(26 मार्च 1907-11 सितंबर 1987)
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एक सन्यासिनी की तरह जीवन को जीने वाली लेखिका महादेवी वर्मा को अपने लेखन से पहचान मिली।
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महादेवी वर्मा आज के युग में महिला सशक्तिकरण का प्रतीक मानी जाती हैं।
इंटरनेट के दौर में किताबों का दौर खत्म होता सा नजर आता है, वहीं लेखकों के नाम भी अब उस तरह से याद नहीं रहते जैसे पहले याद रहा करते थे, लेकिन बावजूद इसके पुराने दौर के लेखकों का साहित्य आज भी जिंदा है। उन लेखक और साहित्यकारों को आज भी बेहद शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।
ऐसे ही लेखकों में एक नाम है हिन्दी साहित्य की कवयित्री, लेखिका महादेवी वर्मा का।
आज उनकी 115वीं जयंती है। उनका जन्म 26 मार्च, 1907 को उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद में हुआ था। पिता प्रोफेसर थे। मां ने विशेष रूप से उन्हें संस्कृत और हिंदी दोनों सिखाई। महादेवी ने सात साल की उम्र में कविता लिखना शुरू कर दिया था। उन्हें भारतीय साहित्य में अपने योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982) दिया गया था। महादेवी को आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है।
महादेवी वर्मा की महज नौ साल की उम्र में शादी हो गई थी, लेकिन वे अपने माता-पिता के साथ ही रहीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल करने के दौरान महादेवी वर्मा की कविताएं लोगों के बीच आने लगीं। पहले वे अपने लेखन को छुपाकर ही रखती थीं, लेकिन एक दिन उनकी रूममेट और दोस्त प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने उनकी कविताएं देख ली। दोनों ने साथ में लिखना शुरू किया और वे जानी-मानी कवयित्री बन गईं।
महादेवी वर्मा को हिंदी साहित्य में छायावाद का लेखक माना जाता है। उन्हें सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रा नंदन पंत और उनके समकालीन सहित कई लोकप्रिय हिंदी कवियों ने सराहा। हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख लेखक में सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ महादेवी को भी प्रमुखता के साथ शामिल किया जाता है।
उनकी बाल कविताओं के दो संकलन भी प्रकाशित हुए, जिनमें ठाकुर जी भोले हैं और आज खरीदेंगे हम ज्वाला शामिल हैं। महादेवी वर्मा को कवयित्री के तौर पर जाना जाता है, लेकिन उन्होंने कई कहानियां और संस्करण लिखे हैं।
महादेवी वर्मा अपने पति से अलग रहती थीं। उनका विवाह बरेली के पास नवाबगंज कस्बे के वरुण नारायण वर्मा से हुआ था, लेकिन वे अलग रहती थीं। इसके बाद उन्होंने जाने-अनजाने खुद को एक संन्यासिनी के जीवन में ढाल लिया। पूरी जिंदगी सफेद कपड़े पहने। वह तख्त पर सोईं। यहां तक कि कभी श्रृंगार तक नहीं किया।
महादेवी वर्मा अपने आप में महिला सशक्तिकरण का प्रतीक हैं। आज कई आधुनिक लेखिकाएं उन्हें अपना प्रतीक मानती हैं। साल 1934 में उन्होंने अपने काम के लिए हिंदी साहित्य सम्मेलन में सेसरिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1956 में उन्हें पद्म भूषण और 1979 में साहित्य अकादमी फैलोशिप से सम्मानित किया गया।
1982 में उन्हें कविता संग्रह यामा के लिए ज्ञानपीठ अवॉर्ड दिया गया। इसके बाद 1988 में महादेवी को भारत सरकार ने देश के दूसरे सर्वोच्च पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाज़ा। 11 सितंबर, 1987 को प्रयागराज में महादेवी वर्मा का निधन हो गया, लेकिन वे आज भी साहित्य जगत में सम्मान के साथ देखी और पढ़ी जाती हैं।