के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?  
अभी नए लेखकों का देश में विस्‍फोट है- कला में, लेखन में, सिनेमा में और थियेटर में। मैं उनसे संदेश लेना चाहूंगा। उनके पास सीखने के लिए बहुत सारा है, जिसे मैं सीखना चाहूंगा।

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