-अनुपमा रॉय
अनुवाद : कमल नयन चौबे
ऐतिहासिक रूप से नागरिकता की निर्मिती बहिष्करणों की एक श्रृंखला से हुई जिसमें लोगों के एक बड़े तबके को नागरिकता के लिए अयोग्य माना गया। विभिन्न ऐतिहासिक दौरों में 'नागरिक बनने' के रूप में समान सदस्यता का क्रमिक विस्तार हुआ जिससे नए लोग और समूह नागरिकता के दायरे में सम्मिलित हुए।
हालांकि समानता का वादा जाति के पदसौपानों, जेंडर के विभेदों और धार्मिक विभाजनों की बहिष्करणीय रूपरेखा पर एक तरह से पर्दा डाल देता है। किंतु हकीकत यह है कि इन्हीं पदसौपानों, विभेदों और विभाजनों के आधार पर नागरिकता का वास्तविक अनुभव सामने आता है।
यह किताब अंग्रेजी में सबसे पहले वर्ष 2005 में 'जेंडर्ड सिटीजनशिप : हिस्टॉरिकल एंड कॉन्सेप्चुअल एक्सप्लोरेशंस' के शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इसका यह हिन्दी संस्करण मूल किताब का संशोधित और परिवर्द्धित रूप है। भारत में औपनिवेशिक शासन के उत्तरार्द्ध में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध के संदर्भ में नागरिकता की भाषा का उभार हुआ। यह भाषा राष्ट्रीय और राजनीतिक- दोनों ही स्तरों पर समुदाय की जेंडर आधारित अवधारणा पर निर्भर थी।
यह भारतीय संविधान द्वारा नागरिकता के विचार में बदलाव से संबंधित दलीलों का विश्लेषण करते हुए नागरिकता को एक बहुल स्थानों के रूप में चिह्नित करती है और समकालीन समय में नागरिकता के मुहावरों का वर्णन करती है। इसमें नई नागरिकता के दायरे की जांच-पड़ताल की गई है, जो श्रेणीबद्ध हकदारियों के साथ लचीली नागरिकता के रूप में उभरकर सामने आई है।
यह किताब प्रस्तावित करती है कि एक अंत:क्रियात्मक सार्वजनिक स्थान की प्राप्ति हेतु नियमित और गंभीर प्रयास से नागरिकता के सहभागी जुड़ाव की स्थापना की जा सकती है। यह पुस्तक राजनीति विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, जेंडर अध्ययन और सामाजिक बहिष्करण के विद्यार्थियों, अनुसंधानकर्ताओं और विद्वानों के लिए मूल्यवान सबित होगी।
स्त्री विमर्श/सामाजिक विज्ञान
पृष्ठ संख्या-298
रु. 695/-