'यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं', ये किताब हाथ में लेते ही मुझे बहुत भा गई। सुंदर कवर, हल्का वजन और गोल्डन स्याही से लिखा हुआ लेखक और किताब का नाम। किताब के पन्नों और स्याही की लिखावट की खुशबू पाठक पर क्या प्रभाव छोड़ती है, यह हर पुस्तक प्रेमी समझ सकता है।
किताब को पढ़ना उस पर लिखे हुए को ही पढ़ना नहीं होता है पाठक के लिए। किताब को हाथों में थामना, खोलना उसकी खुशबू में खो जाना एक पूरी प्रक्रिया होती है पढ़ने की। और उस पर किताब इतनी रोचक हो तो कहने ही क्या?
साहित्य और कला जुनून वालों का क्षेत्र है। हर कलाकार, हर लेखक, भीतर ही भीतर एक यायावर व कुछ आवारा-सा घुमंतू बंजारा ही तो है। एक लेखक के मन में ये तीनों फक्कड़पन होने आवश्यक हैं। वह निजी जिंदगी में ऐसा कर पाए या नहीं, यह अलग विषय है। 'यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं', पंकज सुबीर के लेखन व साहित्य से जुड़ीं तीन विदेश यात्राओं और आयोजनों का संस्मरण है, जो उन्होंने क्रमश: 2013, 2014, 2015 में की हैं।
अपनी पहली विदेश यात्रा में लेखक एक कथा सम्मान लेने लंदन पहुंचते हैं। वहां के उनके अनुभव, मन के भाव ऐसे लिखे गए हैं कि पाठक को लगेगा कि वह स्वयं भी पहली बार लंदन आया है और घूम रहा है। एक लेखक व व्यक्ति के तौर पर एक 'काश!' आप कहीं-कहीं पा सकते हैं, पर पूरी किताब में कहीं भी लेखक अपने देश की तुलना उन देशों से कर अपने देश के लिए नकारात्मक नहीं होता है।
जैसा कि इस तरह के संस्मरण में आम बात है। लेखक प्रगति को देख अपने यहां भी इस तरह की प्रगति के लिए लोगों पर दबाव नहीं डाल रहा है, सिस्टम पर दबाव नहीं डाल रहा है, बल्कि स्वयं उस बर्ताव को सीख अपनी जिंदगी में उतारना चाहता है और यही देशहित सोचने वाले को करना भी चाहिए, क्योंकि कहते भी हैं कि चैरिटी घर से शुरू होती है।
सबसे अच्छी बात पंकज सुबीर ने एक यात्री और समय मिले तो पर्यटक के तौर पर यह किताब लिखी है। अपने लेखक होने को उन्होंने इस संस्मरण और इसकी भाषा से दूर रखने की कोशिश की है। जिससे पाठक स्वयं देखता है, जो वह पढ़ रहा है।कहीं भी भारी-भरकम आंकड़ों व लंबे-लंबे स्थान वर्णन का प्रयोग नहीं किया गया है।
उन्होंने सहज घटित हो रहे अपने अनुभव को पाठक बल्कि स्वयं के सामने रख दिया है। हर नए अनुभव से चौंकने, नई तरह की दैनिक जीवनशैली के विषय में जानने पर अपना पक्ष वैसे का वैसा ही सामने रख दिया है, जो उन्हें अनुभव किया।
कुछ भी ऐसा नहीं है, जो आपको बोर करे या पन्ने पलटने पर मजबूर करे, क्योंकि ये केवल एक यात्रा संस्मरण नहीं है। इस किताब में विदेशी धरती के साथ-साथ हिन्दी के बड़े लेखकों चित्रा मुद्गल, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, महेश कटारे, उषा प्रियंवदा आदि के साथ बिताए गए पलों का भी लेखक ने ब्योरा दिया है इसलिए यह पाठकों को बहुत रोचक लगेगा।
पाठक आनंदित होंगे अपने प्रिय लेखकों की निजी जिंदगी के विषय में जानकर, क्योंकि ये एक सहज जिज्ञासा होती है। कोई लेखक अपने निजी जीवन में कितना विनम्र, सहज और सरल होता है ये जानने और सीखने का मौका मिलेगा। जैसे लेखक ने अपने अग्रजों और इस यात्रा में मिले हर व्यक्ति से कुछ-न-कुछ सीखकर झोली में समेट लिया। ऐसे ही कुछ अनुभवों का वर्णन लिखकर लेखक ने पाठकों के लिए छोड़ दिए हैं।
एक यायावर के तौर पर, एक बंजारे के तौर पर या एक घुमंतू के तौर पर अगर पंकज सुबीर इन यात्राओं को करते तो निस्संदेह ही उनके अनुभव कुछ अलग होते, क्योंकि बड़ों के साथ और सान्निध्य में कुछ सम्मान और अनुशासन तो बना ही रहता है। जिन देशों की यात्रा उन्होंने की है, वहां की और हमारी अर्थव्यवस्था में काफी अंतर है जिसकी वजह से लेखक अपने प्रियजनों के लिए उपहार खरीदने में जो गणनाएं करता है, वह पाठक को उस परिस्थिति में भी हंसा देती हैं।
वहां की राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था के बारे में भी हमें जानने का अवसर मिलता है। ब्रिटेन संसद में जाने के अपने अनुभव से लेखक वहां और यहां के सांसदों का अंतर बताते हैं, वहीं संसद के एक सुरक्षा अधिकारी का हृदयस्पर्शी व्यवहार लेखक को छू जाता है।
लेखक लिखता है, 'चेकिंग के बाद मैं अपना सामान उठाकर कोट पहनकर चलने को होता हूं कि एक बड़ा ऑफिसर मुझे पीछे से आवाज देकर रोकता है। मैं वहीं रुक जाता हूं और वह मेरे पास आता है और मेरे कोट की कॉलर पीछे से ठीक करने लगता है, जो मुड़ी रह गई थी। कॉलर ठीक करके वह मुस्कुराहट के साथ मुझे जाने को कहता है। मैं हतप्रभ-सा धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाता हूं।'
इसी प्रकार किसी साहित्यिक आयोजन के अनुभव पर भी लेखक लिखता है, 'पहली बार एक सम्मान समारोह देख रहा हूं, जो पूरी तरह से लेखक और उसकी कृति पर केंद्रित है, पुरस्कृत कृति पर, न कि सम्मान और सम्मान करने वाली संस्था पर।'
कुछ चीजों में लेखक का भोलापन और सादगी सामने आती है। पूरे संस्मरण में कहीं भी, किसी भी और एक भी दिन का नाश्ता, दोपहर का खाना, रात का खाना लेखक लिखना नहीं भूला है। कितने शौक से और कितनी तबीयत से उन्होंने चीजें खाई हैं और चखीं। बाहर जाकर घर का खाना नहीं मांगा। कहा कि मैं यहां आया हूं तो तरह-तरह के खाने क्यूं न आजमाऊं? खाने के प्रति यह राग, यह आग्रह हमें कम दिखाई देता है।
भोजन कराने का प्रेमी और भोजन को उसी प्रेम से खाने वाले लोग सरल, मृदुल और विनम्र होते हैं। भोजन आपको लोगों के नजदीक लेकर आता है। भोजन से प्यार करने का मतलब यह नहीं है कि आप ठूंस-ठूंसकर, पेट भरकर खाएं। भोजन संस्कार की नींव में प्रेम होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में भोजन प्रेम-प्रदर्शन का साधन है।
लेखक नरम दिल होते ही हैं। जो भी कोई बौद्धिक व्यक्ति होगा वह प्रकृति के उतना ही नजदीक होगा। वह प्रकृति को उतना ही सराहेगा और उसे प्रकृति हमेशा अपनी तरफ खींचती रहेगी। हर जगह पर, हर देश में व हर कहीं पर लेखक जब यह यात्राएं कर रहा है तो वह वहां की प्रकृति से भी सबसे पहले जाकर मिलता है।
सबसे पहले वहां की प्राकृतिक छटा का आनंद लेखक लेता है। वनस्पतियों से पूछता है उनके नाम। जो पौधे हैं, जो पेड़ हैं, उन सबके साथ सबसे पहले जाकर उस धरती के साथ जुड़ता है। उनके नाम जानने की और याद करने की कोशिश करता है। जैसे बता रहा है उन्हें, 'मैं बहुत दिनों बाद देखो आज तुम्हारे पास आ ही गया हूं। मैं तुम्हें जानता हूं। तुम मेरे देश में बस थोड़े से अलग रंग के हो, पर हो।'
हर एक दर्शनीय स्थल, पोस्टकार्ड शहर, पोस्टकार्ड जगहों में बहुत ज्यादा रुचि नहीं है लेखक की। वह वहां के जनमानस को जानना चाहता है, पर उनका वर्णन बहुत सही ढंग से दिया है और मौसम का वर्णन भी बहुत सहज ढंग से किया है। शब्दों का अनुवाद बहुत ही रोचक है, जैसे एक जगह नियाग्रा फॉल्स देखने जब लेखक जाता है तो वह वहां लिखता है कि 'ब्राइडल वेल फॉल' यानी 'दुल्हन का घूंघट' ये हिन्दी अनुवाद है।
इस तरीके से आनंद लेते हुए आदतन लेखक कुछ ऐसी बातें भी कह गए हैं जिनके लिए वे जाने जाते हैं- जीवनोपयोगी सूक्तियां। जैसा कि एक जगह वे लिखते हैं, 'विमान रनवे पर दौड़ रहा है, दौड़ रहा है ऊपर उठने के लिए। ऊपर उठने के लिए दौड़ना ही पड़ता है। जब आप अपनी सबसे तेज गति से दौड़ते हैं तभी ऊपर उठ पाते हैं।' कितना सुंदर जीवन-दर्शन एक साधारण से विमान को माध्यम बनाकर लेखक ने दे दिया है।
एक सामान्य से सामाजिक शिष्टाचार की घटना पर लेखक इस प्रकार लिखते हैं, 'एक घर में कोई कुत्ता बहुत जोर से भोंक रहा है, उसका मालिक शर्मिंदा होते हुए हर आने-जाने वाले को 'सॉरी' कह रहा है। यह सिविक सेंस भारत ले जाने की बहुत इच्छा हो रही है।' कोई शहर आपने कितनी बार भी देख रखा हो, उसका भी यात्रा संस्मरण अगर आप पढ़ेंगे तो भी आपको कोई नई चीज उसमें मिल जाएगी।
कुछ किताबें एक ही बैठक में अपने आपको पढ़वा लेती हैं, मेरे लिए यह वही किताब है। यह एक बहुत सुंदर से मुखपृष्ठ पर सुनहरी स्याही से लिखे हुए शीर्षक और लेखक के नाम वाली खुशबूदार किताब है। इसमें रोचकता की खुशबू तो है ही, पर इसके पन्ने सच में महक रहे हैं।
पुस्तक- 'यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं' (यात्रा संस्मरण)
लेखक- पंकज सुबीर
प्रकाशन- शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, सीहोर, (मप्र)। पिन : 466001
मूल्य- 150 रुपए
संस्करण- प्रथम पेपरबैक संस्करण, पृष्ठ 144