'जाओ, अगले 14 सितंबर को आना!'
-
मोहन रावल मैं सड़क से गुजर रहा था तो मैंने देखा कि एक बुढ़िया जोर-जोर से रो रही थी। उसकी कराह तथा दुर्दशा को देखकर मेरा भारतीय मन संवेदनशील हो उठा। मैंने उसे सांत्वना के बहाने दो शब्द कहे तो वह फफककर रो पड़ी। ज्यों-ज्यों मैं उसे सांत्वना देता, उसकी आंतरिक पीड़ा पिघलकर आँसुओं और हिचकियों में बदल जाती थी। आखिर मैंने पूछ ही लिया- 'अम्मा रोती क्यों हो? क्या तकलीफ है?' मौन! पर उसका सिसकियों का स्वर धीमा हो चला था। '
अरे! कुछ तो बोलो!' मैंने पूछा। अंततः उसके आँसू थमे और क्षीण-सी आवाज निकली।
मैं लगभग चालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा हूँ। आजादी के लिए मैंने भी संघर्ष किया कि मेरे बच्चे गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हों, पर आजादी मिलने पर मेरे कुछ संपन्न बड़े बेटों ने मुझसे आँखें फेर लीं।
|
|
'बाबू! क्यों मेरे घाव कुरेदते हो, अपने रास्ते जाओ। इन सहानुभूतियों के शब्दों ने मेरा तन-मन छलनी कर दिया है।'
'नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। मुझसे जो बन पड़ेगा, मैं करूँगा। आखिर तुम कौन हो और तुम्हारी यह हालत किसने की है।'
'मैं क्या बोलूँ, क्या परिचय दूँ अपना। मैं लगभग चालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा, जिसे पूज्य बापू, स्वामी विवेकानंद, टंडनजी ने सगी माँ से ज्यादा आदर दिया था। आजादी के लिए मैंने भी संघर्ष किया कि मेरे बच्चे गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हों गए, पर आजादी मिलने पर मेरे कुछ संपन्न बड़े बेटों ने मुझसे आँखें फेर लीं। मानसिक गुलामी के कारण मेरे कुछ बेटों ने मेरे आसन पर अँग्रेजी को बैठा दिया और मुझे धक्के मारकर घर से निकाल दिया।
मैं दर-दर भटकती फिरती हूँ। अरे! मैं तो जीना भी नहीं चाहती परंतु क्या करूँ, मेरे छोटे बेटों गरीब किसान, मजदूर तथा देशभक्तों के प्रेम के कारण मैं मर भी नहीं सकती। सोचती हूँ, मैं मर गई तो वे गूँगे-बहरे तथा अपंग हो जाएँगे। इसलिए खून के घूँट पीकर भी जिंदा लाश की तरह भटक रही हूँ।' इतना कहकर वह फिर रोने लगी।
मैंने उसे सांत्वना के दो शब्द कहे तो वह फिर फूट पड़ी और कहने लगी, 'हिन्दी दिवस पर लोगों ने मुझे फुटपाथ से उठाया और चौराहे पर सुंदर सिंहासन पर बैठा दिया। चीथड़ों के स्थान पर पुरानी सुंदर साड़ी पहनाकर मेरे स्वार्थी बड़े बेटे वोट के लिए मेरी वंदना करने लगे। मुझे तो ऐसा लग रहा था मानो कोई चौराहे पर लाश को कफन ओढ़ाकर क्रियाकर्म के नाम पर चंदा वसूल कर रहा हो। मैं तो सीता की तरह वहीं धरती में समा जाती पर क्या करूँ मेरे गरीब बेटों का प्रेम मुझे मरने भी नहीं देता।' ऐसा कहते-कहते उसका गलाभर आया और फिर वह आगे बोल नहीं सकी।
'अरे, हिन्दी माँ! बोलो, चुप क्यों हो गईं?' मैंने कहा।
बड़ी मुश्किल से उसके गले से शब्द निकल रहे थे। वह बोली, 'बाबू! तुम क्या समझोगे मेरी पीड़ा। जाओ, अगले 14 सितंबर के दिन फिर आना।' ऐसा कहकर वह खामोश हो गई।