डॉ राही मासूम रज़ा जिनकी वजह से घर-घर तक पहुंचा ‘महाभारत’

dr rahi masoom raza
Webdunia
गुरुवार, 1 सितम्बर 2022 (13:43 IST)
(1 सितंबर को डॉ राही मासूम रज़ा के जन्‍मदिवस पर विशेष)
डॉ. राही मासूम रज़ा देश के जाने माने शायर रहे हैं। जब जब शायरी और अदब का चर्चा चलता है, राही मासूम रज़ा का नाम लिया जाता है। महाभारत को घर घर में चर्चा दिलाने में उनका मूल्‍यवान योगदान है। आइए जानते हैं डॉक्‍टर राही मासूम रज़ा के बारे में।

डॉ. राही मासूम रज़ा का जन्म गाजीपुर के गंगौली गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता बशीर हसन आब्दी गाजीपुर के एक नामी वकील थे। राही मासूम रज़ा अपने बचपन से ही एक आजाद किस्‍म की शख्सियत थे। वे सिर्फ वही करते थे, जिस तरफ उनका मन होता था। इसी के चलते बहुत कम उम्र में ही वे कम्युनिस्ट मूवमेंट से भी जुड गए। कम्‍युनिज्‍म की वजह से ही उनकी ठीक से पढ़ाई नहीं हो सकी और वे सिर्फ दसवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। लेकिन किसे पता था कि जो सिर्फ दसवीं तक ही पढ़ा है वो शायरी की दुनिया का सिकंदर होगा।

पढ़ाई तो कम ही हुई लेकिन अपनी युवा अवस्‍था से ही वे अपनी शायरी और ख्‍याल को लगातार मांजते रहे। एक दौर ऐसा आया कि राही मासूम रज़ा बतौर एक शायर न सिर्फ मशहूर हो चुके थे बल्‍कि बेहद लोकप्रिय भी थे। हालांकि बाद में उन्‍होंने पढ़ाई को आगे बढ़ाया और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से उर्दू में अदीब कामिल का कोर्स किया। इसके बाद उनहोंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में एमए में एडमिशन लिया।

राही मासूम रजा और महाभारत
राही मासूम रजा का नाम आने पर धारावाहिक ‘महाभारत’ और उनके पहले उपन्यास ‘आधा गांव’ सहज ही दिमाग में चले आते हैं। हिंदी साहित्य में उन्हें एक खास स्‍थान मिला हुआ है, लेकिन अपने उपन्‍यास ‘आधा गांव’ ने उन्‍हें अलग पहचान दिलाई। उनका एक दूसरा उपन्यास ‘ओस की बूंद’ भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उन्‍हीं का योगदान था कि महाभारत जैसा महान ग्रंथ टीवी के जरिए घर घर तक पहुंचा।

रजा ने कहा था कि अगर कल्लू काका नहीं होते
राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को ग़ाज़ीपुर में हुआ था। 11 साल की उम्र में उन्हें टीबी हो गई। बीमारी में आराम करने के दौरान उन्होंने घर में रखी सारी किताबें पढ़ डालीं। उनका दिल बहलाने और उन्हें कहानी सुनाने के लिए कल्लू काका को मुलाज़िम रखा गया। ये वही कल्‍लू काका थे जिनके बारे में ख़ुद राही मासूम रजा ने कहा था कि अगर कल्लू काका नहीं होते तो वो कई कोई कहानी नहीं लिख पाते।

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