होली की कविता : होली का मादक रंग

डॉ. रामकृष्ण सिंगी
मौसमी करवटों में बदल रहा स्वरूप वन-प्रांतर का,
प्रकृति नटी के गालों पर लाल पलाशी उमंग। 
वृक्षों की डालियां झूम-झूम ले रहीं हिलोर,
अल्हड़ मदभरी फागुनी बयारों के संग।।1।। 
 
हवाओं की सरसराहटों में कैसी अबूझ तान,
पतझड़ी पत्तों की खड़क में बज रही मृदंग। 
प्रेमियों के विकल मन में दस्तकों से मदनोत्सव की,
बन रहीं अनगिन अजानी चाहतों की सुरंग।।2।।
 
वसंत प्रेरित कामनाएं, वासंती अकुलाहटें,
राधा-माधव के ह्रदय-सागर में ज्वारीय तरंग। 
चंद्रकिरणों में गुंजित कान्हा की मधुरिम बांसुरी,
चंद्रमुग्ध चकोर सा बेसुध राधा का मन-विहंग ।।3।।
 
पुष्प-सज्जित चाप ले छुपा यहीं-कहीं अनंग। 
ध्यान-योगी शिव का भी जो करे ध्यान भंग ।।
व्यर्थ ही जन्मा जगत में, उम्र ले अनायास,
जिस पर न चढ़ा यौवन में, होली का मादक रंग ।।4।।

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