अंतर की अतल गहराइयों को जान पाते हैं?
इस बार संगत में श्रीनरेश मेहता का गद्यांश और कलाकृति
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि-उपन्यासकार-चिंतक श्रीनेरश मेहता अपनी वैष्णवी संवेदनशीलता के लिए जाने जाते हैं। अपने संस्मरणों की एक किताब 'हम अनिकेत' बरसों पहले छप कर आई थी और हिंदी साहित्य में इसका कोई वाजिब नोटिस नहीं लिया गया। इस बार संगत में इसी किताब का एक मार्मिक अंश प्रस्तुत किया जा रहा है और इसके भाव से साम्य रखने वाली कलाकृति दी जा रही है।
क्या सच ही हम अपने अंतर की अतल गहराइयों को जान पाते हैं? उन गहराइयों को जो दबा-मूँदा होता है वह सब इसमें से ही होकर तो गुजरा था, तब भला हमें उस सबका पता क्यों नहीं होता? जिन्हें हम जान रहे होते हैं वे तो बड़े निरीह अनुभव या प्रसंग होते हैं लेकिन क्या कभी उन अंधेरी गहराइयों में झाँककर हम देखते हैं जहाँ कभी अभिव्यक्ति का प्रकाश नहीं पहुँच सकेगा?
वस्तुतः अनुभवों के ये ऐसे भ्रूण होंगे जो निषेध के शिकार हो गए। किसी मुख की लालसा देखना चाहा होगा पर किसी निषेध के कारण अधूरा ही देख पाए होंगे। वही अधूरा देखना प्रतीक्षा करता तल डूबी समुद्री वनस्पति सा लहरा रहा होगा। किसी को छूने की लालसा कैसी बुझी रह गई होगी?
अपने नेत्रों को हाथ बना हमने उस देहयष्टि को भोगने के स्तर तक छुआ भी होगा पर वे लालसा में उठे हाथ, देह की आसवता में डूबे नेत्र क्या किसी दिन हम किसी को दिखा सकते हैं?
...कोई अलभ्य गोपनता कभी अभिव्यक्त नहीं हो पाती। अभिव्यक्त कर दिए जाने पर शायद वैसा ही अपराध भाव घेरने लगे जैसे किसी स्त्री को उसके एकांत में वस्त्र बदलते देख लिया हो! यदि हम एकांतिकता की पवित्रता को बरकरार नहीं रख सकते तो उसे अपने में अनभिव्यक्त तो रहने ही दे सकते हैं! हम क्यों सब कुछ व्यक्त करना चाहते हैं?
जिस दिन सबकुछ अभिव्यक्त कर दिया जाएगा उस दिन के बाद सारी अभिव्यक्तियाँ भाषाहीन हो जाएँगी। कभी वाचाहीन मुख की विवश कोशिश देखी है? नहीं, सृजन को स्वत्व की गहराइयों में रहने दिया जाना चाहिए।
(लेखक की किताब हम अनिकेत से साभार)