पुस्तक अंश : ब्रिटिशराज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

British rule and freedom of expression
Webdunia
-डॉ. नरेन्द्र शुक्ल
 
विचार एवं अभिव्यक्ति मनुष्य के नैसर्गिक गुण हैं, जो उसे जन्म से प्राप्त होते हैं। वह इनका उपयोग भी अपने जन्मसिद्ध अधिकार की ही तरह करने की इच्छा रखता है। किंतु राज्य, संगठित धर्म अथवा व्यवस्था का कोई भी अन्य स्वरूप जो स्वयं के बने रहने को अपने अधिकार की तरह लेते हैं, उनके लिए आम जनमानस की अभिव्यक्ति की सीमा वहीं तक होती है, जहां तक वह उनके बने रहने के अधिकार के लिए खतरा न उत्पन्न करे।

 
व्यक्ति और व्यवस्था के बीच अंतरविरोध का यह बिंदु दोनों के मध्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नैसर्गिक अधिकार के लिए संघर्ष का प्रस्थान बिंदु बन जाता है। यह पुस्तक मनुष्य के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी इसी नैसर्गिक अधिकार के संघर्ष से सीधे जाकर जुड़ती है, जो विवेच्य काल में भारत में आवश्यक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन से संपृक्त रहा था।
 
वस्तुत: औपनिवेशिक भारत में प्रेस और मुद्रित साहित्य द्वारा लड़ी जाने वाली लड़ाई इकहरी न होकर दुहरी थी। एक तरफ वह स्वयं अपनी स्वतंत्रता के अधिकार के लिए संघर्षरत तो था ही, साथ ही वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के ऊर्जित विचारों को आम जनमानस तक पहुंचा रहा था।

 
उसकी इस दोहरी भूमिका के कारण औपनिवेशिक प्रशासन की ओर से उसे दोहरे प्रतिबंध सहने पड़े किंतु भारत के आम जनमानस को स्वतंत्रता के विचार से जोड़ने वाली उसकी इस भूमिका ने उसे जीवित भी रखा। यह पुस्तक भारतीय प्रेस की उस जीवनी शक्ति से सीधा संवाद है।
 
प्रकाशित पुस्तकें : उपनिवेश, अभिव्यक्ति और प्रतिबंध (ब्रिटिशकालीन उत्तरप्रदेश में प्रतिबंधित साहित्य, 1858-1947), भारत में प्रेस एवं विधि, बाग़ी कलमें; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : सरकार और सरोकार (सं.)।
 
(प्रमुख, शोध एवं प्रकाशन विभाग, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय) 

साभार- वाणी प्रकाशन 

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