-डॉ. निशा माथुर
निशा भटक रही है बंजारन-सी लिए बहारें साथ में,
मैं! चपल दामिनी बन घूम रही हूं दिवाली की रात में।
चांद की दुल्हनिया को देखो, बादलों में जा छुप गई,
इस धरा पर दीप संग कैसे, रूप चौदस उतर रही।
आंगन से देहरी तक मेरी पायल, अल्पनाएं सजा रही,
अमावस पर उजाले की इन्द्रधनुषी आभा लुटा रही।
आज जागे कोई पुण्य ही मेरा दे दे सौगातें साथ में,
मैं! चपल दामिनी बन घूम रही हूं दिवाली की रात में।
एक अल्हड़ छोकरी-सी दीपक की लौ भी लुभा रही,
अटक-मटककर जलती-सी मुझको मुंह चिढ़ा रही।
हृदय की कादंबरी यूं रास्तों में फुलझड़ियां छोड़ रही,
सात रंगों की जरी रोशनी आज दिवस-सी लग रही।
स्पर्श का नेह निमंत्रण ले भर लिए उजियारे हाथ में,
मैं! चपल दामिनी बन घूम रही हूं दिवाली की रात में।
घूंघट डाल सौहार्द की गंगा श्रद्धा बनके इठला रही,
आस्था की परी गगन उतर तम को हर के जा रही।
आतिशबाजी झिलमिल-सी मन में पुलकन सजा रही,
शेषनाग की शैया तजकर जब लक्ष्मी द्वारे आ रही।
देह कंचन नयन खंजन उर्वशी-सी मेहंदी रचे हाथ में,
मैं! चपल दामिनी बन घूम रही हूं दिवाली की रात में।