कुंवर नारायण की पुण्‍य‍तिथि‍ पर उनकी 5 खूबसूरत कविताएं

Webdunia
सोमवार, 15 नवंबर 2021 (18:15 IST)
उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद में 19 सितंबर 1927 को कुंवर नारायण का जन्‍म हुआ था। वे समादृत कवि-आलोचक और अनुवादक थे। उन्‍हें भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया था। आइए पढ़ते हैं उनकी 5 खूबसूरत कविताएं।

(1)
कोई दुख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं
वही हारा
जो लड़ा नहीं
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(2)
एक अजीब दिन
आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा न माना।
आज सबका यक़ीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया।
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया।
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(3)
जब आदमी आदमी नहीं रह पाता
दरअसल मैं वह आदमी नहीं हूं जिसे आपने
ज़मीन पर छटपटाते हुए देखा था।
आपने मुझे भागते हुए देखा होगा
दर्द से हमदर्द की ओर।
वक़्त बुरा हो तो आदमी आदमी नहीं रह पाता। वह भी
मेरी ही और आपकी तरह आदमी रहा होगा। लेकिन
आपको यक़ीन दिलाता हूं
वह मेरा कोई नहीं था, जिसे आपने भी
अंधेरे में मदद के लिए चिल्ला-चिल्लाकर
दम तोड़ते सुना था।
शायद उसी मुश्किल वक़्त में
जब मैं एक डरे हुए जानवर की तरह
उसे अकेला छोड़कर बच निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर,
वह एक फंसे हुए जानवर की तरह
ख़ूंख़ार हो गया था।
--- ---

(4)
इंतिजाम
कल फिर एक हत्या हुई
अजीब परिस्थितियों में।
मैं अस्पताल गया
लेकिन वह जगह अस्पताल नहीं थी।
वहां मैं डॉक्टर से मिला
लेकिन वह आदमी डॉक्टर नहीं था।
उसने नर्स से कुछ कहा।
लेकिन वह स्त्री नर्स नहीं थी।
फिर वे ऑपरेशन-रूम में गए
लेकिन वह जगह ऑपरेशन-रूम नहीं थी।
वहां बेहोश करने वाला डॉक्टर
पहले ही से मौजूद था—मगर वह भी
दरअसल कोई और था।
फिर वहां एक अधमरा बच्चा लाया गया
जो बीमार नहीं, भूखा था।
डॉक्टर ने मेज़ पर से।
ऑपरेशन का चाक़ू उठाया
मगर वह चाक़ू नहीं
जंग लगा भयानक छुरा था।
छुरे को बच्चे के पेट में भोंकते हुए उसने कहा
अब यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा।
--- --- ---

(5)
बाज़ारों की तरफ़ भी
आजकल अपना ज़्यादा समय
अपने ही साथ बिताता हूं।
ऐसा नहीं कि उस समय भी
दूसरे नहीं होते मेरे साथ
मेरी यादों में
या मेरी चिंताओं में
या मेरे सपनों में
वे आमंत्रित होते हैं
इसलिए अधिक प्रिय
और अत्यधिक अपने
वे जब तक मैं चाहूं साथ रहते
और मुझे अनमना देखकर
चुपचाप कहीं और चले जाते।
कभी-कभी टहलते हुए निकल जाता हूं
बाज़ारों की तरफ़ भी:
नहीं, कुछ ख़रीदने के लिए नहीं,
सिर्फ़ देखने के लिए कि इन दिनों
क्या बिक रहा है किस दाम
फ़ैशन में क्या है आजकल
वैसे सच तो यह है कि मेरे लिए
बाज़ार एक ऐसी जगह है।
जहां मैंने हमेशा पाया है।
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला,
और एक ख़ुशी
कुछ-कुछ सुकरात की तरह
कि इतनी ढेर-सी चीज़ें
जिनकी मुझे कोई ज़रूरत नहीं!

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