ग़ज़ल : आंखों में संभालता हूं पानी

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डॉ. रूपेश जैन 'राहत'
 
आंखों में संभालता हूं पानी आया है प्यार शायद
खूशबू कैसी, झोंका हवा का घर में बार-बार शायद
 
रात सी ये जिंदगी और ख्वाब हम यूं बिसार गए
बार-बार नींद से जागे टूट गया है एतबार शायद
 
सिमटके सोते हैं अपने लिखे खतों की सेज बनाकर
माज़ी की यादों से करते हैं खुद को खबरदार शायद
 
कुछ रोज़ की महफिल फिर खुद से ही दूर हो गए
लंबी गई तन्हाई की शामें दिल में है गुबार शायद
 
हमारा दिल है कि आईना देख के खुश हुआ जाता है
सोचता है वो आए तो जिंदगी में आए बहार शायद
 
उठाए फिरते हैं दुआओं का बोझ और कुछ भी नहीं
वक्त में अब अटक गए हैं हौसले के आसार शायद

सारी उम्र इंतजार करें तो कैसे बस इक आहट की
अरमां तोड़ने का' राहत करता है कोई व्यापार शायद

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