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भारत में बढ़ता अँग्रेजी का चलन...

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जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था तब हमने सोचा था कि हमारे आजाद देश में हमारी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति होगी लेकिन यह क्या? अँग्रेजों से तो हम स्वतंत्र हो गए पर अँग्रेजी ने हमको जकड़ लिया।

हम यह बात कर रहे हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों को अँग्रेजी की जगह हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गाँधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भार‍त नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिन्दी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिन्दी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था और जहाँ तक हमारा प्रश्न है हम बिलकुल नहीं चाहते कि देश के किसी भी हिस्से पर हिन्दी को आरोपित किया जाए।

अँग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख भाषा है। दरअसल हम कहते हैं कि 'अँग्रेजी हटाओ', यह नहीं कहते हैं कि 'अँग्रेजी मिटाओ'। हमारी बात लोग गलत समझते है। हमारा यह तात्पर्य नहीं कि अँग्रेजी को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है। वैसे भी आज हिन्दी को यह सम्मान नहीं मिल पा रहा है।

अँग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिन्दी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिन्दी में हैं, वह भी अँग्रेजी में हो जाएँगी। हमारा राष्‍ट्रगीत, राष्ट्रगान, हमारी पूजा-प्रार्थना सब अँग्रेजी में हो जाएँगे। हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे हम भारतवासी को अपनाना चाहिए, लेकिन आजकल की पीढ़ी जब भी अपना मुँह खोलती है तो सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी ही बोलती है। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना' कभी संभव हो पाएगा।

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