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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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हम पर पत्तियाँ गिर रही हैं

संगत में कवि अशोक वाजपेयी का गद्य और प्रेरित कलाकृति

हमें फॉलो करें हम पर पत्तियाँ गिर रही हैं

रवींद्र व्यास

Ravindra VyasWD
इस बार संगत में एक बार फिर ख्यात कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी के गद्य का एक टुकड़ा और उस पर बनी मेरी पेंटिंग प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह गद्य अपनी काव्यात्मक संवेदना में जीवन के मर्म को लगभग अलक्षित दृश्य में पहचानने-समझने की एक विनम्र कोशिश लगती है। इसमें पतझर, दुःख, विलगाव, मृत्यु के साथ ही एक पेड़ के दुःख के व्याकरण को देखने की एक थरथराती निगाह है।

इन दिनों यहाँ आविन्यों और वेलेनूव में, समूचे प्रावाँस अंचल में बेमौसम बरसात हो रही है। बीच-बीच में पतझर,आँधी भी चलती है। यहाँ पेड़ों पर हरी के अलावा पीली पड़ती पत्तियाँ भी हैं-बारिश आँधी में वे गिरती हैं और अक्सर रास्ते और फुटपाथ उनसे पट जाते है। पता नहीं किसी भी पत्ती को कब पता चलता है कि उसकी अवधि अब समाप्त होने जा रही है-कि उसका हरापन पीला पड़ने को, कि बिना आँधी तूफान की आकस्मिक और अप्रत्याशित दुर्घटना के भी, वह झरने को है।

  यह गद्य अपनी काव्यात्मक संवेदना में जीवन के मर्म को लगभग अलक्षित दृश्य में पहचानने-समझने की एक विनम्र कोशिश लगती है। इसमें पतझर, दुःख, विलगाव, मृत्यु के साथ ही एक पेड़ के दुःख के व्याकरण को देखने की एक थरथराती निगाह है।       
पत्ती अगर जान जाए तो क्या उसका अवसाद उसमें जल रही हरी लौ को एक बार और तेज कर देता है मानों कि वह तेज हरी आँच हो उसे पियराने लगे, बजाय किसी रसायन के क्षीण पड़ता स्रोत। हरी पत्ती का झरना एक अंत है, एक मृत्यु है, वृक्ष से अलगाव है। पर वह ऐसा समापन है जिस पर कोई आँसू नहीं बहाता, न कोई शोकगीत गाता है। वृक्ष अगर दुःखी संतप्त होता हो पता नहीं : वैसे भी हम वृक्ष के प्रसन्न, हर्षोत्फुल्ल होने को तो जानते हैं, उसके दुःख के व्याकरण हमें पता नहीं।

पत्तियाँ झरकर सिर्फ जमीन पर नहीं, हमारे बनाए गलियारों, सड़कों, आँगन और चबूतरों पर गिरती हैं। तज दी गई पुरानी चीजों पर, हमारे अचानक हो गए उदास मन पर और कविताओं में खाली रह गई जगहों पर भी पत्तियाँ गिरती हैं। वे प्रायः बिना कोई आवाज किए चुपचाप, न जाने कब गिरती हैं। ऐसे भी पतन हैं जिनकी हमें कोई आवाज तक हम नहीं सुन पाते।

अंततः पत्तियाँ हम पर गिरती हैं : हममें जो विजड़ित होता जाता है, प्रेम या संवेदना में, हममें जो सिकुड़ता और सहमता जाता है, उस पर पत्तियाँ गिरती हैं। हम अपना वसंत पहचानते हैं : अपने पतझर की हमें खबर नहीं होती। इस बात से कोई राहत नहीं मिल सकती कि पत्तियों को भी पतझर की खबर नहीं होती है।

क्या रिल्के ने बु्द्ध की प्रतिमा पर, अपनी किसी कविता में पत्तियाँ गिरते देखा था?

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