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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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'प्रेम' हो जीवन का मूल मन्त्र

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प्रज्ञा पाठक

- प्रज्ञा पाठक 
कभी कभी मुझे ये ख्याल आता है कि मानव-मन की परतें इतनी सघन हैं कि आप उतारते उतारते थक जायेंगे, लेकिन पार पाना अतीव कठिन होगा। मानव मन में भावों की संगुफ्तता इतनी जटिल हो गई है कि उसकी थाह पाना मुश्किल है। आशय यह है कि कोई भी अंतर्यामी नहीं है, जो आपके मन को जान सके। माता -पिता हमारे अंतर्तम को अधिकांशतः में जानते हैं, लेकिन शत प्रतिशत तो हम ही जानते हैं। इसलिए कई बार निकट के रिश्तों में भी गलतफहमियां हो जाती हैं। आपने क्या बोला, सामने वाले ने क्या समझा, उसने क्या प्रतिक्रिया दी और आपने किस अर्थ में ग्रहण की?

ये सब जीवन भर चलता रहता है और हममें से अधिकांश इन्हीं गुत्थियों में उलझे उलझे दुख और असंतोष से भरे जीवन के पार हो जाते हैं।

नतीजा कुल जमा यह कि 'न इधर के रहे, न उधर के रहे/ न खुदा ही मिला, न विसाले सनम।' इस दुनिया में आये भी रीते हाथ और गए भी खाली हाथ। रीते हाथ आना तो प्रकृति का नियम है, लेकिन खाली हाथ जाना या ना जाना हमारे हाथों में है। यदि जीवन को जीने का सही तरीका जान लें, तो मृत्यु के समय खाली हाथ नहीं रहेंगे। वस्तुतः मेरी दृष्टि में ईश्वर ने जिस मूल विचार को केंद्र में रखकर मानव की रचना की थी, वो था-प्रेम। हम जिस मानवीयता की चर्चा करते हैं, उसे दया, सहानुभूति, सौहार्द्र, बंधुत्व, दान, संवेदनशीलता आदि भावों के समूह-रूप से ही परिभाषित किया जाता है।

आप तनिक सूक्ष्मता से देखिये, इन सभी भावों के मूल में एकमात्र प्रेम है। जिसके मन में प्रेम अपने विशुद्ध रूप में वर्तमान है, वही इस जगत् के प्राणियों पर दया का भाव रखेगा, वही किसी दुखी के प्रति सहानुभूति से भर उठेगा, वही मानव-मानव में अंतर ना कर परस्पर सौहार्द्र से रहेगा, वही सभी को अपना मान बंधुत्व को जीयेगा, वही गरीब को दान देगा और वही इन सभी भावों को अपने आचरण में जीकर स्वयं के संवेदनशील होने का परिचय देगा। निष्कर्ष यह कि यदि मन में विशुद्ध या निर्मल प्रेम है, तो हम सच्चे मानव हैं और यदि ऐसा है, तो हमें अपने मूल चरित्र में जीना चाहिए, जो ईश्वर निर्मित है- 'मानवीयता से सम्पन्न।'

वैसे भी ईश्वर ने जो भी बनाया, वो अपनी मूल प्रकृति में सर्वथा पवित्र, सुखकारी और आनन्ददायी था। जितनी भी अपवित्रता और दुःख का प्रसार हुआ है, वो मानव के अपने मूल भाव-प्रेम-से वियुक्त हो जाने के कारण हुआ। तो लौट आइये अपने मूल उत्स-प्रेम पर। उसे ही अपना जीवन-मन्त्र बना लीजिये। अपना सब कुछ प्रेममय कर लीजिये। प्रेम ही साध्य हो ,वही साधन रहे। जब ये कर लेंगे ना, तो आपके मन की परत-दर-परत प्रेम पगी हो जायेगी। तब मुख और मन का अंतर समाप्त हो जायेगा। जो भीतर है, वही बाहर झलकेगा भी और छलकेगा भी। जगत् आपके लिए और आप जगत् के लिए सहज साध्य हो जायेंगे।

'प्रेम' आपको वो परम आनंद देगा, जिसके समक्ष दुनियावी दुःख और असंतोष बौने हो जायेंगे और प्रत्येक व्यक्ति 'अपना' ही अनुभूत होगा। निश्चित रूप से तब मृत्यु के समय भी खाली हाथ नहीं ,प्रेम की तृप्ति से आकण्ठ भरे हुए जायेंगे। स्मरण रहे कि देह और स्वार्थ के संकीर्ण दायरों में आबद्ध प्रेम, प्रेम नहीं छलावा है। प्रेम तो वह है, जो कबीरदास जी कह गये हैं- प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई आठ पहर  भीना रहै, प्रेम कहाबै सोई।

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