जिनका नाम ही काफी है- फ़ेसबुक पर 60 हजार मित्र और फालोअर्स हैं, तीन प्रोफाइल और पेजेस हैं, यू-ट्यूब पर एक लाख 30 हजार जुड़े हैं
विश्व की शीर्ष दो कंपनियों में से एक का निदेशक, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार का विजेता और राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित व्यक्ति यदि विनम्रतापूर्ण दोस्ताना लहजे में बात करे तो सुखद आश्चर्य होता है न? एकदम खुशमिज़ाज़ तरीके से मुलाकात, गर्मजोशी से अपनेपन की बात, यह पहचान है माइक्रोसॉफ़्ट में भारतीय भाषाओं तथा सुगम्यता के निदेशक बालेंदु शर्मा दाधीच की, जो हिंदी तकनीक की दुनिया के सर्वाधिक चर्चित व्यक्तित्वों में से एक हैं। पुणे प्रवास के दौरान एक बातचीत में वे अपनी कविता सुनाते हैं- नहीं नारों के दम पर एक भी सीढ़ी चढ़ेगी, नतीज़े हम दिखाएंगे तभी हिंदी बढ़ेगी।
प्रश्नः आपकी पृष्ठभूमि?
जयपुर के पास 10 हजार की आबादी वाले सेवा ग्राम के मूल निवासी बालेंदु कहते हैं, आठवीं के बाद की शिक्षा के लिए बचपन से ही बाहर रहा। पढ़ाई के दौरान भी राजस्थान पत्रिका, मुक्ता, सरिता, धर्मयुग जैसी बड़ी पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में लेख-कविताएं छपने लगे थे। इतनी आय भी होने लगी थी कि मेरा काम चल जाए। इससे से आत्मविश्वास भी आया, आत्मनिर्भरता भी और निखार भी।
प्रश्नः सुना है आपका करियर बड़ा दिलचस्प रहा?
पत्रकारिता से मैंने अपने करियर की शुरुआत की- पहले राजस्थान पत्रिका और फिर जनसत्ता, जहाँ काम करते हुए लगा कि कुछ नया किया जाए। तब प्रिंट पत्रकारिता छोड़कर टेलीविजन में कदम रखा- हिंदुस्तान टाइम्स की टेलीविज़न शाखा के जरिए। लेकिन वहाँ टीवी कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट रोमन में देखकर निराशा हुई। मैंने तय किया कि मैं इसका समाधान खोजूंगा। छोटे मुँह बड़ी बात!तब मैंने शून्य से पढ़ाई करना शुरू कर दिया। कुछ महीने प्रोग्रामिंग सीखकर सॉफ़्टवेयर बनाया-माध्यम, हिंदी वर्ड प्रोसेसर। हमारा चैनल तो बंद हो गया था, लेकिन दूसरी जगह पर लोगों ने उसे खूब इस्तेमाल किया। फिर मैं सहारा टीवी में चला गया।
लेकिन उसी दौरान उभरती हुई सूचना क्रांति ने मुझे आकर्षित किया। मैंने इस्तीफा दे दिया और औपचारिक रूप से दोबारा पढ़ाई शुरू की। बीएससी करने के बाद एमए हिंदी कर चुका था, उसके बाद पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया कंप्यूटर साइंस में,मुझे तसल्ली नहीं हुई तो मैंने एमएससी कंप्यूटर्स किया, एमसीए और एमबीए किया, पढ़ाई का लंबा दौर चला।
प्रश्नः आप पत्रकारिता से माइक्रोसॉफ़्ट तक कैसे पहुंचे?
नौकरी छोड़ी थी, तब उस ज़माने में मेरा वेतन 14000 रुपए था। लेकिन आईटी की पहली नौकरी 3500 से शुरू की। हाँ,एक महीने बाद ही कंपनी ने सामान्य कार्यकारी से मैनेजर ई-प्रोजेक्ट्स का पद सृजित कर मेरा वेतन 12500 रुपए कर दिया। मेहनत करते-करते रास्ते निकलते गए। फिर अनेक हिंदी सॉफ्टवेयर, इंटरनेट पोर्टल, वेबसाइटें तथा कई तरह का कन्टेन्ट बनाया। तकनीकी मुद्दों पर खूब लिखा। किताबें भी आईं। अनगिनत कार्यशालाएँ संचालित कीं, विदेश यात्राएँ भी हुईं। अंततः माइक्रोसॉफ़्ट में आने का रास्ता खुला और जीवन ने नई करवट ली। अब मैं ज्यादा बड़े काम कर सकता था तथा लोगों के जीवन को अधिक बेहतर ढंग से प्रभावित कर सकता था।
प्रश्नः आजकल क्या नया कर रहे हैं?
आज मैं समाज को योगदान देने के लिए भी काम करता हूं। दिव्यांगों के संगठनों सहित सामाजिक सरोकार के कई संगठनों से 20 सालों से जुड़ा हूँ। उन लोगों के लिए वेबसाइट बना देता हूँ। मेरा उद्देश्य भारत में तकनीकी मानस के प्रसार का है ताकि तरक्की को गति मिले। लोगों तक पहुँचने के लिए मैं हर उपलब्ध मंच पर जाता हूं। आखिरकार मेरा उद्देश्य तो जन-जन तक तकनीक को पहुंचाना है।