वो आंगन की
भुरभुरी-सी सूखी मिट्टी
वो फर्श पर पड़ी
धूल पे चंद पांव के निशान
वो अखबार के कुछ
फड़फड़ाते बिखरे पन्ने
वो डाइनिंग टेबल पर पड़े
चाय के दो खाली प्यासे प्याले
वो चादर पर पड़ीं चंद सिलवटें
वो बिस्तर में पड़ा
मासूम गीला तौलिया
वो इंतजार करती
उल्टी भीगी छतरी
वो खामोश दाल की काली पतीली
ये सब काम वाली बाई की छुट्टी की निशानियां हैं।
(हमेशा गुलजार साहब की शायरी नहीं होती)