स्मृति आदित्य
मां
तुम जो रंगोली दहलीज पर बनाती हो
उसके रंग मेरी उपलब्धियों में चमकते हैं
तुम जो समिधा सुबह के हवन में डालती हो
उसकी सुगंध मेरे जीवन में महकती है
तुम जो मंत्र पढ़ती हो वे सब के सब
मेरे मंदिर में गुंजते हैं
तुम जो ढेर सारी चूडियां
अपनी गोरी कलाई में पहनती हो
वे यहां मेरे सांवले हाथों में खनकती है ...
मां
तुम्हारे भाल पर सजी गोल बिंदिया
मेरे कपाल पर रोज दमकती है
तुम्हारे मुख से झरी कहावतें
अनजाने ही मेरे होंठों पर थिरक उठती है
लेकिन मां
मैं तुम जैसी कभी नहीं बन सकी
तुम जैसा उजला रंग भी मैंने नहीं पाया
लेकिन तुम
मेरे विचार और संस्कार में
खामोशी से झांकती हो
क्योंकि तुमसे जुड़ी है मेरी पहचान
यह मैं जानती हूं, यह तुम जानती हो.....